होम मत-विमत सियाचिन को सेना मुक्त करना कई वजहों से जरूरी लेकिन भारत-पाकिस्तान के...

सियाचिन को सेना मुक्त करना कई वजहों से जरूरी लेकिन भारत-पाकिस्तान के रिश्ते इसकी इजाजत नहीं देंगे

भारत ने 10 साल बाद सियाचिन पर कुछ कहा है, सेनाध्यक्ष जनरल नरवणे ने कहा है कि भारत सियाचिन ग्लेशियर को सेनामुक्त करने के विचार के खिलाफ नहीं है.

एमएम नरवणे

12 जनवरी को चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के वार्षिक सम्मेलन में मुख्य रूप से पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन के बीच जारी तनातनी पर ही चर्चा केंद्रित रही. लेकिन जनरल एम.एम. नरवणे ने सियाचिन पर जो बयान दिया उसकी चर्चा मीडिया में खूब हुई. जनरल नरवणे ने एक सवाल के जवाब में कहा, ‘हम सियाचिन को सेना मुक्त करने के विचार के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन इसकी एक शर्त है, वह यह कि जमीनी स्थिति के मुताबिक जो वास्तविक सीमा रेखा (एजीपीएल) है उसे कबूल किया जाए. पाकिस्तान को कबूल करना पड़ेगा कि वहां उसकी क्या स्थिति है और हमारी क्या स्थिति है. और सेना की किसी तरह की वापसी शुरू करने से पहले दोनों को उस रेखा पर दस्तखत करने होंगे.’

वर्तमान में एजीपीएल साल्तोरो पहाड़ियों के साथ-साथ है, जो सियाचिन ग्लेशियर के पश्चिम में है. वहां भारतीय सेना सामरिक रूप से फायदे वाली ऊंचाइयों पर तैनात है. सियाचिन को सेना मुक्त करने के मामले पर 13 बार वार्ता हो चुकी है. अंतिम वार्ता जून 2012 में रावलपिंडी में हुई थी. अब दस साल बाद, जनरल नरवणे के बयान से क्या यह उम्मीद की जाए कि यह एक सवाल का सामान्य-सा तथ्यपरक जवाब बनकर ही नहीं रहेगा, या इसका कोई विशेष अर्थ लगाया जाए? क्या वर्तमान माहौल सियाचिन मसले पर आगे कदम बढ़ाने के लिए अनुकूल है?


यह भी पढ़ें: क्यों LAC पर चीन की सैन्य तैनाती से सीमा विवाद का कोई स्थायी समाधान निकलने के आसार लग रहे


सियाचिन का मामला क्यों महत्वपूर्ण है

सियाचिन क्षेत्र के सामरिक महत्व को लेकर काफी तीखे और परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए जाते रहे हैं. एक पक्ष का कहना है कि जो भौगोलिक क्षेत्र किसी बड़ी सैन्य कार्रवाई की संभावना को ही खत्म करता है वहां सेना की भारी तैनाती का कोई मतलब नहीं है. मिलिटरी ऑपरेशन्स के डायरेक्टर जनरल रह चुके ले.जनरल वी.आर. राघवन ने अपनी किताब ‘सियाचिन : कन्फ़्लिक्ट विदाउट एंड’ में लिखा है— ‘साफ है कि साल्तोरो पहाड़ियों पर कब्जे को लेकर अपने-अपने दावे करके भारत और पाकिस्तान को कोई सामरिक बढ़त नहीं हासिल होने वाली है. जम्मू-कश्मीर में दोनों देशों के कब्जे में जो क्षेत्र हैं उन्हें भी साल्तोरो पहाड़ियों की वजह से कोई सैन्य खतरा नहीं हो सकता है… वास्तव में, टकराव को जारी रखने के लिए जो राजनीतिक वजह चाहिए उस पर सामरिक मसले का मुलम्मा चढ़ाया गया है.’

लेकिन दूसरा पक्ष इससे असहमति जताते हुए कहता है कि यह इलाका पश्चिम में पाकिस्तान से, उत्तर में चीन की शक्सगाम घाटी से, और पूरब में लद्दाख के सब-सेक्टर नॉर्थ (एसएसएन) से घिरा है जहां देप्सांग के मैदानी क्षेत्र में भारतीय सेना का सामना चीनी सेना पीएलए से हो रहा है. चीन और पाकिस्तान में अगर सैन्य सहयोग होगा तो वह इस इलाके में होने की ज्यादा संभावना है. दोनों पक्ष के तर्कों की मजबूती पर न जाते हुए मेरा विचार है कि मसला सियाचिन के सामरिक महत्व का नहीं बल्कि इस भौगोलिक क्षेत्र का है.

