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यूपी में योगी आदित्यनाथ क्यों अखिलेश, मायावती, प्रियंका को तवज्जो नहीं देते लेकिन ओवैसी की चुनौती स्वीकार की है

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अब ओवैसी के ‘प्रशंसक’ बन गए हैं. और एआईएमआईएम प्रमुख को ‘बड़ा राष्ट्रीय नेता’ बताते हैं.

फाइल फोटो: यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ/ फोटो: एएनआई

आपको क्या लगता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ किसे अपना दुश्मन नंबर-1 मानते हैं? ‘योगी’, ‘अखिलेश’, और ‘मायावती’ जैसे कीवर्ड साथ मिलाकर गूगल सर्च करने की कोशिश करके देख लें. इन विपक्षी नेताओं की तरफ से उन पर कई सियासी हमले करने की खबरें मिलेंगी. लेकिन उस पर योगी आदित्यनाथ की प्रतिक्रिया के संदर्भ में कुछ नहीं मिलेगा! उनके पास बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती के बारे में कहने के लिए कुछ नहीं था. हालांकि उन्होंने समाजवादियों के ‘बहुरूपिया ब्रांड’ और ‘वंशवादी समाजवाद’ के बारे में बात की थी.

कुछ महीने पहले, उन्होंने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के नाम का उल्लेख नहीं किया था. हो सकता है कि सर्च इंजन को कुछ ज्यादा बेहतर कीवर्ड की जरूरत पड़ती हो. लेकिन तथ्य यह है कि यूपी के मुख्यमंत्री ने अपने दो पूर्ववर्तियों के साथ किसी मुंहजुबानी जंग में उलझने से परहेज ही किया है.

पिछले हफ्ते द इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान जब उनसे यह पूछा गया कि अगले साल प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में किसे अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी मानते हैं, तो योगी एकदम दार्शनिक अंदाज में बोले—‘मैं किसी को विरोधी नहीं मानता. दोनों पक्ष (सरकार और विपक्ष) लोकतंत्र का हिस्सा हैं…’

हो सकता है किसी एक प्रतिद्वंद्वी का नाम लेना ‘गैर-यौगिक’ हो. इसके बजाये उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी की तारीफ करके उसके बारे में अनुमान लगाना दुनिया पर छोड़ दिया. यूपी के मुख्यमंत्री शनिवार को कहा, ‘(असदुद्दीन) ओवैसी जी एक बड़े राष्ट्रीय नेता हैं. वह चुनाव प्रचार के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में जाते हैं और उनका अपना जनाधार है. अगर उन्होंने भाजपा को चुनौती दी है, तो भाजपा कार्यकर्ता उनकी चुनौती स्वीकार करेंगे.’

यह प्रतिक्रिया ओवैसी की टिप्पणी के जवाब में थी जिसमें उन्होंने कहा था कि 2022 के चुनावों के बाद योगी को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया जाएगा.

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तो फिर योगी आदित्यनाथ किसी ऐसे व्यक्ति को ‘जनाधार’ वाले ‘राष्ट्रीय नेता’ के तौर पर क्यों देखने लगे, जिसकी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) ने 2017 में जिन 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उसमें उसे मात्र 2.46 प्रतिशत वोट मिले थे? याद कीजिए कि एआईएमआईएम के इन 38 उम्मीदवारों में से 37 की जमानत जब्त हो गई थी.

ओवैसी का ‘धर्मनिरपेक्ष’ पार्टियों से मोहभंग होने का कारण है

एआईएमआईएम प्रमुख के लिए योगी आदित्यनाथ की तारीफ भरे नए-नए बोलों पर चर्चा से पहले आइए एक बार नजर डालें ओवैसी की पृष्ठभूमि पर और वह क्यों और कैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष खेमे के लिए ‘वोट-कटवा’ यानी उनके मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने वाले बन गए हैं.

नवंबर 2012 की बात है जब ओवैसी आंध्र प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर धर्मनिरपेक्ष सरकार नहीं रह जाने का आरोप लगाते हुए यूपीए से बाहर हो गए थे. हैदराबाद में चारमीनार से सटे एक मंदिर के विस्तार का विरोध करने पर एआईएमआईएम के सात विधायकों को गिरफ्तार किया गया था. तब तक वह एक तेजतर्रार वक्ता के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे. कांग्रेस जब आंध्र प्रदेश के विभाजन पर चर्चा कर रही थी, तो उन्होंने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से दो टूक कह दिया था—‘यदि आंध्र प्रदेश को बांटा जाता है तो यह मेरी राजनीति (तेलंगाना क्षेत्र में) के लिए तो अच्छा होगा. इससे तेलंगाना में भाजपा को पैर जमाने का मौका मिलेगा. लेकिन आपको पता होना चाहिए कि यह आपकी पार्टी को खत्म कर देगा और राज्य के लिए भी बुरा है.’ उस समय के पूरे घटनाक्रम से वाकिफ एक सूत्र का कहना है कि गांधी ने इस सलाह को नहीं माना और कुछ साल बाद विभाजन सुनिश्चित करने की दिशा में कदम आगे बढ़ा दिया.

