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भारतीय मुसलमानों को CAA का स्वागत करना चाहिए, इसके बारे में अफवाह फैलाने वालों से सवाल पूछने चाहिए

भारतीय मुसलमान होने के नाते, हम भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ेगा जो हमें अपने देश से भागने के लिए मज़बूर करेगा, लेकिन हमें अपने पड़ोस में कम भाग्यशाली हिंदू और अन्य अल्पसंख्यकों पर विचार करना चाहिए.

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) के कार्यकर्ताओं ने गुवाहाटी में CAA के कार्यान्वयन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया | प्रतीकात्मक तस्वीर/एएनआई
ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) के कार्यकर्ताओं ने गुवाहाटी में CAA के कार्यान्वयन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया | प्रतीकात्मक तस्वीर/एएनआई

रमज़ान की पूर्व संध्या पर भारत सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के तहत नियमों को अधिसूचित किया, जो उन व्यक्तियों को नागरिकता की अनुमति देता है जो अपनी धार्मिक पहचान के आधार पर हाशिए पर होने के कारण पड़ोसी देशों से चले गए.

जैसी उम्मीद थी, इस घोषणा ने भारत के राजनीतिक गलियारे में विशेषकर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भारतीय मुसलमानों के प्रति अन्याय के नए दावों को लेकर बहस छेड़ दी. प्रभावशाली लोगों और पत्रकारों ने इसी तर्ज पर एक्स पर कईं पोस्ट किए. अल जज़ीरा जैसे अंतर्राष्ट्रीय समाचार पोर्टल ने भी इस मुद्दे को ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में कवर करना शुरू कर दिया.

यह दिलचस्प है कि कैसे कुछ समूह सीएए को भारतीय मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव के रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. भारतीय इस्लामवादी गुट और अल जज़ीरा जैसे उनके सहयोगी आसानी से इस बात को नज़रअंदाज कर देते हैं कि सीएए भारतीय मुसलमानों सहित किसी भी भारतीय की नागरिकता को प्रभावित नहीं करता है. दुखद बात यह है कि सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन ने हमारे देश को उथल-पुथल में डाल दिया, दिल्ली के हिंसक दंगों ने देश भर के समुदायों को डरा दिया. इस अराजकता के मद्देनज़र, देश ने इंटेलिजेंस ब्यूरो के कर्मचारी अंकित शर्मा के साथ-साथ अशांति में मारे गए अन्य पीड़ितों के नुकसान पर शोक व्यक्त किया. कथित तौर पर मरने वालों में 38 मुस्लिम और 15 हिंदू शामिल थे और कई अन्य को चोटें आईं, हमारी सड़कों पर होने वाली संवेदनहीन हिंसा ने उनकी ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया.

मुझे दंगों से तबाह हुए इलाकों का दौरा करना और उन महिलाओं से मिलना याद है, जो ईदगाह जैसे अस्थायी शिविरों में शरण लेने के लिए अपने घरों से भागने को मज़बूर हो गई थीं. उनकी दुर्दशा को अपनी आंखों से देखना हिंसा की मानवीय कीमत की स्पष्ट याद दिलाता है. पीड़ितों के बारे में खबरें पढ़ना या सोशल मीडिया पर टिप्पणी करना एक बात है, लेकिन उनसे आमने-सामने मिलना उनकी ज़िंदगी में आई तबाही को उजागर करता है. आपको एहसास होता है कि ये ज़िंदगियां आपस में कितनी जुड़ी हुई हैं और अनावश्यक क्रूरता से इन्हें कितनी आसानी से तोड़ा जा सकता है.

उन पलों में कोई भी उन कारणों की सार्थकता पर सवाल उठाए बिना नहीं रह सकता जिनके लिए उन्हें कष्ट सहना पड़ा.

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मीडिया ने भड़काई आग

दिल्ली दंगा पीड़ितों में से कई व्यक्तिगत रूप से किसी भी विरोध प्रदर्शन या राजनीति से प्रेरित गतिविधियों में शामिल नहीं थे, फिर भी उन्हें दोनों समुदायों में हिंसा का खामियाजा भुगतना पड़ा. मेरे दिल पर छाई गहरी उदासी ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया: कैसे लोग भय फैला सकते हैं और हिंसा का प्रचार कर सकते हैं, अपने स्वयं के एजेंडे के लिए निर्दोष लोगों की जान ले सकते हैं?

अल ज़जीरा द्वारा गलत सूचना फैलाने और भड़काने वाली सुर्खियों के साथ लेख प्रकाशित करने की दृष्टि — जैसे कि “भारत चुनाव से कुछ हफ्ते पहले ‘मुस्लिम विरोधी’ 2019 नागरिकता कानून लागू करता है” — वही सवाल उठाता है. यह सोचने पर मजबूर करता है: क्या अल जज़ीरा भयावह और दुखद सीएए विरोधी दिल्ली दंगों को फिर से भड़काना चाहता है, जिसमें 2020 में लगभग 53 भारतीय नागरिकों की जान चली गई थी?

इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग न केवल तनाव बढ़ाती है बल्कि समुदायों की सुरक्षा और स्थिरता को भी खतरे में डालती है. कतरी-राज्य के स्वामित्व वाले आउटलेट और अन्य लोगों द्वारा गलत सूचना के ज़बरदस्त प्रसार ने भारत सरकार को प्रचलन में झूठ को खारिज करने के लिए प्रेरित किया. सूचना और प्रसारण (I&B) मंत्रालय के तहत एक प्रमुख एजेंसी, प्रेस सूचना ब्यूरो (PIB) को एक्स पर पोस्ट करना पड़ा कि CAA किसी भी भारतीय की नागरिकता को रद्द नहीं करेगा, चाहे वह किसी भी धर्म का हो.


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सीएए आशा की किरण है

मेरे लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) सिर्फ एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं है; यह मानवता, करुणा और एकजुटता का प्रतिबिंब है. एक भारतीय मुस्लिम के तौर पर मेरा मानना है कि देश में अल्पसंख्यकों को इसका पूरे दिल से स्वागत करना चाहिए. हम भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ता जो हमें अपने देश से भागने के लिए मज़बूर कर दे, लेकिन हमें अपने पड़ोस के हिंदू, सिख, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यकों के बारे में सोचना चाहिए जो उतने भाग्यशाली नहीं हैं. उनका अस्तित्व ही खतरे से भरा है, खासकर उनकी महिलाओं के लिए. एक भारतीय मुस्लिम महिला के रूप में क्या मुझे कभी यह डर लगा है कि मुझे या मेरे प्रियजनों को जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाएगा या उन पर ऐसे अत्याचार किए जाएंगे? मेरे सपने में भी नहीं.

एक भारतीय और एक महिला के रूप में, मैं खड़े होने और बोलने के लिए मजबूर हूं. हमें सीएए का समर्थन करना चाहिए, न कि केवल एक कानून के रूप में, बल्कि उन लोगों के लिए आशा की किरण के रूप में जो हाशिए पर हैं और सताए गए हैं. यह एक ऐसी दुनिया बनाने की दिशा में एक छोटा, लेकिन महत्वपूर्ण कदम है जहां करुणा क्रूरता पर विजय पाती है और जहां हर निर्दोष मानव जीवन को महत्व दिया जाता है और उसकी रक्षा की जाती है.

हमें ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ नेताओं के बयानों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है. उनके हालिया एक्स पोस्ट एक विरोधाभासी रुख को दर्शाते हैं जो वास्तविक चिंता से अधिक राजनीतिक दिखावे के बारे में प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि कुछ दिन वो दावा करते हैं कि भारतीय मुसलमानों का पाकिस्तानी मुसलमानों के साथ कोई संबंध नहीं है, जबकि कुछ दिन वो सवाल करते हैं कि पाकिस्तानी मुसलमानों को सीएए के लाभों में शामिल क्यों नहीं किया गया है. इस तरह का दोहरापन पहले भी काम करता रहा होगा, लेकिन यह भारतीय जनता के लिए तेज़ी से पारदर्शी होता जा रहा है. लोग अब ऐसे दोहरे मानदंडों और असंगत आख्यानों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

यह स्वीकार करना ज़रूरी है कि औसत भारतीय मुसलमान अपनी परिस्थितियों के लिए अकेले ज़िम्मेदार नहीं हो सकता. हालांकि, हमें अपने द्वारा चुने गए विकल्पों के लिए अपनी व्यक्तिगत जवाबदेही को भी पहचानना चाहिए. नेतृत्व के दिग्गजों और खुद को हमारे रक्षक के रूप में चित्रित करने वालों पर भरोसा करना आसान है, लेकिन अंततः, कोई भी हमारे हितों को हमसे बेहतर नहीं समझता है.

हम दूसरों को गुमराह करने या हमारा फायदा उठाने का आरोप लगाकर जिम्मेदारी से नहीं बच सकते. हमें अपने फैसलों और काम का भार उठाना होगा. भारतीय मुसलमान खुद को पाकिस्तानी मुसलमानों से अलग नहीं कर सकते हैं और जब पाकिस्तानी मुसलमानों को सीएए का लाभ नहीं दिया जाता है तो वे विरोध नहीं कर सकते हैं. भारतीय मुसलमानों के रूप में हमें सरकार विरोधी लॉबी या अन्य ताकतों का मोहरा बनने के बजाय सूचित विकल्प चुनने को प्राथमिकता देनी चाहिए जो हमें भीड़ में बदलने की कोशिश करते हैं और उकसाते हैं.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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