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शिक्षा का भारतीयकरण जरूरी लेकिन सिर्फ भारतीयता का ‘तड़का’ न मारें, “मुरब्बे” का तरीका अपनाएं

शिक्षा के भारतीयकरण के मसले पर बहसें इसी रीति से शुरु और खत्म होती हैं. कोई अपना अधकचरा प्रस्ताव लिए चला आता है और पेश कर देता है लेकिन प्रस्ताव कुछ यों निकलता है कि आपको ऊंची दुकान, फीके पकवान वाली मसल याद आ जाये.

प्रतीकात्मक तस्वीर। मनीषा मंडल/ दिप्रिंट

शिक्षा का भारतीयकरण हो कि नहीं- सवाल यह है ही नहीं. असल सवाल ये है कि शिक्षा का भारतीयकरण कैसे हो और ऐसा लगता नहीं कि यह असल सवाल फिलहाल कोई पूछ रहा है. क्या हम ये चाहते हैं कि जो शिक्षा अपने ज्यादातर में औपनिवेशिक तर्ज की है उस पर हिन्दुस्तानीपन का तड़का मारकर काम चलायें ? या, हम हिम्मत दिखाते हुए अचार और मुरब्बे वाला तरीका अपनायें, शिक्षा के रुप और अंतर्वस्तु को, चाहे वह देसी हो या विदेशी- कुछ इस तरह गलायें कि वह भारतीय संदर्भों के अनुकूल लगे, उससे भारतीय जरुरतों को संतुष्ट करने वाला स्वाद आये और ऐसा जान पड़े मानो हमारे देश की शिक्षा हमारी ज्ञान-परंपराओं का ही विकसित और परिष्कृत हिस्सा है?

इस बहस को हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई शांति एवं सुलह संस्थान (साउथ एशियन इंस्टीट्यूट आफ पीस एंड रिकंसीलिएशन) का उद्घाटन करते हुए उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने फिर से हवा दी है. उन्होंने शिक्षा के `भारतीयकरण` के पक्ष में तर्क देते हुए थॉमस बैबिंग्टन मैकाले की बनायी लीक से उबरने का आह्वान किया और कहा कि हमें अपनी ‘जड़ों की ओर लौटना`होगा, अपनी ‘संस्कृति और विरासत की महानता`को समझना होगा, अपनी `हीनताबोध की ग्रंथि`से उबरना होगा और मातृभाषाओं को अपनाना होगा. उन्होंने कहा कि हो सकता है कि इसे भगवाकरण का लकब दे दिया जाये लेकिन भगवा में गलत क्या है ? जाहिर है, फिर समाचारों में सुर्खियां यही बननी थी कि उप-राष्ट्रपति ने शिक्षा के भगवाकरण की बात कही और उप-राष्ट्रपति के उद्बोधन में जो मुख्य बात थी यानी `शिक्षा का भारतीयकरण`वह समाचारों की सुर्खियों से गायब हो गई.

भैंस के आगे बीन बजाना

उप-राष्ट्रपति ने जो बात उठायी उसकी अहमियत हाल की दो और घटनाओं से भी जाहिर होती है. गुजरात सरकार ने ऐलान किया है कि भगवद गीता के उपदेशों को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जायेगा. छात्रों को गीता के श्लोक रटना सिखाया जायेगा, साथ ही उन्हें गीता की कुछ प्रचलित व्याख्याएं भी पढ़नी होंगी. गुजरात सरकार की इस घोषणा में यह बात कहीं नहीं कही गई कि दूसरे धर्मों के ग्रंथ या महाकाव्य पाठ्यक्रम में शामिल किये जा सकते हैं या नहीं. हाल ही में, राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी के विचारक राकेश सिन्हा के निजी प्रस्ताव पर बहस हुई. इस प्रस्ताव में कहा गया था कि भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा के पुनरुद्धार के लिए राज्य और जिला स्तर पर शोध-संस्थान बनाये जाने चाहिए. राकेश सिन्हा ने बहस के दौरान यह भी कहा कि भारतीय अगर अपनी ज्ञान-परंपरा से बिछुड़ गये हैं तो इसका जिम्मेदार मैकाले है.

