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BJP के छद्म राष्ट्रवाद की नकल है AAP की देशभक्ति, दोनों से देश को बचाना होगा

आम आदमी पार्टी ने बीजेपी-आरएसएस द्वारा बढ़ाए गए राष्ट्रवाद की ही नकल की है जो कि भारतीय राष्ट्रवाद के बिल्कुल उलट है. यह राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने वाले घावों को भरने में बिल्कुल नाकाम है.

पंजाब के सीएम भगवंत मान और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अमृतसर में एक रोडशो के दौरान । एएनआई

तो लीजिए साहेबान, पेश-ए-खिदमत है देशभक्ति का एक नया मॉडल! न-न, सिर्फ देशभक्ति नहीं बल्कि कट्टर देशभक्ति—जैसा कि आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविन्द केजरीवाल ने हाल के अपने फरमान में सुनाया. मॉडल नया तो है लेकिन बड़ा जाना-पहचाना लगता है और इसी नाते खतरनाक भी. देशभक्ति की इसकी बिनावट-बुनावट को ऊपर से तनिक खुरच दीजिए तो नजर आयेगा कि आम आदमी पार्टी का देशभक्ति का यह मॉडल तो भाजपा के उसी राष्ट्रवाद का तर्जुमा है जिसका भजन-कीर्तन बीते कुछ सालों से हमें दिन-रात सुनाया जा रहा है.

पंजाब राज्य की नव-निर्वाचित आम आदमी पार्टी की सरकार ने अपनी खास शुरुआती चहलकदमियों के जो प्रदर्शन किये उसमें एक था विधानसभा का एकदिनी सत्र बुलाना. सदन ने सर्व-सम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया. प्रस्ताव में केंद्र सरकार की इस बात के लिए निन्दा की गई कि उसने भाखड़ा-व्यास मैनेजमेंट बोर्ड (बीबीएमबी) पर जबरिया कब्जा कर लिया है. जहां तक संघीय ढांचे के तहत की गई व्यवस्था का सवाल है—पंजाब की सरकार को हरचंद हक है या यों कहें कि उसका फर्ज बनता है कि वह अपने अधिकार-क्षेत्र की हिफाजत करें, अपने अधिकार-क्षेत्र की चीजों को केंद्र के जबरिया कब्जे में जाने से बचाये. संघीय व्यवस्था के तहत एक परिपाटी बनी चली आ रही है कि भाखड़ा-व्यास मैनेजमेंट बोर्ड में हरियाणा और पंजाब सूबे से सदस्य रखे जायेंगे लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार ने परिपाटी का सचमुच उल्लंघन किया है. जाहिर है, फिर मामले से जुड़े दोनों ही राज्यों के लिए यह चिन्ता की बात है और इस नाते उनके पास विरोध दर्ज करने की वजहें मौजूद हैं. इसे देखते हुए आम आदमी पार्टी का सदन की एक दिनी बैठक बुलाना और केंद्र सरकार के कदम की निन्दा करना ठीक जान पड़ता है.

लेकिन पंजाब विधान-सभा ने इससे एक कदम आगे का रुख किया. केंद्र शासित क्षेत्र चंडीगढ़ में सेवा दे रहे कर्मियों को सेंट्रल सर्विस रुल्स (केंद्रीय सेवा परिनियम) के दायरे में लाने के केंद्र सरकार के फैसले का इस्तेमाल पंजाब विधानसभा ने उस दावे को फिर से हवा देने में किया जिसके तहत कहा जाता है कि शहर चंडीगढ़ पर पंजाब का हक है. विधानसभा ने मांग यह रखी कि चंडीगढ़ को पंजाब के हवाले किया जाये.

इस पर फौरी प्रतिक्रिया हुई और बिल्कुल जानी-समझी हुई लीक पर हुई. हरियाणा की विधानसभा ने सर्व-सम्मति से एक जवाबी प्रस्ताव पारित किया. प्रस्ताव में वह पुराना दावा दोहराया गया कि पंजाब के हिन्दी भाषी इलाकों पर हरियाणा का हक है. साथ ही, नदी-जल विवाद भी प्रस्ताव में मुखर हुआ. कहा गया कि केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों का अनुपालन करते हुए सतलज-यमुना लिंक नहर के निर्माण के उपाय करे.


