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जॉब्स का नुक़सान, बुरे मालिक, बंद कारोबार-Covid ने दिल्ली के ‘बेढंग’ एयरोसिटी महिपालपुर को तबाह किया

स्थानीय होटल मालिकों का कहना है महिपालपुर के 200 से अधिक होटलों में से केवल 40% ही कोविड लॉकडाउन को झेल पाए, और मुश्किल से अपना ख़र्च निकाल पा रहे हैं. हर पार्लर नुक़सान में हैं जिनमें बहुत से बंद हो चुके हैं.

दिल्ली के महिलापुर एरिया में होटलों की कतार | दिप्रिंट

नई दिल्ली: बरसों से ब्यूटी इंडस्ट्री में रही 44 वर्षीय मंजू गदाइवाल के कई सपने थे, जब फरवरी 2020 में उन्होंने दिल्ली के महिपालपुर में अपना ख़ुद का पार्लर शुरू किया था.

एयरपोर्ट के नज़दीक होने से गदाइवाल के लिए वो जगह प्राइम रियल एस्टेट थी, जहां वो उड़ानों के ज़रिए राष्ट्रीय राजधानी में लगातार दाखिल हो रहे यात्रियों से, काम मिलने पर भरोसा कर रही थीं. लेकिन एक महीने बाद ही लॉकडाउन शुरू हो गया और उसके साथ ही शुरू हो गईं गदाइवाल की मुसीबतें.

इस जुलाई में अपना ख़ुद का कारोबार बंद कर देने के बाद, आज वो वसंत कुंज के एक पार्लर में हफ्ते के सातों दिन, रोज़ाना 10 घंटे की शिफ्ट में काम कर रही हैं.

वो 7,000 रुपए महीना कमा रही हैं. मंजू ने बताया कि कोविड लॉकडाउन के बाद डेढ़ साल में, उन्होंने अपनी जीवनभर की जमा पूंजी ख़त्म कर ली और उनके पति भी- जो उनके अनुसार मानसिक रूप से अस्थिर हैं- बेरोज़गार हो गए.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘22 फरवरी 2020 को मैंने अपना पार्लर महिपालपुर में मेन रोड के बिल्कुल पास में खोला था. मैंने अपनी सारी पूंजी इस नए कारोबार में लगा दी, क्योंकि मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी. एक महीने के अंदर देश लॉकडाउन में चला गया. 30 जुलाई 2021 को मैं उसे बंद करके, अपने पुराने पार्लर मालिक के पास जाने को मजबूर हो गई’.

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महिपालपुर दिल्ली-गुरुग्राम मार्ग एनएच-8 के बाईं ओर पड़ता है- गेस्ट हाउसेज़, होटलों, स्पा और पार्लरों का 5 किलोमीटर लंबा एक संकरा सा टुकड़ा.

‘रात 8 बजे के बाद पता ही नहीं चलता कि आप महिपालपुर में हैं या बेंकॉक में’

जहां बड़े होटल सड़क के सामने हैं, वहीं अंदर की संकरी गलियों में- जहां फायर ब्रिगेड की गाड़ी भी नहीं घुस सकती और सीवर खुले पड़े हैं- और भी छोटे और अवैध होटल फैले हुए हैं, जो मूल मालिकों की ज़मीन पर बने हैं.

‘रात 8 बजे के बाद पता ही नहीं चलता कि आप महिपालपुर में हैं या बैंकॉक में,’ ये कहना था आप नेता और बिजवासन विधायक बी.एस. जून का, जिनके चुनाव क्षेत्र में महिपालपुर आता है, जो दिल्ली के सबसे पुराने शहरी गांवों में से है, और जिसका इतिहास 14वीं शताब्दी तक जाता है.

अपने महंगे पड़ोसी एयरोसिटी की तरह, महिपालपुर का मक़सद इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से आने वाले यात्रियों की ज़रूरतें पूरी करना था, जो शहर के अंदर और बाहर ठहरने की जगह चाहते हैं. लेकिन शानदार होटलों और रेस्टोरेंट्स वाले एयरोसिटी के विपरीत, महिपालपुर के ज़्यादातर प्रतिष्ठान बिल्डिंग उपनियमों के उल्लंघन में, बिना किसी फायर क्लियरेंस के अवैध रूप से बने हुए हैं.

इस बेल्ट में लॉकडाउन का बहुत गंभीर असर रहा है. होटल मालिकों के अनुसार महिपालपुर के 200 से अधिक होटलों में से, केवल 40 प्रतिशत ही कोविड लॉकडाउन को झेल पाए और मुश्किल से अपना ख़र्च निकाल पा रहे हैं.

बंद हो गए बहुत से होटलों में ये स्थिति इसलिए आई, क्योंकि बढ़ते नुक़सान और उसकी भरपाई न होने के डर से, किराएदार कारोबार छोड़कर चले गए. बहुत से मालिकान उनसे संपर्क नहीं कर पाए हैं.