इन घटनाओं को लेकर कोई खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली, सार्वजनिक तौर पर तो कोई खास हो-हल्ला नहीं ही हुआ.

लेकिन जो थोड़ी-बहुत प्रतिक्रियाएं सामने आयीं वो पुरानी लीक पर ही थीं. भगवद् गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने के गुजरात सरकार के फैसले को लेकर तुरंता प्रतिक्रिया के तौर पर कहा गया (और एक हद तक ठीक ही कहा गया) कि इससे संविधान के अनुच्छेद 28(1) और 28(3) में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन होता है. भारतीयकरण और भगवाकरण को पर्यायवाची के तौर पर इस्तेमाल करने की जुगत की भी आलोचना की गई. और, जहां तक भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपराओं के पुनरुद्धार और उन्हें अपनाने की बात है तो इसपर यह कहते हुए अंगुली उठायी गई कि यह तो सिर्फ एक जाति यानी ब्राह्मणों की ज्ञान-परंपराओं को बढ़ावा देने की बात है.

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शिक्षा के भारतीयकरण के मसले पर बहसें इसी रीति से शुरु और खत्म होती हैं. कोई अपना अधकचरा प्रस्ताव लिए चला आता है और पेश कर देता है लेकिन प्रस्ताव कुछ यों निकलता है कि आपको ऊंची दुकान, फीके पकवान वाली मसल याद आ जाये.

प्रस्ताव की दबी जुबान से सराहना होती है या फिर उसका उपहास किया जाता है. जबतक, पाठ्यक्रम में कुछ सजावटी-दिखावटी किस्म के बदलाव कर दिये जाते हैं. बदलाव का यह करतब मसले के पक्ष और विपक्ष में खड़े विचारकों-पैरोकारों में जोश भरता है लेकिन इस पूरे क्रिया-कलाप में जो चीज सिरे से नजर नहीं आती वह ये कि सीखने-सिखाने, पढ़ने-पढ़ाने के प्रचलित ढर्रे पर कुछ असर हुआ या नहीं. कभी मैंने इसी बात को लक्ष्य करके लिखा था कि यह तो भैंस के आगे बीन बजाना हुआ.


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भारतीयकरण का ‘तड़का-मार`तरीका

शिक्षा के भारतीयकरण का एक तरीका बड़ा प्रचलित हो चला है और इस तरीके की पैरोकारी जब-तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े परिवारी संगठन करते हैं. असल दिक्कत शिक्षा के भारतीयकरण के इस प्रचलित तरीके के साथ ही है. आप चाहें तो यहां सुभीते के लिए इस प्रचलित तरीके को शिक्षा के भारतीयकरण का तड़का-मार तरीका कह सकते हैं. इस तरीके में करना कुछ खास नहीं होता- औपनिवेशिक तर्ज की जो शिक्षा पहले से चली आ ही है उसे जस का तस बनाये रखना होता है लेकिन शिक्षा की इस बासी कढ़ी में उबाल लाने के लिए आखिर को इसमें तड़का लगाने की जुगत करनी होती है ताकि परोसा जाये तो भारतीय किस्म की खुशबू और स्वाद आये. नीति-निर्माण के दस्तावेज तैयार करते वक्त इस तड़का-मार तरीके के तहत प्राचीन ज्ञान-परंपरा का कोई अस्पष्ट सा हवाला दिया जाता है, प्रसंग ना भी हो तो भी दस्तावेज में गुरु-शिष्य परंपरा की जहां-तहां दुहाइयां दी जाती हैं और फिर पूरी गर्व-गर्जना के साथ भारत के विश्व-गुरु होने की घोषणा की जाती है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में मुख्यतया इसी तरीके का पालन किया गया है. शिक्षा के भारतीयकरण के इस तड़का-मार तरीके के तहत पाठ्यक्रम तैयार करना हो तो उसमें नैतिक शिक्षा के नाम पर अक्सर-ओ-बेश्तर किसी हिन्दू धर्म ग्रंथ को घुसाने की कवायद की जाती है. अन्य धर्म या सांस्कृतिक परंपराओं को तजकर पाठ्यक्रम बनाने की इस लीला के कारण सेक्युलरिज्म बनाम धार्मिक अधिकार की बहस उठ खड़ी होती है. गुजरात सरकार ने शायद यही करना चाहा है.

