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कश्मीर में कांग्रेस ने क्या-क्या गंवाया?

कांग्रेस ने अस्सी-नब्बे के दशक वाली ग़लती इस बार फिर से दोहरा दी. ज़ाहिर है एक बार फिर उसे इसका परिणाम भुगतान पड़ेगा.

श्रीनगर में बंद दुकानों के पास चलते हुए लोग ।अनिन्दितो मुख़र्जी

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद-370 में बदलाव के लिए उठाए गए क़दम पर कांग्रेस पार्टी जिस तरह से दिशाहीन नज़र आयी, उससे लगता है कि उसे इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. संसद के दोनों सदनों-राज्यसभा और लोकसभा में कांग्रेस जिस तरह भ्रमित नजर आई और उसके नेता जिस तरह अलग-अलग बयान देते नजर आए, उसका आकलन करने की कोशिश इस लेख में की जाएगी. साथ ही ये भी जानने की कोशिश की जाएगी कि कांग्रेस की भविष्य की संभावनाओं पर इसका क्या असर हो सकता है.

कांग्रेस की दिशाहीनता के सबूत

कश्मीर पर कांग्रेस की दिशाहीनता का नज़ारा सबसे पहले राज्यसभा में दिखा, जहां पार्टी के चीफ़ ह्विप-भुवनेश्वर कालिता ने सांसदों को ह्विप जारी करने से माना करते हुए राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया. कलिता ने कश्मीर मामले पर पार्टी के स्टैंड को जन भावना के विरुद्ध बताया. कलिता के अलावा जनार्दन द्विवेदी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, अदिति सिंह आदि ने भी पार्टी लाइन से हटकर कश्मीर मुद्दे पर मोदी सरकार के फैसले से सहमति दर्ज करायी. इससे ऐसा संदेश गया कि कांग्रेस के युवा नेतृत्व का एक हिस्सा जन भावना के साथ खड़ा है, वहीं पुराना नेतृत्व अपना रवैया बदलने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसी ही स्थिति पार्टी द्वारा जल्दबाज़ी में बुलायी गयी कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग में भी दिखी, जहां युवा नेतृत्व जन भावना का हवाला देकर सरकार के फ़ैसला साथ खड़ा हुआ, तो पुराने नेता विरोध में रहे.

इस पूरे मामले में राहुल गांधी की भूमिका अजीब रही. पहले तो वो पूरे मामले पर चुप्पी साधे रहे, लेकिन युवा नेताओं के एक-एक करके पार्टी के स्टैंड के ख़िलाफ़ जाने पर ट्वीट करके पार्टी का स्टैंड क्लीयर करने की कोशिश की, लेकिन जब वे लोकसभा में पहुंचे तो उन्होंने इस मामले पर न बोलने का फ़ैसला किया. विदित हो कि लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कश्मीर पर जो कुछ बोला (वे लगभग ये बोल गए कि कश्मीर अंतरराष्ट्रीय मसला है). वह यह दिखाता है कि इस मामले पर कांग्रेस ने किस तरीक़े से अपना होम वर्क नहीं किया था. राहुल गांधी लोकसभा में बोलकर अधीर रंजन चौधरी की ग़लती सुधार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. आने वाले समय में अधीर रंजन चौधरी की ग़लती की क़ीमत कांग्रेस को बार-बार चुकानी पड़ सकती है. इन सब के अलावा राहुल गांधी ने पार्टी की वर्किंग कमेटी की मीटिंग में वरिष्ठ नेताओं का साथ दिया, जिससे पता चलता है कि वो किस तरह से सिंडिकेट से घिरे हुए हैं.

कांग्रेस को संभावित नुक़सान

जनसंघ के दिनों से ही बीजेपी वाली राजनीतिक धारा कांग्रेस को कश्मीर समस्या का असली दोषी बताती रही है. इस बार भी सदन में जिस तरीक़े से बहस हुई, उसमें इस समस्या का पूरा दोष कांग्रेस और ख़ासकर पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के माथे फोड़ने की कोशिश की गयी. बीजेपी और उससे जुड़े संगठन इस तरह की बात जन मानस में कई दशकों से प्रचारित कर रहे हैं. कांग्रेस ने कभी भी अपनी तरफ़ से इस तरह की सूचना/अप्रचार का जवाब देने की कोशिश नहीं की, जिसकी वजह से जनमानस में कश्मीर समस्या की एक उथली-सी समझ बन चुकी है. इसका वे जादुई समाधान चाहते हैं. मोदी सरकार ने जिस त्वरित गति से इस मामले पर निर्णय लिया है, वह जादुई समाधान जैसा दिखता है, जिसकी वजह से आम जनमानस में बीजेपी ने काफ़ी समर्थन बटोरा. इस मामले पर कांग्रेस के रुख पर लोगों की जो प्रतिक्रिया आयी है, उससे पता चलता है कि यह पार्टी ज़मीन पर लोगों से कितना कट चुकी है.


