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क्लबहाउस से लेकर फेसबुक तक कश्मीरी पंडितों को खुलेआम कट्टरपंथी पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है

कश्मीर में, भारतीय शासन का वफादार माने जाने वाले लोगों को ‘मुखबिर’ करार दिया जाता है, जिससे पाकिस्तानी आतंकवादी गुटों के लिए उन्हें मारने के वास्ते चिन्हित करना आसान हो जाता है.

श्रीनगर के लाल चौक पर सुरक्षाकर्मियों की फाइल फोटो | एएनआई

पिछले दिनों मैं लोकप्रिय सोशल मीडिया ऐप क्लबहाउस पर एक चैट रूम में घुसा. वहां हो रही चर्चा का कोई घोषित शीर्षक या विषय नहीं था. वहां बहस करने वालों का एक समूह ‘स्वतंत्रता संग्राम’ कहे जा रहे किसी मुद्दे पर बात कर रहा था. उनकी बातों को सुनकर ये स्पष्ट हो गया कि मैं एक बड़े कश्मीरी समूह के बीच था जिसमें श्रीनगर तथा अनंतनाग, शोपियां और बिजबेहरा जैसे दूरवर्ती इलाकों के लोग शामिल थे. प्रतिभागियों की सूची को सरसरी तौर पर देखने से पता चला कि समूह में केवल दो कश्मीरी हिंदू थे- मैं और एक अन्य सज्जन. वक्ताओं में से एक ने अल्पसंख्यक पंडित समुदाय का उल्लेख करते हुए जोर से कहा कि एक स्वतंत्र कश्मीर के भविष्य में उनकी हिस्सेदारी नहीं हो सकती क्योंकि कश्मीरी पंडित भारतीय शासन का अभिन्न अंग हैं. इस पर, चैट रूम में मौजूद दूसरे पंडित ने चिल्लाकर कहा कि पंडित समुदाय को भी रूम में मौजूद बाकी लोगों की तरह निर्णय प्रक्रिया में शामिल होने का अधिकार है. इस पर बहस में कूदते हुए एक व्यक्ति ने उसे ‘भारतीय आधिपत्य’ का हिस्सा करार दिया और उसके बाद मामला बिगड़ता चला गया.

मैंने क्लबहाउस के उस चैट रूम में अपना आभासी हाथ उठाया और कुछ समय के लिए मंच मेरे हवाले किया गया. कुछ मिनटों के भीतर मैंने कुछ महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा की, मुख्य रूप से घाटी में पंडितों के पुनर्वास की ज़रूरत पर, ख़ासकर जिनके पास कहीं और जाने के लिए साधन नहीं थे और जो अभी भी खस्ताहाल शरणार्थी शिविरों में पड़े हैं. मेरे बाद बोलने वाले व्यक्ति ने दोटूक शब्दों में कहा कि कश्मीर में पंडितों का स्वागत तभी किया जाएगा जब वे भारत के साथ सारे संबंध तोड़कर ‘स्वतंत्रता संग्राम’ में शामिल होंगे, वरना उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होगी.

एक बार फिर, मैंने जवाब देने के लिए अपना आभासी हाथ उठाने की कोशिश की लेकिन मुझे एहसास हुआ कि मुझे ब्लॉक कर दिया गया है.

क्लबहाउस पर इस बहस के कुछ दिनों बाद, मेरी मुलाकात एक रिपोर्टर से हुई, जो मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका पर केंद्रित लंदन के एक डिजिटल समाचार संस्थान के लिए काम करता है. विगत में, पंडितों के ऊपर एक संतुलित लेख के लिए मैं पत्र लिखकर उसकी प्रशंसा कर चुका था. इसलिए मुझे और भी आश्चर्य हुआ जब, ये जानते हुए भी कि मैं कश्मीरी हूं, उसने भारतीय पहचान छोड़े बिना कश्मीर लौटने के कारण मुझे शत्रु पक्ष का ‘सहयोगी’ करार दिया. इस पत्रकार की भी यही राय थी कि अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय का कश्मीर में स्वागत तभी किया जाएगा जब वे भारत से अपने सारे संबंध तोड़ लेंगे.

मैं चकित था और इस तरह की नफरत पर हैरान भी. लेकिन मुझे जल्दी ही एहसास हो गया कि कश्मीरी सोशल मीडिया विमर्शों में या अन्यथा भी इस प्रकार का कट्टरपंथी पूर्वाग्रह आम है.