यह कोई संयोग नहीं है कि भगवद् गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने के प्रस्ताव की घोषणा इस निर्णय के साथ हुई कि गुजरात के सभी सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी पहली कक्षा से ही अनिवार्य विषय के रुप में पढ़ायी जायेगी और छठी कक्षा तथा उससे आगे की स्कूली पढ़ाई में गणित और विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी भाषा को माध्यम मानकर दी जायेगी. अब आप सोचते रहिए कि क्या सूबे गुजरात के स्कूली पाठ्यक्रम में गीता का तड़का लगाने का फैसला इस नाते किया गया कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने के फैसले पर कोई अंगुली ना उठाये, उसपर कोई बहस ना खड़ी हो जाये. यहां हम मिसाल के तौर पर दिल्ली सरकार के देशभक्ति पाठ्यक्रम को भी ले सकते हैं. यह पूरा पाठ्यक्रम इस चिन्ता को अपने आसपास फटकने ही नहीं देता कि किसी चीज का नाम शिक्षाशास्त्र(पेडागॉजी) भी होता है और पढ़ाई-लिखाई के मसलों को शिक्षा-शास्त्रीय चिन्ताओं के दायरे में लाकर भी सोचना होता है—ऐसे में प्रचारबाजी के बाकी कारनामों की तरह दिल्ली सरकार का देशभक्ति का पाठ्यक्रम भी एक मजाक बनकर रह गया है.

इस तड़का-मार तरीके के प्रचलन में आने के कारण शिक्षा के भारतीयकरण को लेकर कोई भी चर्चा नितान्त सतही किस्म की बनकर रह जाती है और वैमनस्य उसमें पूरमपूर भरा होता है. जाहिर है, फिर भारतीयकरण के इस तड़का-मार तरीके को पूरी तरह खारिज भी किया जाता है. वैज्ञानिक कह उठते हैं कि प्राचीन काल में भारत में कास्मेटिक सर्जरी या फिर ज्योतिर्विद्या (एस्ट्रोफिजिक्स) के होने संबंधी दावे सीधे-सीधे झांसापट्टी हैं और ज्यादा से ज्यादा उन्हें मसखऱेपन का नमूना माना जा सकता है.

प्राचीन भारत, पुराण-कथाओं और धर्मग्रंथों के इतिहासकार इस तरह के भौंड़े नकलचीपन के आगे त्राहि माम् कर रहे हैं. शिक्षाविद् नानविध की ऐसी नौटंकियों से अलग हैरान-परेशान हैं. सेक्युलरवाद के पैरोकार एक्टिविस्ट प्रतिरोध की आवाज में बोलते हैं कि पूरी की पूरी आबादी पर जबर्दस्ती हिन्दू धर्मग्रंथ थोपे जा रहे हैं. सामाजिक न्याय के पैरोकार हलकान हैं कि ब्राह्म्णवादी ग्रंथों की रसाई और पोसाई हो रही है जबकि बाकी ज्ञान-परंपराओं को एक सिरे से मिटाने के उपक्रम हो रहे हैं. दूसरी तरफ शिक्षा-क्षेत्र के उद्यमी हैं जो अपने को शिक्षा के भारतीयकरण की इस तड़का-मार तरीके के अनुकूल बना रहे हैं और इस क्रम में पश्चिमी शिक्षा पद्धति के बिजूके को पूरे तामझाम से बनाये रखते हुए उसपर भारतीय ज्ञान-परंपरा के कुछ बेल-बूटे काढ़ने के करतब में लगे हुए हैं.