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पंजाब बनाम हरियाणा

यहां तक पहुंचते-पहुंचते मुद्दे की बात आप समझ ही गये होंगे. मुद्दे की बात यह कि एक कट्टर देशभक्त पार्टी विशाल बहुमत के जोर से सत्ता में आती है और सत्ता में आते ही पड़ोसी राज्य से टकराहट मोल लेने का कारनामा कर डालती है जबकि ऐसी किसी पंगेबाजी से हर हाल में बचना ही उचित था. पंजाब में बनी आम आदमी पार्टी की सरकार पर जनता का ऐसा कोई दबाव भी नहीं था. विशाल बहुमत वाली एक अप्रत्याशित जीत हासिल किये उसे अभी हुए ही कितने दिन हैं? सो, कायदे से देखा जाये तो पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार अभी अपने मधुचंद्रिका (हनीमून) वाले दिनों में है. चुनाव में चंड़ीगढ़ कोई मुद्दा था ही नहीं. न ही इसके लिए हरियाणा की सरकार की ओर से कोई उकसावा ही था. केंद्र सरकार ने उकसावे का कोई कदम उठाया था उसके जवाब में कदम उठाते वक्त हरियाणा की सरकार को विश्वास में लिया जा सकता था. दरअसल, हरियाणा विधानसभा ने अपने प्रस्ताव में भाखड़ा-ब्यास मैनेजमेंट बोर्ड के मद्देनजर केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ रुख अपनाया था. मुद्दे पर हरियाणा और पंजाब की सरकारों का संयुक्त या फिर आपसी तालमेल के साथ बयान आता तो उससे संघवाद को मजबूती मिलती और राष्ट्रवाद को भी. लेकिन, इस तरीके पर अमल करने की जगह आम आदमी पार्टी की सरकार ने रार ठानने का रास्ता चुना.

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आम आदमी पार्टी के हमदर्द ये तर्क दे सकते हैं कि पंजाब विधानसभा के उस प्रस्ताव में दरअसल गलत कुछ भी नहीं है. तथ्य यह है कि पहले-पहल 1970 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चंडीगढ़ पंजाब को सौंपा था. फिर दूसरी बार 1985 में राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत चंडीगढ़ पंजाब के हिस्से में आया. पंजाब की विधानसभा ने तो बस लंबे समय से चले आ रहे और अभी तक अधूरे रहे एक दावे को फिर से (ठीक-ठीक कहें तो सातवीं दफे) मुखर करने का काम किया है. लेकिन, अगर बात ऐसी ही है तो फिर आपको यह भी मानना होगा कि हरियाणा विधानसभा का प्रस्ताव भी गलत नहीं है, उसने भी अपने दावे को आठवीं दफे मुखर करने का काम किया है. तथ्य ये है कि उच्चतम न्यायालय ने बारंबार संतलज-यमुना लिंक नहर के फौरी निर्माण के हरियाणा के दावे को सही ठहराया है और पंजाब की सरकार अपने पिछले वादों से जो मुकरती रही है, उसे कोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया है.

इस खुली सच्चाई से आंख चुराना मुश्किल है कि पंजाब की नव-निर्वाचित आम आदमी पार्टी की सरकार ने हरियाणा के साथ एक ठंढ़े पड़े विवाद को फिर से गरमाने का काम किया और ऐसा करने की उसके पास कोई बेहतर वजह नहीं थी सिवाय इसके कि पंजाब के लोगों में भावनाओं को ज्वार उभारा जाये और खांटी पंजाबी होने की अपनी साख को साबित किया जाये.


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‘बीजेपी’ बनाम ‘बीजेपी’, `आप` बनाम `आप`

असल सवाल ये है कि आम आदमी पार्टी की `देशभक्ति` के साथ इन तमाम बातों का क्या मेल है? जहां तक हमें पता है, पार्टी के भीतर इन बातों को लेकर कोई बेचैनी नहीं है. पार्टी (आप) के भीतर से विरोध की कोई आवाज नहीं उठी है—पार्टी की हरियाणा इकाई से भी नहीं जो इस राज्य में पार्टी का सियासी विस्तार करना चाहती है. जाहिर है, कट्टर देशभक्ति का इस बात से बड़ा मेल है कि कट्टर पंजाबी दिखकर आप हरियाणा के साथ पंगा मोल लेते नजर आयें. जब हरियाणा के चुनाव आयेंगे तो केजरीवाल अपने को कट्टर हरियाणवी के रुप में पेश करेंगे—हमें ऐसी भी उम्मीद पालनी चाहिए.

ईमानदारी से कहें तो दोमुंहेपन के इस रोग का शिकार सिर्फ आम आदमी पार्टी नहीं. एक बुनियादी मायने में देखें तो बड़े लंबे अरसे से राष्ट्रीय दल अपने को राष्ट्रीय बताने-जताने में संकोच से काम लेते रहे हैं. कांग्रेस पार्टी की पंजाब इकाई और हरियाणा इकाई ने नदी-जल विवाद के मुद्दे पर एक-दूसरे से एकदम उलट रुख अपनाया लेकिन पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व इस मंजर पर चुप्पी साधे रहा. यही खेल कावेरी नदी के पानी के बंटवारे के मुद्दे पर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच देखने को मिला. तब बीजेपी अपने राष्ट्रवादी मुहावरे के साथ अवतरित हुई. साल 2014 के नवंबर से 2017 की फरवरी के बीच बीजेपी की सरकार केंद्र के साथ-साथ हरियाणा में भी थी और पंजाब में पार्टी (बीजेपी) सत्ता में साझीदार थी. ये बिल्कुल सही मौका था जब पार्टी पंजाब और हरियाणा के बीच लंबे वक्त से चले आ रहे सभी विवाद सुलझा लेती. लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ. ऐसी कोई खबर नहीं आयी कि हमारे राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री ने दोनों राज्यों के बीच के रिश्ते में बने चले आ रहे घाव को भरने का कोई उपक्रम किया हो.

