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बरेली लौटे प्रवासी मजदूरों को मिल रहा मनरेगा के तहत रोज़गार, अब दिल्ली न लौटने की कर रहे हैं बात

लगभग 47,000 मजदूरों को मनरेगा के तहत काम दिया जा रहा है. इनमें वो प्रवासी मजदूर भी शामिल हैं जो लॉकडाउन के दौरान वापस अपने घरों में लौटे थे.

मजदूर थककर अपने खेत में बैठा हुआ है. मार्च के अंत में यह अपने घर पहुंचा था जिसके बाद उसने अपने को 14 दिन के लिए क्वारेंटाइन कर लिया. अब वो फिर से अपनी खेती में लग गया | ज्योति यादव/दिप्रिंट

बरेली: उत्तर प्रदेश में लाखों की संख्या में वापस लौटने वाले प्रवासी मजदूरों के चलते, मनरेगा (महात्मा गांधी रुरल एम्पल्योमेंट जेनरेशन एक्ट) के अंतर्गत काम करने वाले लोगों की संख्या में काफी तेज़ी आई है.

बरेली के चीफ डेवलपमेंट ऑफिसर चंद्र मोहन बताते हैं, ‘इस वक्त 879 गांवों में इस योजना के तहत रोजगार प्रदान किया जा रहा है. लगभग 47,000 मजदूरों को मनरेगा के तहत काम दिया जा रहा है. इनमें वो प्रवासी मजदूर भी शामिल हैं जो लॉकडाउन के दौरान वापस अपने घरों में लौटे थे. हम कोशिश कर रहे हैं कि जितने भी लोग वापस आए हैं उनके लिए रोजगार के अवसर पैदा करें. फिर चाहे वो स्किल्ड हों या अनस्किल्ड या फिर सेमी स्किल्ड.’

वो आगे कहते हैं, ‘उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों से बरेली आए लोगों के चलते मनरेगा के तहत मिलने वाले रोजगार में पांच गुना बढ़ोतरी देखी गई है. इन मजदूरों को केंद्र सरकार द्वारा तय मानकों के हिसाब से 202 रुपए प्रतिदन वेतन दिया जाता है.’

इस सिलसिले में दिप्रिंट ने फरीदपुर तहसील के बिलपुर गांव का दौरा किया जहां मनरेगा के तहत 110 मजदूर काम कर रहे थे. बिलपुर गांव के प्रधान जितेंदर वर्मा बताते हैं, ‘110 प्रवासी मजदूरों में से 35 ऐसे मजदूर हैं जो बाहर से वापस आए हैं. इन लोगों के पास रोजगार के लिए कोई काम नहीं था. इसलिए वो चकरोड के लिए मिट्टी को खोदने के काम में लग गए हैं. चकरोड एक तरह का कच्चा रास्ता होता है जो दो गांवों को आपस में जोड़ता है और लोग अपने खेतों की बुआई के लिए इस रास्ते से ट्रैक्टर ला सकते हैं’. जहां ये चकरोड बनाया जा रहा था वो शाहजहांपुर और बरेली जिले की सीमा पर था और सात दिन पहले ही इसपर काम शुरू हुआ था.

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चाकरोड के पास 110 लोग खेतों में काम कर रहे हैं जिनमें एक 10 वर्षीय भी शामिल है | ज्योति यादव/दिप्रिंट

‘एक साल तक तो दिल्ली नहीं जा पाऊंगा’

25 वर्षीय दिनेश सिंह भी एक प्रवासी मजदूर हैं जिन्हें मनरेगा के तहत काम मिला है. दिनेश इससे पहले दिल्ली के बदरपुर में एक मिठाई की दुकान पर काम करते थे. वो बताते हैं, ‘मैं बदरपुर से गाजियाबाद तक पैदल आया. फिर वहां से मैंने टाटा 407 दूध की एक गाड़ी पकड़ी और रामपुर तक आ गया. उसके बाद पुलिस ने हमें सैनेटाइज किया और हमारी स्क्रीनिंग की और फिर क्वारेंटाइन में 14 दिन के लिए रखा. उसके बाद हमें अपने गांव छोड़ दिया गया.’ दिनेश दिल्ली में 8,500 रुपए कमाते थे.


