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नौकरी और अर्थव्यवस्था की छोड़िए, पाकिस्तान की तबाही का आनंद लीजिए

दुनिया में इस समय ऐसे नेताओं की एक पूरी कतार है जो जन भावनाओं को उभार कर तो कभी उनकी सवारी करके प्रभावी बने हैं. नरेंद्र मोदी की पहचान भी इसी क्रम में होती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो । पीआईबी

अब तक हम ये पढ़ते आए हैं कि तथ्य पवित्र होते हैं, सत्य की जीत होती है और अंधविश्वास और भावनाओं के ऊपर तर्क और तार्किकता को महत्व देना चाहिए. लेकिन ये सब बदल रहा है. ये जानने और समझने के लिए हमें महाज्ञानी या रिसर्चर होने की जरूरत नहीं है. अपने आसपास से लेकर दुनिया भर में हो रही घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो सहज ही हमें इस बात का अंदाजा हो जाएगा कि भावनाओं और मन में उठने वाले विचारों को सहला कर और उनकी सवारी करके सत्ता हासिल की जा सकती है, जो सत्य, तथ्य और तर्कों के जरिए कई बार मुमकिन नहीं है. एक तरह से ये यूरोपीय नवजागरण के तार्किक विचारों के पीछे जाने या कमजोर पड़ने का समय है.

मिसाल के तौर पर इन वाकयों को देखें-

-हमने और आपने, सबने सरकार से यही सुना था कि बिना किसी दस्तावेज के अवैध तरीके से भारत घुस आए लोगों की पहचान के लिए एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनेगा. असम में इसका काम शुरू हुआ, जहां 1971 को वह साल माना गया, जिसके बाद अवैध तरीके से आए लोगों को नागरिकता रजिस्टर से बाहर रखा जाना था. महीनों की कवायद और 11 सौ करोड़ रुपए खर्च करने के बाद बनी नागरिकों की सूची में 19 लाख ऐसे नाम आए, जिनके पास दस्तावेज नहीं थे. उनमें कई हिंदू भी हैं. अब आरएसएस चीफ मोहन भागवत ने कहा है कि ‘किसी हिंदू को अवैध नागरिक नहीं करार दिया जाएगा.’

सरकार भी नागरिकता संशोधन विधेयक के जरिए ये बंदोबस्त करना चाहती है कि भारतीय उप-महाद्वीप से आने वाले हर व्यक्ति को भारतीय नागरिकता दी जाएगी, बशर्ते वह मुसलमान न हो. तो इस तरह घुसपैठियों को रोकने का घोषित अभियान देखते ही देखते मुसलमानों को रोकने के अभियान में तब्दील हो गया और बीजेपी समर्थकों को ये समझ में भी नहीं आ रहा है (या शायद वे यही चाहते हैं) कि यह संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि सरकार धर्म के आधार पर नागरिकों से भेदभाव नहीं करेगी.

– इसी तरह अगर हाल के बहुचर्चित चिन्मयानंद प्रकरण को देखें तो फिलहाल भाजपा के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री चिन्मयानंद जेल में हैं. लेकिन सवाल उठता है कि चिन्मयानंद पर यौन उत्पीड़न के आरोप कोई नए तो हैं नहीं. फिर वे इतने समय तक सार्वजनिक जीवन में कैसे टिके रहे? इन सबके बावजूद वे राममंदिर आंदोलन के शीर्ष नेताओं में कैसे शुमार रहे और अटल बिहारी वाजयेपी ने उन्हें केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जैसा संवेदनशील विभाग कैसे दे दिया? नीति और नैतिकता के इन सवालों को न कभी स्वामी के भक्तों ने पूछा और न ही राजनीतिक पार्टी ने. क्या ये एक असामान्य स्थिति नहीं है? आखिर किसी धार्मिक संत से समाज की उम्मीदें क्या हैं?

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– क्या यह एक असामान्य स्थिति नहीं है कि जब भारतीय अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है और चिंतित सरकार एक के बाद एक राहत पैकेज लेकर आ रही है, तब भारतीय समाचार चैनलों की चिंता में ये विषय है ही नहीं या बहुत हाशिए पर हैं. वे लगातार एक रात के बाद दूसरी रात को भावनात्मक और खासकर सांप्रदायिक मुद्दों पर या पाकिस्तान या गाय को लेकर कार्यक्रम किए जा रहे हैं. हर मुद्दे को सांप्रदायिक भावनात्मक रंग देना उनका प्रिय शगल है और दर्शकों की इस बारे में कोई शिकायत है तो उसके बारे में जान पाना मुश्किल है. इन शोज की बाढ़ से ऐसा लगता है कि ऐसे भड़काऊ शो अच्छी टीआरपी बटोर रहे हैं. किसानों की तबाही और रोजगार में कमी, या शिक्षा-स्वास्थ्य की स्थिति चैनलों की बहस के मुद्दे नहीं हैं.