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कांग्रेस पर इतिहास का बोझ

जनमानस में जम्मू-कश्मीर की छवि ऐसी बना दी गयी है जैसे कि वह एक मुस्लिम राज्य हो, जबकि सच्चाई यह है कि यह राज्य तीन क्षेत्रों से मिलकर बना था- जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख. जम्मू जहां हिंदू बहुल क्षेत्र है, तो कश्मीर में मुसलमान और लद्दाख में बौद्ध ज्यादा हैं. इन सब के बावजूद यह धारणा काफी लोकप्रिय है कि जम्मू-कश्मीर मुसलमान बहुल राज्य था. इसलिए कांग्रेस के इस राज्य की जनता के पक्ष में उठाए गए क़दमों को मुसलमानों के पक्ष में उठाया गया क़दम बता कर प्रचारित करना आसान हो गया था.

कश्मीर के बहाने कांग्रेस पर मुस्लिम परस्ती का आरोप वहां से पंडितों के पलायन की वजह से और भी जुड़ गया. वीपी सिंह के शासन काल में जगमोहन के राज्यपाल रहने के दौरान पंडितों का ज्यादा पलायन हुआ. उसके बाद आई कांग्रेस की सरकार ने स्थिति को सुधारने के लिए कुछ ऐसा ठोस नहीं किया, जिससे ये धारणा बनती की कांग्रेस को कश्मीरी पंडितों की परवाह है. उसी दौर में कांग्रेस ने शाहबानों के फ़ैसले को बदलने के लिए संसद से क़ानून बनवा दिया था, जिससे कांग्रेस के सवर्ण वोटरों में यह संदेश गया कि कांग्रेस मुसलमानों के दबाव में है और सवर्णों के हित में वह कोई भी फ़ैसला नहीं ले सकती. कश्मीर से पंडितों का पलायन उनके सामने उदाहरण था, जिसका परिणाम हुआ कि कांग्रेस को वोट देने वाला उच्च जाति का वोटर बीजेपी की तरफ़ चला गया. यह सब जानने के बावजूद कांग्रेस ने अस्सी-नब्बे के दशक वाली ग़लती इस बार फिर से दोहरा दी. ज़ाहिर है एक बार फिर उसे इसका परिणाम भुगतान पड़ेगा.

जम्मू-कश्मीर में नुक़सान

जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन की चर्चा जिस ओर मुड़ गयी है, इस राज्य में भी उसका संभावित नुक़सान कांग्रेस को ही उठाना पड़ेगा. दरअसल इस राज्य के पुनर्गठन की बहस को आंतरिक उपनिवेशवाद की तरफ़ मोड़ दिया गया है, जिसमें कश्मीर घाटी के मुकाबले जम्मू और लेह-लद्दाख के पिछड़ेपन को भी मुद्दा बना दिया गया है. ऐसा तर्क दिया जा रहा है कि केंद्र से मिलने वाली ज़्यादातर राशि कश्मीर घाटी में ही ख़र्च की गई, जिससे अन्य क्षेत्रों का ख़ासकर लद्दाख का अपेक्षाकृत विकास नहीं हुआ. लद्दाख के लोग अपने लिए संघ शासित प्रदेश की मांग लम्बे समय से कर रहे थे.


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सापेक्षिक पिछड़ेपन (रिलेटिव डिप्रिवेशन) के अलावा लद्दाख के लोगों का यह भी कहना रहा है कि उनके ऊपर कश्मीरियत के नाम पर कश्मीर घाटी की संस्कृति थोपी जा रही थी. नयी स्थिति में उनको इससे निजात मिल जाएगी. कश्मीर घाटी में विभाजन के समय पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी जम्मू-कश्मीर आकर बसे, लेकिन उनको अभी भी राज्य के स्थायी निवासी का दर्जा नहीं मिला है. नई व्यवस्था में उनकी यह समस्या हल हो सकती है. इस प्रकार हम पाते हैं कि राज्य के पुनर्गठन से कश्मीर घाटी के मुसलमानों के प्रभुत्व में कमी होती नज़र आती है. जबकि तमाम अन्य छोटे-छोटे समुदायों को फ़ायदा भी मिलता दिखाई देता है. कांग्रेस को इन समुदायों का समर्थन गंवाना पड़ सकता है.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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