होम मत-विमत भारत में ईश निंदा के संघर्ष में हिंदू हो या मुसलमान दोनों...

भारत में ईश निंदा के संघर्ष में हिंदू हो या मुसलमान दोनों ने दिखाया कि आस्था के आगे तर्क-बुद्धि गुम हो गई

मोदी सरकार की कार्रवाई शायद भू-राजनैतिक संदर्भ में व्यावहारिक हो, मगर इससे आखिरकार हिंदू और मुस्लिम धार्मिक राष्ट्रवादियों में और जहरीली होड़ ही मचेगी.

मनीषा यादव द्वारा चित्रण | दिप्रिंट

वह कुछ अश्लील-सी कविता इस तरह शुरू होती है, पवित्र शेख जन्नत के बगीचे में अपने दैवीय पुरस्कार की खोज में आता है: काली आंखों वाली नवयौवना के वृक्ष से एक हूरी लटकी है, जिसके आगोश में एक फल है. 2013 के शुरू में अल कायदा जेहादियों से भरी एक पिक-अप ट्रक सीरिया के शहर मारत अल-नुमान उस शख्स को दंडित करने पहुंची, जिसने मर्द लालसा, धर्म-शास्त्र और अल्लाह की पैरोडी बनाई थी. बस वे सिर्फ एक हजार साल बाद आए थे. बाकी रहा बस 11वीं सदी के महान अरब कवि अबु अल-आला अहमद इब्न ‘अब्दल्लाह अल-मार्री’ की सिर कटी मूर्ति के अवशेष. तो, वे बस यही कर पाए.

ईश-निंदा पर वैश्विक युद्ध के मोर्चे पिछले हफ्ते भारत में खुल गए, जब भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के दो नेताओं ने पैगंबर मोहम्मद की तौहीन की. पश्चिम एशिया की नाराज सरकारों ने भारत से माफी मांगने की मांग की, गुस्साए प्रदर्शनकारियों की उत्तर प्रदेश में पुलिस के साथ झड़प हुई, अल-कायदा ने कम उम्र फीदायीन हमलावरों की फौज उतार देने की धमकी दी.

भारत को तेल और गैस की आधी जरूरतों को पूरा करने वाले इलाके से रिश्ते बिगड़ने के डर से बीजेपी अपने इस्लाम विरोधी तर्क-शास्त्रियों की कर्कश आवाज पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रही है. भारत में धार्मिक पहचान को लेकर हिंसक टकराव बड़े वैश्विक टकराव में उलझते जा रहे हैं, जो औपनिवेशिक दौर के काफी पहले से ही उभरे और अनसुलझे रह गए.


यह भी पढ़ें: पाकिस्तान के लिए TTP जिहादियों के साथ शांति वार्ता करना खूनी युद्ध साबित हो सकता है


भारत में ईश-निंदा पर लड़ाई

बोलने की आजादी और धार्मिक अपराध के बीच संघर्ष भारत में 1924 में शुरू हुआ, जब आर्य समाज से जुड़े महाशे राजपाल ने रंगीला रसूल किताब का प्रकाशन हिंदुस्तानी में किया. उसमें पैगम्बर के यौन जीवन की हिंदू संयमित आदर्शों के मुकाबले निंदा की गई थी. बीजेपी नेता अपने इस दावे की विरासत से शायद नावाकिफ हैं कि पैगम्बर मोहम्मद की तीसरी पत्नी कम उम्र की थीं. यही तंज रंगीला रसूल की केंद्रीय थीम थी.

निचली अदालतों ने राजपाल को नफरती बोल के लिए जेल की सजा दी. हालांकि लाहौर हाइकोर्ट के जज दलीप सिंह ने ऐतराज जताया. उनकी दलील थी, ‘अगर पैगम्बर पर हमले से मुसलमानों की नाराजगी के तथ्यों को जांचना हो तो एक गंभीर इतिहासकार के उनके चरित्र पर फैसले को (भी) शायद जांचना पड़े.’

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

आयशा बिन्त अबी बक्र की शादी के वक्त वास्तविक उम्र, दरअसल, गंभीर धर्म-शास्त्रीय विवाद का मुद्दा है. धर्म और बाल विवाह पर भी गंभीर बहस हो सकती है. बेशक, यह प्रथा हिंदू परंपरा में अनजानी तो कतई नहीं है. यौन सहमति की उम्र अमेरिका में ‘उन्नीसवीं सदी के आखिर तक 10 थी. मध्ययुगीन यूरोप में लड़कियों की शादी कई बार पांच साल की उम्र में कर दी जाती थी.’

हालांकि बहस का मुद्दा-राजपाल के दौर में, और अब नूपुर शर्मा के भी दौर में-किशोरवय लड़कियों के अधिकारों का नहीं रहा.

आखिरकार लाहौर के एक बढ़ई इल्म-उद-दीन ने 1929 में राजपाल की हत्या कर दी. वह ईश-निंदा के प्रकाशक की हत्या की कोशिश के सिलसिले में तीसरा हमला था. हत्यारे को फांसी हुई, मगर उसकी यादें आज भी पाकिस्तान में इस्लामवादियों में आग धधकाती हैं.