कांग्रेस से नाता तोड़ने के बाद भी ओवैसी ने गैर-भाजपा दलों के साथ नजदीकी बढ़ाने में गुरेज नहीं किया, यह अलग बात है कि उन्होंने निजी तौर पर अपने करीबी दोस्तों को बताया कि कैसे उन्हें उनकी मुसलमानों को ‘मात्र वोट बैंक’ मानने वाली राजनीति से नफरत है. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले सोनिया गांधी ने ओवैसी से बातचीत के लिए पार्टी के एक वरिष्ठ नेता को भेजा. कांग्रेस के साथ दोस्ती बढ़ाते न दिखने की कोशिश में वह बाइक से होटल पहुंचे और हेलमेट लगाकर ही अंदर दाखिल हुए. जैसा ओवैसी के एक सहयोगी ने मुझे बताया, उन्हें दो घंटे से ज्यादा समय तक कांग्रेस नेता का इंतजार करना पड़ा जो उस समय अपनी गर्लफ्रेंड संग डिनर कर रहे थे. बैठक का कुछ नतीजा नहीं निकला. उनके सहयोगी कहते हैं कि समय के साथ ओवैसी को लगने लगा कि बड़ी धर्मनिरपेक्ष पार्टियां उनके जैसे लोकप्रिय मुस्लिम नेताओं को अपनी वोट बैंक की राजनीति आगे बढ़ाने के लिए ‘इस्तेमाल’ करना चाहती हैं, मुसलमानों की भलाई और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने के नाम पर वह सिर्फ जुबानी जमा-खर्च ही करती हैं.

तबसे एक लंबा अरसा बीत चुका है. धर्मनिरपेक्ष खेमे के उनके पूर्व सहयोगी उन्हें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की बी-टीम बताने लगे हैं. 2014 से लेकर पिछले छह वर्षों में हुए चुनावों के नतीजों पर मेरी सहयोगी फातिमा खान द्वारा पिछले साल सितंबर में किए गए एक विश्लेषण से पता चलता है कि इन आरोपों में कोई दम नहीं कि ओवैसी भाजपा की जीत में निर्णायक भूमिका निभाते हैं.


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क्या बात आदित्यनाथ को ओवैसी का ‘प्रशंसक’ बनाती है

अब इस पर लौटते हैं कि आखिर योगी आदित्यनाथ को अचानक ओवैसी में ‘जनाधार’ वाला एक ‘राष्ट्रीय नेता’ क्यों दिखने लगा, जवाब स्वाभाविक है: यूपी के मुख्यमंत्री ने ओवैसी को अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी/विरोधी के तौर पर सामने खड़ा करने का फैसला किया है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता मायावती, अखिलेश और अन्य किस पायदान पर खड़े हैं.

एआईएमआईएम उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 100 पर चुनाव लड़ सकती है, जिनमें मुसलमानों की आबादी 19 फीसदी के करीब है. अनुमानत: लगभग 50 सीटों (जहां मतदाताओं में उनकी हिस्सेदारी 30 प्रतिशत से अधिक है) पर ये निर्णायक असर डालते है, जबकि 130 से अधिक सीटों पर उनकी उपस्थिति महत्वपूर्ण है. लेकिन वजह ये संख्या (उन सीटों की जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक साबित होते हैं) नहीं हैं जो भाजपा नेतृत्व को उत्साहित कर रही है. उसने तो चुनाव का रुख हिंदू-मुस्लिम चर्चा पर केंद्रित करने के लिए उनकी तरफ नजरें गड़ा रखी हैं.