भौगोलिक संप्रभुता सामरिक महत्व के मुक़ाबले ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जाती है. इसी वजह से भारत ज़ोर दे रहा है कि सेनाएं फिलहाल जहां तैनात हैं उस जगह को नक्शे में चिह्नित करके दोनों देश उसकी पुष्टि कर दें. इससे साल्तोरो पहाड़ियों पर भारत का कब्जा स्थापित हो जाएगा. लेकिन पाकिस्तान भारत की स्थिति को प्रामाणिकता नहीं प्रदान करना चाहता क्योंकि इससे भारत द्वारा शिमला समझौते का उल्लंघन करके पाकिस्तान के प्रशासनिक नियंत्रण वाले इलाके पर कब्जा करने के ‘अवैध कदम’ को वैधता मिल जाएगी. असली पेच यह है कि दोनों पक्ष भौगोलिक मामले में समझौता करने को तैयार नहीं हैं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

भारत और पाकिस्तान के सियासी माहौल

सियाचिन मसले का हल दोनों देशों में सियासी और सुरक्षा संबंधी माहौल से अलग हट कर नहीं हो सकता. भारत और पाकिस्तान सियाचिन पर समझौते के कगार पर किस तरह तीन बार पहुंचे वह भी काबिले गौर है. पहली बार यह तब हुआ था जब जून 1989 में वार्ता का पांचवां दौर चल रहा था. इसके बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया कि ‘दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि टकराव के खतरे को कम करने के लिए सेनाओं की पुनः तैनाती के आधार पर विस्तृत समझौते के लिए प्रयास किए जाएं.’ यह सियाचिन मसले के समाधान के लिए राजीव गांधी और बेनज़ीर भुट्टो के राजनीतिक हस्तक्षेप का सीधा परिणाम था.

1992 में वार्ता के छठे दौर में, 1989 में हुई चर्चाओं को आगे बढ़ाया गया, और यह दूसरा मौका था जब समझौता लगभग होने ही वाला था. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने उसे राजनीतिक मंजूरी नहीं दी. 2006 में समझौते का मसौदा तैयार किया गया, जिसमें सियाचिन से दोनों देशों की सेनाओं की चरणबद्ध वापसी और सेना मुक्त सियाचिन की संयुक्त निगरानी की व्यवस्था का खाका तैयार किया गया था. हालांकि अंतिम समझौता नहीं हो सका मगर गौर करने वाली बात यह है कि यह ऐसे समय में हुआ था जब दोनों देशों के राजनीतिक नेता भारत-पाकिस्तान संबंधों के सभी पहलुओं पर गंभीरता से संपूर्ण संवाद कर रहे थे.

आज जबकि द्विपक्षीय संबंध खराब हैं, मौजूदा सियासी माहौल ऐसा कोई भरोसा नहीं जगाता कि सियाचिन पर गंभीर वार्ता हो सकती है. इसके साथ, पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ टकराव की स्थिति कायम है. सियाचिन क्षेत्र को केवल काराकोरम पहाड़ियां ही देप्सांग के मैदानी इलाके से अलग करती हैं. इन्हें चीन और पाकिस्तान की सीमाओं के बीच भारी बाधा माना जा सकता है, लेकिन किसी जुनूनी फौज के लिए भूगोल शायद ही बाधा बनती है. सियाचिन में टकराव इसका एक उदाहरण तो है ही.

सियाचिन को सेना मुक्त बनाने के लिए हम कई अच्छे कारण गिना सकते हैं, मसलन— सैनिकों की दुखद मौतें, उतनी ऊंचाई पर सेना को तैनात रखने का भारी-भरकम खर्च, पर्यावरण को नुकसान, आदि. लेकिन सियासत और सुरक्षा संबंधी वास्तविकताएं भारतीय रुख में उल्लेखनीय बदलाव का सुझाव देने का आधार नहीं तैयार करतीं.

(लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हूडा (रिटा.) भारतीय सेना की उत्तरी कमान के पूर्व जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ और दिल्ली पॉलिसी ग्रुप के वरिष्ठ फेलो हैं. यहां व्यक्त विचार निजी है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें-  भारत की ओर से खास सड़क ‘चोक’ कर देने की चीन की आशंका ही हॉट स्प्रिंग्स से सैन्य वापसी में बाधा बन रही


 

Exit mobile version