घाव भरने के जतन करने की क्या कहें, हुआ इसके एकदम ही उलट. बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल ने हाथ में हाथ मिलाकर मुट्ठी तानते हुए कहा कि न तो सतलज-यमुना लिंक नहर किसी को बनाने देंगे और न ही हरियाणा को एक बूंद पानी देंगे. साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की हेठी करते हुए नहर के लिए अधिग्रृहीत की गई जमीन को भी विमुक्त कर दिया गया. बीजेपी के हरियाणा के विधायकों ने पंजाब के राज्यपाल से कहा कि हमारे इस पड़ोसी राज्य (पंजाब) में हमारी ही पार्टी की सरकार ने जो कानून बनाया है, आप उस पर दस्तखत मत करना. गौर कीजिए कि उस वक्त बीजेपी का राष्ट्रवाद राष्ट्रीय एकता को खत्म करने की इस खुली कोशिश के आड़े नहीं आया. यही कहानी कर्नाटक में भी दोहरायी गई, बीजेपी ने तमिलनाडु के विरुद्ध भावनाओं को भड़काने के जुगत किये और मणिपुर में नगालैंड के साथ सीमा-विवाद की सुलग रही चिनगारी को हवा दी.


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राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रवाद/देशभक्ति

इस तर्ज का राष्ट्रवाद उस राष्ट्रवाद से कत्तई अलग है जो हमारे आजादी के आंदोलन की कोख से जनमा. भारत का राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद-विरोधी तो था लेकिन नस्लवादी, वर्चस्ववादी या अंध-राष्ट्रवादी हरगिज न था. भारतीय राष्ट्रवाद में कभी अपने पड़ोस के प्रति वैरभाव न था. इस राष्ट्रवाद ने तमाम वंचित कौमों के बीच एकता को बढ़ावा दिया और पड़ोसियों से दोस्ती करनी चाही. जहां तक देश की सीमाओं के भीतर की बात है—भारतीय राष्ट्रवाद एक विराट-जनान्दोलन के रुप में सामने आया जिसका उद्देश्य सभी संभावी विवादों और संघर्षों को थामकर राष्ट्रीय एकता कायम करना था. सो, इस राष्ट्रवाद के एजेंडे में प्राथमिक था हिन्दू-मुस्लिम एकता, छुआछूत के चलन का खात्मा. यह राष्ट्रवाद विविधता की पहचान करते हुए उनके बीच एकता के सूत्र जोड़ने के जतन करता था.

जिस राष्ट्रवाद का गुणगान बीजेपी-आरएसएस किया करते हैं और आम आदमी पार्टी जिस राष्ट्रवाद को अपनाने की भौंडी नकल किया करती है वह भारतीय राष्ट्रवाद के विपरीत है. यह नकलची राष्ट्रवाद संयुक्त राज्य अमेरिका से गलबहियां डालने को तैयार है और रुस के दुराचारों से आंखें मूंदे रखकर अपने पड़ोसी देशों (खासकर वे पड़ोसी देश जो बहुत कमजोर हैं) के खिलाफ मुट्ठी तानने को उद्धत है.देश की सीमाओं के भीतर जो विवाद मौजूद हैं उनको सुलझाने में इस नये तर्ज के राष्ट्रवाद की दिलचस्पी नहीं, न ही यह राष्ट्रवाद राष्ट्रीय एकता को चोट पहुंचाने वाले घावों को भरने में यकीन रखता है. नये तर्ज का यह राष्ट्रवाद हमारी सामाजिक राजनीतिक जीवन में मौजूद टूट और दरार के सियासी फायदे उठाने और देश के दायरे में ही देश के लोगों को देश का दुश्मन ठहराने से नहीं चूकता. नये तर्ज का यह राष्ट्रवाद एकता का हामी नहीं बल्कि प्रतीकात्मक समरुपता का हामी है. यही है बीजेपी का राष्ट्रवाद और यही है आम आदमी पार्टी की देशभक्ति.

भारत को ऐसी नकलची देशभक्ति और फर्जी राष्ट्रवाद से बचाना बहुत जरुरी है!

(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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