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अंतहीन बुरे ख्वाब, कड़वाहट — कैसे दिल्ली दंगों ने एक मुस्लिम और एक हिंदू की ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया

मोनू कुमार और उनके पिता की भीड़ ने पिटाई कर दी. 9 महीने सलाखों के पीछे बिताने के बाद पिछले साल अलीम सैफी को रिहा कर दिया गया. इन दोनों की कहानी 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों में गिरफ्तारियों, बरी होने और आरोपमुक्त होने पर दिप्रिंट की सीरीज़ की तीसरी रिपोर्ट है.

2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों में 53 लोगों की मौत हुई थी | चित्रण: प्रज्ञा घोष/दिप्रिंट
2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों में 53 लोगों की मौत हुई थी | चित्रण: प्रज्ञा घोष/दिप्रिंट

नई दिल्ली: मोनू कुमार और अलीम सैफी अपनी कठिनाइयों से आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. अपनी अलग-अलग आस्थाओं के बावजूद, दोनों व्यक्तियों ने 2020 में पूर्वी दिल्ली में जंगल की आग की तरह फैले सांप्रदायिक दंगों में अपनी दुनिया को उलट-पुलट होते देखा.

दोनों व्यक्तियों ने वर्षों की मेहनत से बनाए गए पारिवारिक व्यवसाय को खो दिया. इसके अलावा, मोनू ने अपने पिता को खो दिया और सैफी को नौ महीने सलाखों के पीछे बिताने पड़े.

सैफी के खिलाफ आरोप गंभीर थे, जिन्हें लगता है कि अगर उनकी किस्मत अच्छी न होती तो वे अब भी जेल में होते, अभियोजन पक्ष ने 35 वर्षीय व्यक्ति पर ‘अल्लाह हो अकबर’ चिल्लाने वाली जानलेवा भीड़ का हिस्सा होने के साथ-साथ धारदार हथियार रखने का आरोप लगाया था. जानकारी के मुताबिक, उनके मोबाइल लोकेशन उस स्थान के पास थी, जहां पूर्वी दिल्ली दंगों के दूसरे दिन — 24 फरवरी, 2020 को ब्रह्मपुरी में नितिन उर्फ मोनू कुमार के पिता विनोद कुमार की हत्या कर दी गई थी.

लगभग चार साल पहले सीसीटीवी फुटेज में एक अन्य संदिग्ध अरशद उर्फ ​​सोनू द्वारा “पहचान” की जाने के बाद ही सैफी को गिरफ्तार किया गया था.

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लेकिन अभियोजन पक्ष उनके और चार अन्य लोगों — नावेद खान, जावेद खान, चांद बाबू और साबिर अली के खिलाफ कोई “ठोस सबूत” पेश नहीं कर सका. इसके अलावा, अभियोजन पक्ष का कोई भी गवाह उन पांचों की पहचान भीड़ का हिस्सा होने के रूप में नहीं कर सका.

पिछले साल 22 अगस्त को दिल्ली की एक अदालत ने अभियोजन पक्ष द्वारा मामले में पाचों के खिलाफ आरोप तय करने के लिए भी ठोस सबूत पेश नहीं करने के कारण सभी को बरी कर दिया. सैफी के अलावा, बाकी सभी संदिग्ध अन्य आरोपों का सामना कर रहे हैं और वर्तमान में ज़मानत पर बाहर हैं.

23 फरवरी को शुरू हुए और 25 फरवरी तक चले सांप्रदायिक दंगों में 53 लोग मारे गए, कई सैकड़ों घायल हो गए और पूजा स्थलों सहित संपत्ति की बर्बरता हुई. 757 मामलों में लगभग 2,600 गिरफ्तारियां की गईं, लेकिन संदिग्धों की कुल संख्या स्पष्ट नहीं है क्योंकि उनमें से अधिकांश पर कई मामलों में मामला दर्ज किया गया था.

इस बीच, 29 फरवरी तक दंगे और आगजनी की खबरें आती रहीं.