अगर सीखने-सिखाने यानी शिक्षा शास्त्रीय सरोकारों से सोचें तो जान पड़ेगा कि शिक्षा के भारतीयकरण का यह पूरा करतब आत्मघात के विराट उपक्रम में बदल गया है, एक सांस्कृतिक त्रासदी और राष्ट्रीय शर्म का विषय बनकर हमारे आगे नमूदार हुआ है.

हम सबको गांधी जी का यह कहा तो बार-बार याद आता है: ‘मैं चाहता हूं कि हर भूमि की संस्कृति मेरे घर में जहां तक संभव है बेरोकटोक आये लेकिन मैं कत्तई बर्दाश्त नहीं करुंगा कि इनमें से किसी के आगे मेरे पैर मेरी जमीन से उखड़ जायें.’ लेकिन इसके तुरंत बाद जो महात्मा गांधी ने कहा था, उसे हम शायद ही याद करते हैं. गांधीजी ने ऊपर के उद्धरण के आगे के वाक्य में यह भी कहा कि: ‘मुझे दूसरों के घर में घुसपैठिया, भिखारी या गुलाम बनकर रहने से इनकार है.’ आज के भारत में आधुनिक शिक्षा के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसपर गांधी की यह उक्ति एकदम ठीक बैठती है. यह शिक्षा हमें पश्चिमी ज्ञान के मकान में घुसपैठिया, भिखारी और गुलाम बनकर रहने की सीख देती है.

अचार और मुरब्बा वाला तरीका

आज बड़ी जरुरत है कि हम शिक्षा के भारतीयकरण के एक नये तरीके के बारे में सोचें. अब इस लेख में ऊपर रसोईघर के मुहावरे में बातें लिखी गई हैं तो उसी को आगे बढ़ाते हुए यहां कहें कि शिक्षा के भारतीयकरण का एक वैकल्पिक तरीका वह हो सकता है जिसे हम मुरब्बा बनाते वक्त अपनाते हैं. व्यंजन के तैयार हो जाने के बाद उसमें एक बार तड़का मार देने की जिस विधि की ऊपर चर्चा की गई है, मुरब्बा बनाने की यह विधि उससे निहायत अलग है. इसमें सिरके के सहारे व्यंजन बनाने की मूल सामग्री को कुछ देर तक मुलायम बनाना होता है, कुछ ऐसे कि उसमें बाकी रस और मसालों बड़ी आसानी से घुल मिल जायें और व्यंजन बनाने की मूल सामग्री नई सूरत-सीरत अख्तियार कर ले. कुछ ऐसा ही हमें शिक्षा में भी करने की जरुरत है.

शिक्षा की मूल सामग्री हम कहीं की भी रख सकते हैं- वह पश्चिम की हो, भारत या फिर दुनिया के बाकी हिस्सों की. भारतीयकरण का मतलब यह नहीं कि हम भारत की राष्ट्रीय सीमाओं के दायरे में पाये जाने वाली ज्ञान-सामग्री तक ही सीमित रहें. मूल सामग्री हम हर जगह की ले सकते हैं लेकिन उसे भारतीय परिवेश और संदर्भों के अनुकूल बनाना होगा, हमारे देश की जो मौजूदा जरुरतें हैं, उस हिसाब से उन्हें ढालना होगा—इस सामग्री को ऐसा बनाना होगा कि उसमें हमारी ज्ञान-परंपराओं की रसाई हो सके. यह प्रक्रिया धीमी होगी लेकिन फिर उतनी ही गहरी और पायेदार भी.