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बदनामी का अभियान और अधूरा सच

श्रीनगर के पास एक सफल व्यवसाय चलाने वाले पंडितों के एक परिवार के खिलाफ शहर के बाहरी चट्टाबल बस्ती के समीउल्लाह चालारू नामक व्यक्ति ने बदनाम करने का अभियान शुरू कर दिया. फर्जी ट्विटर और फेसबुक अकाउंट का इस्तेमाल करते हुए, चालारू ने पंडित परिवार पर भारतीय सुरक्षा बलों के लिए मुखबिरी कर आतंकवादियों को पकड़वाने में मदद करने का आरोप लगाया. परिवार पर गंभीर खतरे की बात मानते हुए, श्रीनगर के एसएसपी संदीप चौधरी ने चालारू के सोशल मीडिया अकाउंट का पता लगाया, जिसके बाद जल्दी ही उसे गिरफ्तार कर लिया गया. पता चला कि वह आदतन अपराधी है.

स्थानीय बोलचाल में, भारतीय शासन के प्रति वफादार माने जाने वाले लोगों को ‘दलाल’, ‘मुखबिर’ या ‘शत्रु पक्ष का सहयोगी’ कहा जाता है. इससे लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद जैसे पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गुटों के लिए उन्हें पहचानना और उन्हें खत्म करने के लिए चिन्हित करना आसान हो जाता है. वरिष्ठ कश्मीरी पत्रकार शुजात बुखारी और अनेक अन्य लोगों को खत्म करने के लिए इसी तरह चिन्हित किया गया था.

इस तरह के पूर्वाग्रह वाले शब्दों का इस्तेमाल अक्सर चालारू और उसके जैसे अन्य ‘ओवरग्राउंड वर्कर’ करते हैं जोकि सोशल मीडिया या पारंपरिक समाचार प्रकाशनों के माध्यम से उग्रवादियों का समर्थन करते हैं. इस भयावह परिदृश्य में शत्रुओं के असल सहयोगी वास्तव में ये लोग ही हैं.

घाटी में मीडिया का पूर्वाग्रह स्पष्ट और साफ रहा है. 2019 के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि 5 अगस्त से 3 सितंबर 2019 के बीच मुख्यधारा के कुछ प्रमुख समाचार प्रकाशनों में कश्मीर के बारे में छपी 132 रिपोर्टों में से केवल तीन प्रतिशत में कश्मीरी पंडितों का उल्लेख था. साफ है कि पंडितों का मुद्दा उनके लिए बेमेल है क्योंकि यह अलगाववादियों के कथानक को कमजोर करता है.

खतरा बने ओवरग्राउंड वर्कर

सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज के कर्नल एएस चोंकर के अनुसार, ‘ओवरग्राउंड वर्कर (ओजीडब्ल्यू) हमेशा उग्रवादी आंदोलनों का एक प्रमुख आधार रहे हैं.

पहले, ओजीडब्ल्यू के मुख्य कार्य थे लॉजिस्टिक सहायता उपलब्ध कराना और खुफिया जानकारी जुटाना. हाल के दिनों में इससे इतर कार्यों में भी उनकी भागीदारी देखी गई है, और आबादी के साथ तेजी से घुलने-मिलने की क्षमता के साथ ओजीडब्ल्यू छोटे पैमाने पर हमले करने में सक्षम है. जम्मू कश्मीर में ओजीडब्ल्यू अपने हैंडलरों के लिए रणनीतिक संचार और भर्ती का अहम जरिया भी हैं.’

चोंकर ओजीडब्ल्यू को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटते हैं:

1) हमलावर दस्तों की लॉजिस्टिक मदद के लिए ओजीडब्ल्यू (ओजीडब्ल्यूएस)
2) फंडिंग के प्रबंधन के लिए ओजीडब्ल्यू मैनेजिंग (ओजीडब्ल्यूएफ)
3) वैचारिक समर्थन प्रदान करने वाले ओजीडब्ल्यू (ओजीडब्ल्यूआईएस)
4) कट्टरपंथ के समर्थन के लिए ओजीडब्ल्यू (ओजीडब्ल्यूआरएस)
5) आतंकवादियों की भर्ती के लिए ओजीडब्ल्यू (ओजीडब्ल्यूआर)
6) जनता में नकारात्मक धारणा और भावना पैदा करने वाले ओजीडब्ल्यू (ओजीडब्ल्यूपीएस)

साथ ही, ऐसे ओजीडब्ल्यू भी हैं जो पाकिस्तान में अपने समकक्षों के साथ मिलकर आतंकी कृत्यों को अंजाम देने में मदद करते हैं. पुलवामा हमले के बाद, मोबाइल और इंटरनेट नेटवर्क बंद किए जाने के कारण आतंकी नेटवर्कों को अपने ठिकाने चंडीगढ़ जैसे पड़ोसी क्षेत्रों में ले जाने को बाध्य होना पड़ा था. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की एक पड़ताल से पता चला है कि जैश-ए-मोहम्मद के तीन ओजीडब्ल्यू — जहूर अहमद खान, शोएब मंजूर और सुहैल जावेद लोन न कथित तौर पर चंडीगढ़ में इंटरनेट सेवाओं का उपयोग कर अपने पाकिस्तान स्थित आकाओं अबू हमजा और अबू बकर के संपर्क में थे. उन्हें सौंपे गए कामों में कश्मीर में सीमा पार से हथियारों और आतंकवादियों की घुसपैठ कराना शामिल था. इससे घाटी जैसे आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में इंटरनेट सेवाओं के रणनीतिक निलंबन का उद्देश्य साफ हो जाती है.