उपर्युक्त मामले में अदालत ने अरशद उर्फ ​​सोनू, रईस अहमद, मोहम्मद सगीर, मेहताब, गुलज़ार, मोहम्मद इमरान और अमीरुद्दीन मलिक के खिलाफ दंगा, हत्या, हत्या के प्रयास और धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने सहित अन्य के लिए आरोप तय करने का आदेश दिया.


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अलीम सैफी: एक ‘दुर्लभ’ संदिग्ध

दो बच्चों के पिता सैफी को नवंबर 2020 में गिरफ्तारी के नौ महीने बाद ज़मानत दे दी गई थी. इस दौरान, उन्होंने अपना कैंची निर्माण व्यवसाय खो दिया और परिवार को अपनी संपत्ति एक रेस्तरां को किराए पर देने के लिए मजबूर होना पड़ा.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “दंगों के बाद हमने कारोबार खो दिया और महामारी भी फैल गई. मैं यहां किसी भी चीज़ की देखभाल करने के लिए नहीं था. मैंने इस प्रक्रिया में पिछले तीन साल में लगभग 15 लाख रुपये खर्च किए.”

सैफी न तो फोटो खिंचवाना चाहते हैं, न ही पहचान ज़ाहिर करवाना चाहते हैं. वे नहीं चाहते कि कोई उनसे जेल में बिताए गए समय के बारे में पूछे, लेकिन उन्हें याद है कि पूरी प्रक्रिया कैसे “यातना से भरी” थी.

उन्होंने कहा, “दंगों के एक दिन बाद जाफराबाद थाने के स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) ने मुझे बुलाया और मैं वहां गया क्योंकि मैं स्थानीय हूं और मैंने दंगे देखे हैं, लेकिन उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया. मुझे लगा मेरे ऊपर पहाड़ टूट पड़ा. मैं कुछ समय के लिए तिहाड़ जेल में था फिर मुझे मंडोली जेल में शिफ्ट कर दिया गया. मैंने अपने मन से दर्दनाक अनुभवों को अवरुद्ध कर दिया है; यह मुझे बुरे सपने देते हैं.”

सैफी का मानना है कि वे छूटकर बाहर निकलने में कामयाब हो सकते हैं क्योंकि वे उन “दुर्लभ” संदिग्धों में से एक थे जिन पर केवल एक मामले में मामला दर्ज किया गया था.

जैसा कि दिप्रिंट ने पूर्वी दिल्ली दंगों पर सीरीज़ की पहली रिपोर्ट में बताया था कि डेटा से पता चलता है कि संबंधित मामलों में 183 बरी हो गए हैं और 75 आरोपमुक्त हो गए हैं और अधिकांश संदिग्ध ज़मानत पर बाहर हैं. हालांकि, अधिकांश संदिग्धों पर कई मामलों में मामला दर्ज किया गया था, यही वजह है कि वे कुछ मामलों में बरी होने या कुछ मामलों में आरोपमुक्त होने के बावजूद आरोपी बने हुए हैं.

दंगा आरोपियों की दिल्ली कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) की वकील शिखा गर्ग ने दिप्रिंट को बताया, “हमारे पास 12-13 मामलों वाले ग्राहक हैं और उन्हें 10-11 मामलों में या तो बरी कर दिया गया है या आरोपमुक्त कर दिया गया है, लेकिन अन्य मामलों के कारण उन्हें न्यायिक प्रक्रिया का सामना करना पड़ रहा है. दंगा मामलों की जांच गड़बड़ रही है जिसके कारण न्यायिक प्रक्रिया भी प्रभावित हुई है.”

सैफी का दावा है कि वे ब्रह्मपुरी मामले में किसी अन्य संदिग्ध को नहीं जानते हैं. उन्होंने कहा, “वे सभी दूसरी तरफ से थे — ब्रह्मपुरी की गलियों के अंदर से. गिरफ्तारी तक मैं उनमें से किसी को भी व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था.”

मोनू कुमार: परिस्थितियों का शिकार

24 फरवरी की रात, 51-वर्षीय विनोद कुमार और उनका बेटा अपने बीमार पोते के लिए दवाएं खरीदने के लिए बाहर निकले थे. इस डर से कि किसी भी समय कर्फ्यू लगाया जा सकता है, भीड़ के गलियों में घूमने के बावजूद उन्होंने यह जोखिम उठाया. ब्रह्मपुरी में दिन में हिंसा भड़क उठी थी और रात 10 बजे से सुबह 4 बजे तक जारी रही.