ऐसी घटनाओं और परिघटनाओं की एक समग्र लिस्ट बनाई जा सकती है, जिसके आधार पर ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लोक-विमर्श में भावनात्मक मुद्दों को जीवन के वास्तविक मुद्दों पर तरजीह मिल रही है.

ट्रंप से मोदी तक तर्क की पराजय एक वैश्विक घटना है

अगर हम वैश्विक परिदृश्य को देखें तो वहां भी भावनात्मक मुद्दों की जय-जयकार है. डोनल्ड ट्रंप अमेरिका का पुराना गौरव दोबारा हासिल करने के नाम पर नस्लवाद और धार्मिक कट्टरपंथ की हद के बहुत करीब पहुंच गए हैं. इज़रायल में कट्टरपंथ हावी है. तुर्की में तो एर्दोगान का बोलबाला है ही. पुतिन के एजेंडे पर भी भावनात्मक मुद्दे चेचन्या और यूक्रेन ही हावी रहे. इंग्लैंड में यूरोपीय यूनियन का हिस्सा बनने के तार्किक विचार और ग्रेट ब्रिटेन की स्वतंत्र सत्ता के गौरव की भावना के बीच टक्कर हुई तो यूरोपीय यूनियन में शामिल होने का तार्किक विचार हार गया.


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दरअसल इस समय दुनिया में ऐसे नेताओं की एक पूरी कतार है जो जन भावनाओं को उभार कर तो कभी उनकी सवारी करके प्रभावी बने. इन नेताओं की पहचान जीवन के वास्तविक मुद्दों को हल करने वाली नहीं है. नरेंद्र मोदी की पहचान भी इसी क्रम में होती है.

जीवन का अर्थ सिर्फ आंकड़े नहीं, भावनाएं भी हैं

लेकिन यहां एक बात पर ठहरकर विचार कर लेना चाहिए. जब हम जीवन के वास्तविक मुद्दों के बात कर रहे हैं तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हम वास्तविक मुद्दों की अधूरी परिभाषा गढ़ रहे हैं? जन भावनाओं को वास्तविक मुद्दों से परे रखकर हो सकता है कि हम कोई गलती कर रहे हों. ये मुमकिन है कि रोटी, नमक और तेल की तुलना में किसी के लिए स्वाभिमान या अपमान का मामला ज्यादा अहम हो या दोनों बातें बराबर अहमियत रखती हों.

जैसा कि यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के अर्थशास्त्री विलियम डेविस अपनी किताब नर्वस स्टेट्स में तर्क देते हैं कि भावनात्मक मुद्दे भी जीवन के वास्तविक मुद्दे हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.

एनडीए का सारा जोर भावनात्मक मुद्दों पर

भारत के खास संदर्भ में देखा जाए तो एनडीए सरकार लगातार लोगों की जनभावनाओं की सवारी कर रही है. उसके चुनावी नारों की शब्दावलियों को देखे तो उसके केंद्र में मुसलमान विरोध ही है. विकास वगैरह की बात सिर्फ पैकेजिंग के तौर पर है. अगर नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल को देखा जाए तो उन्होंने सारा जोर भावनात्मक मुद्दों पर रखा है.

हो सकता है कि वे वास्तविक मुद्दे हों, लेकिन इनकी प्रकृति ऐसी है कि उनका भावनात्मक इस्तेमाल हो सकता है. ऐसे मुद्दों में एनआरसी, नागरिकता संशोधन विधेयक, अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर में खत्म करना, तीन तलाक को अपराध घोषित करना और यूएपीए कानून को पूरे देश में लागू करके किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने का अधिकार जांच एजेंसियों को देना शामिल है. ये सारे मुद्दे ऐसे हैं, जिस पर समाज में ध्रुवीकरण कर पाना संभव है और बीजेपी ने ये किया भी है.

आरएसएस के अनुषंगी संगठन इस बीच गोहत्या और मॉब लिंचिंग जैसे मुद्दों को गरम किए हुए हैं. रही सही कसर मीडिया पूरी कर रही है. मिसाल के तौर पर कई चैनलों ने चंद्रयान के अभियान को पाकिस्तान के झंडे में मौजूद चांद से जोड़कर इस वैज्ञानिक अभियान को भी भारत और पाकिस्तान के संबंधों से जोड़ दिया और कहा कि हमारा यान उनके चांद तक पहुंच गया है.

