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ऊपरी तौर पर कॉरपोरेट टैक्स में कटौती फायदेमंद, पर अर्थव्यवस्था की असल समस्या मांग में कमी है

कॉरपोरेट टैक्स में कटौती का लक्ष्य अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से लाभ उठाना, और ठिठक गए ‘मेक इन इंडिया’ को गति प्रदान करना है. लेकिन क्या यह कारगर होगा?

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अरिंदम मुखर्जी का चित्रण | दिप्रिंट

पिछली तमाम घोषणाएं जब आर्थिक वृद्धि दर की सुस्ती दूर करने का चमत्कार न कर पाईं तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण ने इसके लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया. पिछली तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर सरकारी घोषणा के मुताबिक 5 फीसदी थी, और कई विशेषज्ञों का मानना है कि चालू तिमाही में यह और नीची रहेगी. कॉरपोरेट टैक्स को पुराने वादे के तहत 25 प्रतिशत पर लाकर वित्त मंत्री ने अपने पूर्ववर्ती द्वारा पांच साल पहले किए गए वादे को पूरा किया है, जबकि प्रत्यक्ष कर संहिता के एक मसौदे में इसे इससे भी पहले प्रस्तावित किया गया था. इस तरह, वित्त मंत्री ने कॉरपोरेट टैक्स दर को इस क्षेत्र के दूसरे देशों में लागू दर के बराबर ला दिया है. इस कदम के तहत यह भी कहा गया है कि सरकार को अपना खर्च बढ़ाने के लिए पैसे देने की जगह निजी क्षेत्र को पैसे देना ज्यादा बेहतर है.

इस कदम की अहम बात यह है कि नए निवेश के लिए रियायती 15 फीसदी की दर घोषित की गई है. यह थाईलैंड में पिछले सप्ताह की गई इस घोषणा से मिलती-जुलती है कि चीन से वहां आने वाले कारखानों के लिए कॉरपोरेट टैक्स में 50 फीसदी की कटौती करके उसे 10 फीसदी किया जा रहा है. वियतनाम भी लक्षित फर्मों को 10 फीसदी कॉरपोरेट टैक्स की पेशकश कर रहा है. जाहिर है, रियायती दर का लक्ष्य अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से लाभ उठाना और साथ ही ठिठक गए ‘मेक इन इंडिया’ को गति प्रदान करना है.


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क्या यह कारगर होगा? इस पर फैसले सुनाए जा रहे होंगे, क्योंकि आम राय यह है कि मांग में कमी के कारण अर्थव्यवस्था की हालत खराब है और टैक्स के बाद कॉर्पोरेट मुनाफे को बढ़ाना समस्या का आंशिक हल ही है. मांग बढ़ाने के लिए कंपनियों को बड़ा लाभांश देना होगा और नई क्षमता निर्माण में निवेश करना होगा, जो वे वैसे नहीं करतीं (इससे पूंजीगत माल की मांग बढ़ेगी, जिसके उत्पादन में कमी आई है). ग्रामीण मांग में कमजोरी का इलाज नहीं किया जा रहा है. नई घोषणा से उन कंपनियों को मदद नहीं मिलेगी जो मांग में कमी या घटते निर्यात के कारण घाटे में हैं.

घोषणा केवल टैक्स में कटौती की नहीं हुई है. ‘लोन मेलों’ की पुरानी खराब आदत भी फिर से लौट रही है, और सरकारी बैंकों को नए फरमान जारी किए जा रहे हैं. इस बार फरमान यह है कि लघु और मझोले उपक्रमों को दिए गए कर्ज़ को वित्त वर्ष की समाप्ति तक ‘एनपीए’ नहीं घोषित करना है. आखिर चीजें कब बदलेंगी?

सब कुछ दांव पर लगाने का मतलब है कि वित्तीय संयम को भी अलविदा कह दिया गया है. कर राजस्व पहले ही लक्ष्य से कम आ रहा है. घाटे के अघोषित हिस्से (जो विभिन्न सरकारी कंपनियों के खातों में छिपा है या सरकार के बकाया बिलों के रूप में जमा है) के साथ इस साल बजट घाटा 10 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर होगा. 2009-10 की वैश्विक मंदी में यह 6.4 प्रतिशत दर्ज किया गया था. याद रहे कि वित्त मंत्री के प्रेस कॉन्फ्रेंस से ठीक एक दिन पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर ने घोषणा की थी कि वित्तीय पैकेज देने की ‘बहुत कम गुंजाइश’ है. उनके एक पूर्ववर्ती भी पूरा ज़ोर देकर यह कह चुके हैं.

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इस तरह का पैकेज घोषित करके, जिसके कारण सरकार को बड़े पैमाने पर उधार लेना पड़ सकता है, वित्त मंत्री ने ऋण बाज़ार की गति को बदल दिया है, और अगले महीने रिजर्व बैंक द्वारा बहुप्रतीक्षित ब्याज दर कटौती में अड़चन पैदा कर दिया है. जो भी हो, कोई भी ऐसी नीतिगत कटौती बाधित मुद्रा बाज़ार में पूरा प्रभाव नहीं डाल पाएगी. इसलिए, शेयर बाज़ार भले जश्न मना रहा हो, ऋण बाज़ार समस्याग्रस्त है. अर्थशास्त्र में मुफ्तखोरी की गुंजाइश नहीं है.


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टैक्स में कटौती इस तरह की गई है कि इससे राज्यों को काफी चोट पहुंची है. कटौती बेसिक टैक्स (जिसकी आमदनी राज्यों के बीच बांटी जाती है) में की गई है, सरचार्ज में नहीं जिसे केंद्र अपने पास रखता है. राज्यों को केंद्र सरकार से एक और शिकायत है, कि उसने कभी सहकारी संघीय ढांचे का वादा किया था लेकिन हाल में उसने वित्त आयोग की कार्यशर्तों को इस तरह बदल दिया कि केंद्रीय राजस्व का एक हिस्सा राज्यों से साझा करने से पहले अलग कर दिया जाए.

इसके अलावा, आक्रामक मुद्रा अपनाते हुए इसने आयोग से कहा कि केंद्रीय कारों में राज्यों के हिस्से आज के स्तर से कम किए जाएं. किसी केंद्र सरकार ने ऐसा नहीं किया था, इसलिए केंद्र-राज्य वित्तीय संबंध में खटास पैदा हो रही है. लेकिन जब कंपनियां और निवेशक राजी तो क्या करेगा काज़ी?

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