यूपी में विकास के तमाम दावों के बावजूद अगला विधानसभा चुनाव कोविड-19 को लेकर कुप्रबंधन पर केंद्रित होने के आसार है, संक्रमण के मामले और मृत्यु दर कम होने का आधिकारिक आंकड़ा, लाखों प्रवासी मजदूरों को मदद पहुंचाई जाना या ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की सूची में यूपी का 2016 के 16वें स्थान से सुधरकर नंबर-2 के पायदान पर पहुंच जाना कोई मायने नहीं रखता. भाजपा के विधायक और सांसद शहरों में पहुंचने पर कुशल कोविड प्रबंधन को लेकर सरकार के दावों पर सवाल उठा रहे हैं. नदियों में उतराते और गंगा किनारे रेत में दफना दिए गए कोविड पीड़ितों के शवों की तस्वीरों ने स्थायी छाप छोड़ी है, जिसे विपक्षी दल चुनाव प्रचार के दौरान उछालते रहेंगे. हिंदी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जो यूपी के ही रहने वाले थे, ने स्पेनिश फ्लू के दौरान गंगा नदी को ‘फूल चुके, लावारिस शवों से भरा’ देखा था. निराला का लेखन भले ही आज के राजनीतिक विमर्श का हिस्सा न हो, लेकिन इसने समकालीन प्रासंगिकता तो बना ही ली है.

इसलिए, योगी आदित्यनाथ निश्चित तौर पर ओवैसी को राज्य में मुसलमानों के साथ भेदभाव पर उत्तेजक बहस में शामिल करना पसंद करेंगे, खासकर नागरिकता विरोधी (संशोधन) अधिनियम या सीएए प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कथित ज्यादतियों के संदर्भ में.


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यूपी एआईएमआईएम के लिए बंगाल जैसा क्यों नहीं होगा?

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ रखने वाले राजनीतिक दलों—खासकर समाजवादी पार्टी—ने अगर 2017 के चुनावों और इस साल के शुरू में पश्चिम बंगाल के चुनावी रिकॉर्ड के आधार पर एआईएमआईएम को आंकने की कोशिश की तो यह उनकी गलती होगी. बंगाल में ओवैसी की पार्टी अपनी पहचान बनाने में नाकाम रही, उसने जिन सात सीटों पर चुनाव लड़ा, सभी पर 0.93 प्रतिशत वोट के साथ अपनी जमानत तक गंवा दी. लेकिन ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ममता बनर्जी ने मुस्लिम वोट बैंक पर अपनी पकड़ बरकरार रखी और खुद को पूरी सफलता से भाजपा के खिलाफ एकमात्र बड़ी ताकत के रूप में पेश कर पाईं. इसके अलावा, एआईएमआईएम ने वहां जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं किया था और उसके संभावित सहयोगी, अब्बास सिद्दीकी के भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (आईएसएफ) ने भी आखिरी समय पर साथ छोड़ दिया था.

बहरहाल, यूपी में सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों को 2020 के बिहार चुनावों में एआईएमआईएम के प्रदर्शन के संदर्भ में चिंता करनी चाहिए, जहां उसने 20 सीटों पर प्रत्याशी उतारे और 14.28 प्रतिशत वोट शेयर के साथ पांच पर जीत हासिल की थी. बिहार में 2015 के चुनावों में एआईएमआईएम की झोली खाली रही थी और उसे छह में से एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई थी. लेकिन पार्टी ने राज्य में अपना काम करना जारी रखा, आखिरकार पांच साल बाद नतीजा सामने आया. 2017 में यूपी में एआईएमआईएम के प्रदर्शन को ये पार्टियां आसन्न खतरे का एक पैमाना मान सकती हैं.

अखिलेश यादव ने भले ही सीएए के खिलाफ साइकिल रैलियां निकाली हों और कांग्रेस की प्रियंका वाड्रा ने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों से मुलाकात की हो, लेकिन यह मामूली समर्थन से ज्यादा कुछ नहीं था. सपा और कांग्रेस दोनों ही खुद को हिंदू समर्थक पार्टियों के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, अखिलेश यादव ने तो यहां तक दावा कर दिया है कि भगवान राम समाजवादी पार्टी के हैं और ‘हम राम भक्त और कृष्ण भक्त हैं.’ चुनावों से पहले इन दलों की तरफ से खुद को हिंदू समर्थक बताने की कोशिशें और तेज किए जाने की संभावना है क्योंकि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का बुनियादी काम 2021 के अंत तक पूरा होने की संभावना है, जिससे भाजपा को एक अच्छी बढ़त मिल जाएगी. और, अखिलेश और प्रियंका को यह नहीं भूलना चाहिए कि केंद्र अगले छह-सात महीनों में किसी भी समय नागरिकता कानून संबंधी नियमों को ला सकता है, इससे सीएए के समर्थन और विरोध में एक बार फिर बहस छिड़ जाएगी. ओवैसी इन सभी बेवजह की बहसों में उत्साह के साथ हिस्सा लेंगे, जबकि ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों के लिए बीच का रास्ता तलाशना मुश्किल होगा.

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि योगी आदित्यनाथ यूपी में असदुद्दीन ओवैसी के स्वागत के लिए इतने ज्यादा उत्सुक हैं.

लेखक का ट्विटर हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढने के लिए यहां क्लिक करें)


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