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क्लबहाउस वाले मेरे उपरोक्त अनुभव के कुछ दिन बाद ही, त्राल गए भारतीय जनता पार्टी के एक पार्षद राकेश पंडित की हत्या कर दी गई. इसके तुरंत बाद, निर्दोष नागरिकों और जम्मू कश्मीर पुलिस के अधिकारियों की हत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया. इन हत्याकांडों का शिकार हुए लोगों में से एक थे इंस्पेक्टर परवेज़ अहमद डार, जिन्हें नौगाम में नमाज़ से लौटते वक्त मार डाला गया. इंस्पेक्टर डार के परिवार में उनकी पत्नी और 10 और 13 साल के दो बच्चे हैं. इसी तरह पुलवामा में, जैश-ए-मोहम्मद के दो आतंकवादियों ने जम्मू कश्मीर पुलिस के विशेष अधिकारी (एसपीओ) फैयाज़ अहमद तथा उनकी पत्नी और बेटी को मार डाला.

जब आतंकवादी घाटी में निर्दोष लोगों को निशाना बनाते हैं, या जब हत्या के उनके कृत्यों पर सुदूर मुंबई, दिल्ली, अमेरिका या ब्रिटेन में पत्रकारों और शिक्षाविदों द्वारा सफाई दी जाती है, तो परिणाम वे नहीं बल्कि स्थानीय छोटे व्यवसायी, कारीगर और आम कश्मीरी भुगतते हैं. भ्रम की अपनी दुनिया में जी रहे लोगों के अलावा बाकियों के लिए ये बिल्कुल स्पष्ट है कि आतंकवादियों और उनके समर्थकों की कश्मीरियों के कल्याण में कोई रुचि नहीं है, और निश्चित रूप से वे ‘आजादी’ के किसी रूमानी ख्याल से प्रेरित नहीं हैं.

भयावह सत्य

इस लेखक समेत हममें से कइयों के लिए, जोकि उदार मूल्यों के साथ पले-बढ़े हैं, हमारे समुदायों और राष्ट्र के टुकड़े करने की मंशा रखने वाली ताकतों से बचाने के लिए आवश्यक कठोर फैसलों को समझना मुश्किल हो सकता है. अच्छी कला और साहित्य से हमें उनके व्यापक संदर्भ और उनसे जुड़ी नैतिक दुविधाओं और बलिदानों को समझने में मदद मिल सकती है.

विश्वविद्यालय में पढ़ाई वाले दिनों में, फ्रांसिस फोर्ड कपोला की फिल्म ‘एपोकैलिप्स नाउ’ ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी थी. जोसेफ कॉनराड के मूल उपन्यास ‘हार्ट ऑफ डार्कनेस’ पर आधारित फिल्म में सेना के एक प्रतिष्ठित पशु चिकित्सक कर्नल कुर्त्ज़ की कहानी है, जो वियतनाम युद्ध के दौरान पागल हो जाता है और घने जंगलों के भीतर अपनी निजी जागीर चलाने वाला अत्याचारी बन जाता है. इस तरह वह अपने ही पक्ष के लिए एक स्पष्ट और तात्कालिक खतरा बन जाता है. स्थिति को संभालने के लिए विलार्ड नामक एक युवा अधिकारी को भेजा जाता है. आदर्शवाद और नैतिक उहापोह के कारण विलार्ड अपने ही पक्ष के एक व्यक्ति को खत्म करने के विचार से सहमत नहीं हो पाता है, ऐसे में अपने कमांडिंग ऑफिसर से सलाह लेता है जो दोटूक शब्दों में कहता है कि उसे अपनी भावनाओं को अलग रखते हुए अपने कर्तव्य को पूरा करना चाहिए.

कमरे से बाहर निकलने से पहले कमांडिंग ऑफिसर द्वारा विलार्ड से कहे अंतिम शब्द थे, ‘अतिपूर्वाग्रह के साथ उसे ख़त्म करो.’

(विक्रम ज़ुत्शी @vikramzutshi एक पत्रकार, फिल्मकार और सांस्कृतिक आलोचक हैं. वह द बिग टर्टल पॉडकास्ट का संचालन और सूत्र जर्नल का संपादन करते हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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