वैसे, राजपाल की हत्या से काफी पहले पंजाब में सांप्रदायिक तनाव बढ़ने से अंग्रेज अधिकारियों ने हाइकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया और एक नया कानून बनाया, जो किसी धार्मिक मान्यता की तौहीन करने या नफरत भड़काने वाले बयान पर बंदिश लगाता था.

आजाद भारत ने ईश-निंदा कानून को बनाए रखा. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निचली अदालतों ने तमिल नेता ई.वी. रामास्वामी नायकर को गणेश की मूर्ति को तोड़ने पर बरी करके गलती की. इसके बदले, अदालतों को ‘विभिन्न वर्गों के लोगों की विभिन्न आस्थाओं की धार्मिक भावनाओं पर उचित ध्यान देना’ चाहिए था. यह हर हाल में किया जाना चाहिए, ‘चाहे वे आस्थाएं अदालत के नजरिए में तार्किक हों या नहीं.’

दूसरे शब्दों में, आस्था को तर्क की परीक्षा में नाकाम होने की अनुमति दी गई.

अपमान की परंपरा

हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन जोर पकड़ने लगा तो उसके पैरोकार राज्य-सत्ता पर अपने धर्म की रक्षा का दबाव डालने लगे. 1993 में दशरथ जातक की सांस्कृतिक प्रस्तुति पर मुकदमा चलाया गया, जो रामायण का एक अलग स्वरूप है और उसमें राम और सीता भाई-बहन हैं. जेम्स लीन के शिवाजी के उत्थान के ऐतिहासिक ब्यौरों के खिलाफ कामयाब गोलबंदी की गई. ए.के. रामानुजन के रामायण के विविध स्वरूपों की किताब को दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटाना पड़ा.

यह मुहिम जारी है. महज हफ्ते भर पहले हिंदू धार्मिक दक्षिणपंथ के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रतन लाल के खिलाफ हिंसा की धमकी दी. रतन लाल ने ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग पाए जाने के दावे की खिल्ली उड़ाई थी.
हिंदुओं के खिलाफ इस्लामी दुर्भावनाएं भी आम हैं, अलबत्ता राजनैतिक तौर पर कुछ कम ताकतवर हैं.

मौलाना इलयास शराफुद्दीन लगातार हिंदुओं की ‘लिंग’ उपासना के खिलाफ बोलते रहे हैं. जाकिर नायक के धर्मांतरण समर्थक कार्यक्रमों में अमूमन कोई हिंदू या यहूदी ऊंचे नैतिक मूल्यों से प्रेरित होकर इस्लाम कबूल करते दिखाया जाता है. यह थिएटरिकल तरकीब अमेरिकी टेलीवेंजेलिकल शो की नकल है.

आहत भावनाओं के गणतंत्र, जैसा कि पत्रकार मुकुंद पद्मनाभन भारत को कहते हैं, में आस्था के शहीद कई हैं. सनल इडामारुक को देश छोड़ना पड़ा क्योंकि उन्होंने ईसा की एक मूर्ति से बह रहे आंसुओं को डे्रन-पाइप का लीकेज साबित कर दिया था. क्रिकेट स्टार महेंद्र सिंह धोनी पर एक विज्ञापन में हिंदू देवता विष्णु का जिक्र करने के लिए मुकदमा दर्ज हुआ.

आम तौर पर इन टकरावों का अंत सहज नहीं होता. हिंदुओं ने मुसलमानों को मारा, हिंदू मान्यताओं को आहत करने के लिए मुसलमानों का कत्ल किया गया, कथित बेअदबी और सुनी-सुनाई बातों पर सिखों ने पीटकर मार डाला.

आस्थाओं के टकराव

सलमान रुश्दी की किताब सैटानिक वर्सेस के 1988 में छपने के बाद भड़की हिंसा ईश-निंदा पर युद्ध के वैश्वीकरण जैसी थी. कश्मीर में भारत विरोधी दंगों से लेकर तुर्की में बुद्धिजीवियों की हत्या तक किताब को लेकर कई तरह से लगातार हमले हुए. डेनमार्क में द जाइलैंड्स-पोस्टन में छपे तथाकथित ईश-निंदा वाले कार्टूनों के बाद कई जेहादी हमले हुए. और, पेरिस में 2015 का कत्लेआम व्यंग्य पत्रिका चार्ली हेब्दो के ऐसे ही मसले पर अंक के बाद भड़के उठे.

यह सब क्यों हुआ, यह देखने के लिए दिमाग पर जोर डालने की दरकार नहीं. अधिकांश विकासशील दुनिया में तानाशाही और भ्रष्टाचारी सत्ताओं के खिलाफ धार्मिक राष्ट्रवाद एक ताकतवर राजनैतिक विचारधारा की तरह उभरा. ईश-निंदा पर बहस, मूलरूप से, राजनैतिक ताकत के बारे में है, न कि धार्मिक मान्यताओं के बारे में.