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चार सदस्यों के परिवार का पेट पालने वाले दिनेश घर में इकलौते कमाने वाले हैं. वो कहते हैं, ‘लॉकडाउन के बाद मुझे दिल्ली में अच्छा नहीं लग रहा था. मुझे भी कोरोनावायरस की चपेट में आने का डर लग रहा था. खाना और पानी भी मिलना मुश्किल होने लगा तो मैं अपने गांव आ गया. मिठाई की दुकान का सामान भी सड़ने लगा था. हमारे लिए कुछ बचा नहीं था. वहां जी पाना मुश्किल हो रहा था. अगर अभी भी मैं अच्छी कमाई करने के लिए दिल्ली जाने के बारे में सोचूं तो मुझे लगता है कि एक साल तक तो नहीं जा पाऊंगा.’

खेतों तक पहुंचने के लिए मजदूरों को दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों से हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी है. अब वो अपने परिवारों को खिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं | ज्योति यादव/दिप्रिंट

19 वर्षीय वेद प्रकाश भी दस दिन तक पैदल चलने के बाद बरेली में अपने गांव लौटे थे. उन्होंने पुरानी दिल्ली से अपनी पैदल यात्रा शुरू की थी. वो दिप्रिंट से अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘शुरू के दो-तीन दिन तो हमें कोई खाना मिला नहीं लेकिन मैं रूका नहीं.’ वेद पुरानी दिल्ली में रेलवे में मजदूरी करते थे और 27 मार्च को वहां से निकले थे. वेद और उनके पिता दोनों ही मनरेगा मजदूरी करते हैं.

पिछले पांच दिन से मिट्टी खोद रहे वेद कहते हैं, ‘हमारे पास मजदूरी के अलावा कोई रास्ता नहीं है. इसके अलावा पेट पालने का कोई तरीका भी नहीं है. रेलवे में मुझे 350 रुपए प्रतिदिन मिलते थे.’

बिलपुर गांव के एक और पिता व बेटे भी दिल्ली से अपने गांव लौटे थे. 40 वर्षीय मंगली कहते हैं, ‘मैं दिल्ली में सब्जी बेचा करता था. मेरा बेटा टेलर की दुकान पर काम करता था. हम वहां ठीक-ठाक कमा लेते थे लेकिन कोरोनावायरस फैल गया और फिर हमें वहां से आना पड़ा.’

बरेली के ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर एमआई खान कहते हैं, ‘मनरेगा के तहत मिलने वाला भत्ता सात से आठ दिन के भीतर प्रोसेस कर दिया जाता है. एक हफ्ते के बाद मस्टर रोल्स बनाए जाते हैं और डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर (डीबीटी) के जरिए उनके खातों में सीधा भेजा जाता है. इस प्रक्रिया में सात से आठ से दिन लगते हैं. वो बताते हैं कि इन मजदूरों को अब दूसरी साइट पर रोजगार दिया जाएगा.’

महामारी को रोकने के लिए मजदूरों को हैंड सैनिटाइजर दिया गया है | ज्योति यादव/दिप्रिंट

एमआई खान आगे कहते हैं, ‘प्रवासी मजदूर और गांव के अन्य मजदूर हमारे दफ्तर आते रहते हैं. जो दूसरे राज्यों से मजदूर अपने गांवों में वापस लौटे हैं वो कहते हैं कि हमें रोजगार दीजिए. जिनके पास जॉब कार्ड नहीं होता उनको हम जॉब कार्ड उपलब्ध कराते हैं.’ वो दावा करते हैं कि मनरेगा के तहत नौकरियां एक दिन में ही उपलब्ध करा दी जाती हैं.

ऑपरेशन कायाकल्प योजना के तहत भी रोजगार देने का प्लान

बरेली के चीफ डेवलपमेंट ऑफिसर दिप्रिंट को बताते हैं कि इन प्रवासी मजदूरों को राज्य सरकार की ऑपरेशन कायाकल्प योजना के तहत भी रोजगार दिए जाने का प्लान है. इसके तहत पंचायत भवनों, आंगनवाड़ी भवनों और सरकारी स्कूलों की मरम्मत की जाती है और मजदूरों को काम दिया जाता है.


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वो आगे कहते हैं, ‘हम कोशिश कर रहे हैं कि शौचालय बनवाकर भी इन प्रवासी मजदूरों और राज्य के अन्य मजदूरों को काम दिया जा सके. इसके अलावा भी हम अन्य विकल्पों के बारे में सोच रहे हैं ताकि रोजगार के अवसरों को बढ़ाया जा सके.’

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