भारतीयकरण के इस वैकल्पिक तरीके में खासतौर से कुछ नीतिगत उपाय करने होंगे. जैसे, पहला तो यही कि हमें भरपूर साहस दिखाना होगा और जो एक किस्म का भाषाई रंगभेद प्रचलित है, उसपर सवाल उठाने होंगे—अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने की जो शिक्षा शास्त्रीय बर्बरता हम दिखा रहे हैं, उससे बाज आना होगा. इसकी जगह हमें वह करना होगा जो तमाम शिक्षाविद्, भाषाविद् और संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के तमाम विशेषज्ञ कब से बताते आ रहे हैं यानी बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा देनी होगी, साथ ही उनके लिए एक बहुभाषिक दुनिया के दर्शन के दरवाजे खोल रखने होंगे, यह याद रखते हुए कि इस बहुभाषिक दुनिया का एक झरोखा अंग्रेजी भी है.

दूसरी बात है `करते की विद्या` वाला तरीका अपनाना यानी हाथ से किसी काम को करके दिखाइए और इस क्रम में सीखते जाइये. अगर हम ब्राह्मणवादी शिक्षा पद्धति से उबरना चाहते हैं तो फिर हस्तकर्म और हस्तशिल्प की गरिमा की बहाली हमारी पाठ्यचर्या का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए.

तीसरी बात, सीखना-सिखाना चाहे किसी भी विषय में हो (और यह बात प्राकृतिक विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की शिक्षा को शामिल करते हुए कही जा रही है), उसे भारतीय संदर्भों के अनुकूल बनाया जाये. तमाम विषयों की बनावट-बुनावट ऐसी है कि उसके हर रेशे और गांठ पर पश्चिमी संदर्भ चिपके हुए हैं, भले वे सीधे-सीधे नजर ना आयें. अब ऐसी शिक्षा के ऊपर भारतीय संदर्भों की छोटी सी चिन्दी या बिन्दी लगाने से बात नहीं बनने वाली. तैयार रहना होगा कि हम अपने परिवेश और संदर्भों के सवाल उठायें तो पढ़ाई-लिखाई के हमारे अकादमिक विषयों से उन सवालों के उत्तर मिलें.

चौथी बात यह कि बेशक हमारे छात्र दुनिया भर की ज्ञान-राशि से लाभान्वित हों लेकिन उन्हें हमारी अपनी बौद्धिक विरासत, अपने महाकाव्यों और अपनी भूमि में प्रचलन में रहे व्याहारिक ज्ञान से अनजान नहीं होना चाहिए. इसका एक मतलब हुआ कि जीवन के बहुविध क्षेत्रों जैसे कृषि, वस्त्र-निर्माण, वास्तुशिल्प तथा चिकित्सा आदि के क्षेत्र में जो ज्ञान पहले से मौजूद चला आ रहा है, उन्हें पहचानना और उनका पुनर्वास करना.

और, इस सिलसिले की आखिर की बात यह कि अगर हम शिक्षा के भारतीयकरण का कोई गंभीर उपक्रम करने जा रहे हैं तो फिर हमें अपनी नई पीढ़ियों को भारतीय संविधान के मान-मूल्यों के बारे में सिखाना होगा. ये मान-मूल्य भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में बनी विचारधाराई सहमति की ऊपज हैं.

विष्णु पुराण में एक जगह शिक्षा की संभवतया सबसे अच्छी परिभाषा दी गई है कि `सा विद्या या विमुक्तये`. जो लोग शिक्षा के भारतीयकरण की पैरोकारी कर रहें हैं उनसे हम विष्णुपुराण की इस उक्ति के सहारे असल सवाल पूछ सकते हैं. असल सवाल यह कि: क्या शिक्षा का भारतीयकरण कोई हथियार है जिसके दम पर हमें अज्ञानता, हीनताबोध या फिर कूपमंडूकता की काल-कोठरी में बंद कर दिया जाये? या फिर, हम ये चाहते हैं कि भारतीयकरण हमें बिना घुसपैठिया, भिखारी या गुलाम बने सदा सीखने को मुक्त करे?

(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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