इस तरह देखा जाए तो सारा विमर्श इन्हीं मुद्दों पर हो रहा है. इस बीच इस बारे में बात नहीं के बराबर हो पा रही है कि भारत का कोई भी शिक्षा संस्थान दुनिया के श्रेष्ठ 300 संस्थानों की लिस्ट में क्यों नहीं है या फिर स्वास्थ्य के क्षेत्र में बांग्लादेश के आंकड़े भारत से बेहतर कैसे हो गए.

तार्किकता विश्राम कर रही है

भारत में इस समय तार्किकता पूरी तरह विश्राम करने चली गई है. एक मुख्यमंत्री इस बीच ये बोलकर चले गये कि महाभारत के समय में भी इंटरनेट था. हाई कोर्ट का एक जज अपने फैसले में कहता है कि मोरनी मोर के आंसू से गर्भवती होती है तो हाई कोर्ट का एक और जज ब्राह्मण महासभा की बैठक में कहता है कि ब्राह्मण जन्मना श्रेष्ठ है. लोकसभा अध्यक्ष यह कहते हैं कि ब्राह्मण ही समाज का नेतृत्व करता है. हमारे एचआरडी मिनिस्टर लगातार ऐसे बयान देते हैं, जिनका तार्किकता से लेना देना नहीं हैं और प्रधानमंत्री उन्हें बराबरी की टक्कर देते हैं, जब वे कहते हैं कि गणेश की प्लास्टिक सर्जरी हुई थी. इसरो के चीफ हर लांचिंग से पहले मंदिर में आशीर्वाद लेने जाते हैं और भारत के वैज्ञानिक समुदाय को इससे कोई शिकायत नहीं है.

इस स्थिति को तीन तरह से देखा जा सकता है.

1 अगर आपका तार्किकता से लेना-देना नहीं है, तो आपके लिए यह सामान्य समय है. इसमें कोई समस्या ही नहीं है.

2. अगर आप तथ्य और तर्क में विश्वास करती हैं तो आप अपनी तार्किक क्षमता का इस्तेमाल करके भावनात्मक विचार भूमि को चुनौती देंगी. अपने तर्कों को तथ्यों के जरिए और मजबूती देंगी.

3. तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि आप मान लें कि मनुष्य के जीवन में तर्कों से परे भावनाओं और मनोगत विचारों का भी स्थान है और उनकी अनदेखी करके आप खुद को अलगाव में डालने के सिवा कुछ नहीं कर रही हैं. नर्वस स्टेट पुस्तक के लेखक विलियम डेविस का कहना है कि हमें लोगों की भावनाओं को राजनीतिक मुद्दों की तरह ही गंभीरता से लेना चाहिए, न कि उन्हें अतार्किक कहकर खारिज कर देना चाहिए.

डेविस की इस बात का भारत के लिए क्या मतलब है?

भारत में भावनात्मक मुद्दों को नरेंद्र मोदी, आरएसएस और बीजेपी ने बहुत अच्छे से साध रखा है. मर्दाना राष्ट्रवाद, धार्मिक भावनाओं को सतह पर रखना, मुसलमान विरोध को गर्माए रखना, पाकिस्तान विरोध के जरिए इस्लाम को निशाने पर रखने जैसे उपकरणों का बीजेपी-आरएसएस ने बेहतरीन इस्तेमाल किया है. देश में अगर इस समय भावनात्मक मुद्दे हावी हैं तो इसका मतलब है कि नरेंद्र मोदी अपने लक्ष्यों में सफल हैं और विपक्षी दल इस खेल के अनाड़ी खिलाड़ी हैं या फिर वे सहमत ही नहीं है कि भावनात्मक मुद्दों का राजनीति में महत्व है.


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आप अगर नरेंद्र मोदी के विरोधी हैं तो इस बात से खुश हो सकते हैं कि बीजेपी के प्रवक्ता को नहीं मालूम कि ट्रिलियन में कितने जीरो होते हैं. लेकिन बीजेपी को इस बात से मतलब ही नहीं है कि ट्रिलियन में कितने जीरो होते हैं. भारती अर्थव्यवस्था पांच ट्रिलियन की हो जाए, तो बीजेपी को दिक्कत नहीं है, लेकिन वह जानती है कि उसके वोटर को इसका परवाह नहीं है. उसका अपना आकलन है कि उसे ऐसी वजहों से वोट नहीं मिलता. फाइव ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य बताने के पीछे उसका नैरिटिव है कि नरेंद्र मोदी भारत को महान बना रहे हैं. बीजेपी के वोटर की भावनाएं इससे तुष्ट होती हैं.

कांग्रेस अगर सोच रही है कि अपने डाटा डिपार्टमेंट के आंकड़ों से वह बीजेपी की काट ढूंढ लाएगी, तो शायद वह गलतफहमी का शिकार है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये लेख में उनके निजी विचार हैं)

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