कमजोर राष्ट्र-राज्यों ने जवाब में खुद को पवित्र वेश-भूषा में लपेट लिया. पाकिस्तान में फौज ने इस्लामवादियों को लोकतांत्रिक राजनैतिक पार्टियों को कमजोर करने के लिए बढ़ावा दिया. हालांकि धार्मिक दक्षिणपंथ ने सरकारी प्रतिष्ठान के धर्मांतरण के प्रति कथित सहिष्णुता को ही उसके खिलाफ औजार बना लिया. मौलानाओं ने उसी गधा-गाड़ी की सवारी करके देश को धर्मशासित नरक की ओर धकेल दिया, जिसे फौज ने कभी मदद के लिए भर्ती किया था.

इस्लाम की तौहीन करने के लिए जेल में बंद सऊदी ब्लॉगर रइफ बदाई और मिस्र में क्लासिक धर्म-सिद्धांत की आलोचना करने के लिए कैद पाए बुद्धिजीवी अहमद आब्दो माहेर को सरकारों ने अपनी वैधता बरकरार रखने के लिए सजा सुनाई, न कि अल कायदा या इस्लामिक स्टेट के जेहादियों ने.

इस दौरान भारत में ईश-निंदा से जुड़े अभियान देखे गए. अमेरिकी सरकार के एक आधिकारिक अध्ययन के मुताबिक, 2014 से 2018 के बीच धार्मिक अपराध के लिए शुरू किए गए मुकदमों में भारत चौथे स्थान पर है. उससे आगे पाकिस्तान, ईरान और रूस हैं.

विद्वान सी.एस. एडकॉक ने नोट किया है कि धार्मिक तनावों को शांत करने के बदले कानून ‘आहत धार्मिक भावनाओं को भड़काने या गोलबंद करने की रणनीतिक अहमियत’ मुहैया कराता है.

दलील यह है कि नफरती भाषण पर अंकुश लगाने का कानून विविध और गहरी भावनाओं से जुड़ी मान्यताओं वाले समाजों में शांति बनाए रखने के लिए जरूरी है. यह दलील बुरी तरह भ्रामक साबित हुई है.

आस्था और लोकतांत्रिक मूल्य

दार्शनिक केनान मलिक जैसा बताते हैं, एक तो ‘नफरती भाषण पर बंदिशें धमकियां या भड़काऊ बोली की खास घटनाओं से निपटने के बदले आम सामाजिक नियमन का उपाय बन गई हैं.’ भाषणों पर कानूनी प्रतिबंध उस बड़ी समस्या को छुपा देते हैं कि बड़ी संख्या में लोग तिरस्कार योग्य विचारों को नैतिक रूप से सही मानते हैं. भारत सरकार कुछ नफरती बोल वालों पर मुकदमा चला सकती है, मगर वह ऐसी भावनाएं इजहार करने वालों को चुनौती देने के प्रति अनीच्छा ही दर्शाती है.

सबसे बढ़कर, नफरती बोल पर मुकदमों से भारत में सांप्रदायिक शांति नहीं कायम हुई है, उसने भय, सेंसरशिप, राज्य-व्यवस्था पर नियंत्रण के प्रतिस्पर्धी होड़ को ही हवा दी है. कानून से कुछ ही धार्मिक अंधराष्ट्रवादियों पर रोक लग पाई है. कुछ ही प्रोफेसर डी.एन. झा की किताब द मिथ ऑफ द होली काऊ या वेंडी डोनिगर की द हिंदूज, मैक्सिम रोडिनसन की मोहम्मद या रेजा अस्लान की जीलट पढ़ाने का जोखिम उठा पाएंगे.

भारत सरकार की नफरती बोल के खिलाफ कार्रवाई भले भू-राजनैतिक क्षेत्र में व्यावहारिक हो, मगर उससे धार्मिक-राष्ट्रवादी गोलबंदी की होड़ को हवा मिलेगी. हिंदू राष्ट्रवादी अपनी वर्चस्ववादी स्थिति को बहाल करने की मांग करेंगे, जबकि दक्षिणपंथी मुसलमान मदद के लिए वैश्विक धार्मिक बिरादरी का रुख करेंगे. राज्य व्यवस्था और समाज इन जहरीली धाराओं की होड़ में फंसा हुआ रहेगा.

विलक्षण दार्शनिकों ने आधुनिक लोकतंत्रों की नींव यह कहकर रखी कि मनुष्य के अधिकार तो होंगे, मगर विचारों के नहीं. निरीश्वरवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद या मनो-प्रलाप की तरह ईश्वर को भी अपना पक्ष रखना होगा.

यूरोप के लोगों से सदियों पहले, अल-मारी ने हमें ऐसी दुनिया में ले जाना चाहा था, जहां ईश्वर को थोड़ी-बहुत तंज झेलनी पड़े या फिर शायद कुछ आलोचना भी झेलनी पड़े. हालांकि कवि आशावादी नहीं थे. उन्होंने लिखा कि अदम जाति दो में बंटी हुई है:

एक, धर्म के बिना बुद्धिमान आदमी,
दूसरे, बुद्धि के बिना धार्मिक

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़ें: लखनऊ में पढ़े चीनी मौलाना ने कैसे सुलगाई शिनजियांग में जिहाद की चिनगारी


Exit mobile version