‘जय श्री राम’ — के स्टिकर वाली पिता-पुत्र की बाइक पर भीड़ का ध्यान गया. एक पत्थर विनोद को लगा जिसके बाद दोनों का संतुलन बिगड़ गया और वे सड़क पर गिर पड़े. भीड़ ने दोनों को रॉड और लाठियों से बेरहमी से पीटा; उनकी मोटरसाइकिल को आग के हवाले कर दिया गया.

जब मोनू को होश आया तो उन्होंने अपने पिता को सुरक्षित स्थान पर ले जाने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली. एक राहगीर उन्हें अस्पताल ले गया जहां विनोद को मृत घोषित कर दिया गया.

मोनू डीजे का कारोबार करते हैं. दंगों के बाद लगभग चार साल तक काम को बंद करना पड़ा और परिवार बचत और मुआवजे पर जीवित रहा. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “मैंने इस साल से शादियों और अन्य अवसरों पर डीजे बजाना शुरू कर दिया है, (लेकिन) बाहर निकलने में एक डर बना रहता है. चोट के कारण सर्दियों में मेरे सिर में दर्द होता है.”

उन्होंने आगे बताया, “मेरे पिता चले गए और मामला वर्षों तक अदालतों में चलता रहेगा. हमने नतीजे के बारे में सोचना बंद कर दिया है. हमारी बिना किसी गलती के पूरे परिवार को कष्ट सहना पड़ा. मेरे पिता को धर्म के नाम पर एक भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था और यह एक ऐसी चीज़ है जिसके साथ हमें जीवन भर जीना होगा.”

उन्होंने कहा, “मैं किसी मुस्लिम घर में पैर नहीं रखना चाहता या समुदाय के साथ कोई बातचीत नहीं करना चाहता. 2020 से चीज़ें शांत हैं लेकिन कौन जानता है?”

घाव हमेशा बरकरार

चार साल बाद, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इलाकों में चहल-पहल लौट आई है.

अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का जश्न मनाने के लिए गोकुलपुरी और अन्य क्षेत्रों की सड़कों पर भगवा झंडे फहराए गए जहां हिंदू बहुसंख्यक निवासी हैं.

गोकुलपुरी की गलियों में लहराए भगवा झंडे | फोटो: बिस्मी तस्कीन/दिप्रिंट

लेकिन सतह को खरोंचें तो नीचे छिपी बेचैनी चार साल बाद भी नज़र नहीं आती. परिवारों ने बेटे, भाई, पिता और पतियों को खो दिया; आजीविका का कोई स्रोत न होने के कारण सैकड़ों लोग फंसे रह गए. दंगों ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के निवासियों पर कभी न मिटने वाला घाव छोड़ दिया.

सीलमपुर की निवासी एक 35 वर्षीय हिंदू महिला ने याद किया, “अगर भीड़ हमारे घरों में घुसने की कोशिश करती तो हमने खुद को ज़हर देकर मारने की योजना बनाई थी. सांप्रदायिक हिंसा में महिलाएं और बच्चे हमेशा सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं.”

खजूरी खास की एक 40 वर्षीय मुस्लिम महिला ने बताया, “रक्तपात और चीखें भुलाई नहीं जा सकतीं. उन्होंने हमारी किराने की दुकान में तोड़फोड़ की और हमें कई दिनों तक पता नहीं चला क्योंकि हम बाहर नहीं निकले. जिस डर के साथ निवासियों को कई दिनों तक रहना पड़ा, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है.”

दंगों से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों — जाफराबाद, वेलकम कॉलोनी, सीलमपुर, भजनपुरा, ज्योति नगर, करावल नगर, खजूरी खास, गोकुलपुरी, दयालपुर और न्यू उस्मानपुर — में रहने वाले लगभग सभी परिवारों के पास बताने के लिए एक जैसी कहानी है.

दिल्ली दंगों में गिरफ्तारियों, बरी होने और आरोपमुक्त होने पर दिप्रिंट की सीरीज़ में यह तीसरी रिपोर्ट है.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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