मालिकान और वर्कर्स एक ही नाव में सवार हैं, जो अपने परिवारों की गुज़र-बसर के लिए मुश्किल से अपना ख़र्च निकाल पा रहे हैं. न्यूनतम मज़दूरी अदा करने का विचार- अकुशल श्रमिकों को 16,000 रुपए मासिक, अर्ध-कुशल को 17,500 रुपए प्रति माह और कुशल को 19,200 रुपए प्रति माह- असंभव नज़र आता है. वेतनों में कटौती सामान्य बात हो गई है, जिसे हताश कर्मचारियों को न चाहते हुए भी स्वीकार करना पड़ रहा है.

महिपालपुर दिल्ली मास्टर प्लान में शामिल नहीं किया गया | रेवती कृष्णन | दिप्रिंट

एयरोसिटी वो सब कुछ है जो महिपालपुर नहीं है या होने की तमन्ना करता है. उनके ज़्यादातर ग्राहक एयरपोर्ट से आते हैं- यात्री, स्टाफ और दूतावास कर्मचारी. लेकिन ‘दो एयरोसिटीज़ की इस दास्तान’ में, ज़्यादातर महिपालपुर के कोई दस्तावेज़ नहीं हैं, और ये अवैध ज़मीन पर बना है, जबकि एयरोसिटी के पास सभी ज़रूरी दस्तावेज़ हैं जो जीएमआर के पास हैं, जिसकी वजह से ये निवेशकों के लिए और आकर्षक बन जाता है.

एयरोसिटी में निवेश करने वालों की जेबें बहुत गहरी हैं, जिनके पास महामारी से उबरने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, जबकि हाईवे के उस पार होटल मालिक किसी तरह काम चला पा रहे हैं और बहुतों ने कारोबार छोड़ दिया है.

अगर एयरोसिटी को पॉश और महंगा माना जाता है, तो उसके किफायती समकक्षी महिपालपुर को ‘संदिग्ध’ और कथित तौर पर अनुचित गतिविधियों का केंद्र माना जाता है, जैसे वेश्यावृत्ति, ड्रग्स और अवैध शराब की बिक्री और सेवन.


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कमाने वाली महिलाएं करती हैं महिपालपुर का रुख़

महिपालपुर अपने आप में अनोखा है. एक समय फलते-फूलते होटल व्यवसाय के अलावा, यहां पर कई पुरातत्वीय स्थल और जलाशय भी मौजूद हैं, जिनमें से सुल्तान गढ़ी को दिल्ली का पहला इस्लामी मक़बरा माना जाता है.

रंगपुरी पहाड़ी स्लम भी इसी क्षेत्र में आता है, जहां बहुत से वो लोग रहते हैं, जो नेशनल हाईवे के इस हिस्से पर स्थित, स्पाज़ और होटलों में काम करते हैं.

लंबे काम के घंटे, कम वेतन और खोया हुआ व्यवसाय – महिपालपुर के वर्कर्स और व्यवसाय के मालिक कोविड के प्रभाव के बारे में बताते हुए | रेवथी कृष्णन | दिप्रिंट.

लेकिन ये उस मास्टर प्लान का हिस्सा नहीं है, जिसमें दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने शहर के विकास का रोडमैप तैयार किया है.

पहला मास्टर प्लान 1962 में, दिल्ली विकास अधिनियम 1957 के अंतर्गत लागू किया गया था. हर एक प्लान 20 वर्ष की अवधि के लिए तैयार किया जाता है.

महिपालपुर का अधिकतर हिस्सा उस ज़मीन पर पड़ता है, जिसे लाल डोरा कहते हैं, जो आज़ादी से पहले ग़ैर-कृषि कार्यों के लिए थी, और खेती की भूमि से अलग थी. लाल डोरा इलाक़े किसी नगर या शहरी विकास प्राधिकरण के कार्य क्षेत्र में नहीं आते. लाल डोरा ज़मीन में शहरी और ग्रामीण गांव शामिल थे, जैसे महिपालपुर, बसंत गांव, कंझावला और नजफगढ़ आदि.

कंझावला को 2021 के मास्टर प्लान में शामिल कर लिया गया.

महिपालपुर की लगभग हर गली में, कम से कम चार-पांच पार्लर हैं और उन सब के पास सिर्फ नुक़सान की कहानियां हैं. लॉकडाउन के दौरान कारोबार ठप हो जाने से, बहुत से पार्लर किराया देने में जूझ रहे हैं, जबकि दूसरों ने हथियार डाल दिए हैं.

गदाइवाल जैसी बहुत सी महिलाओं को अपने परिवार का पेट पालने का ज़िम्मा लेना पड़ा है, क्योंकि लॉकडाउन की वजह से उनके मर्दों की नौकरियां ख़त्म हो गईं. बबिता चौहान जो महिपालपुर की ऐसी ही एक गली में ब्राइट ब्यूटी सलून की मालिक हैं, मुश्किल से अपना गुज़र कर पा रही हैं. उनके स्टाफ की संख्या चार से एक रह गई है, और जिनको उन्होंने जाने दिया उन्हें आमदनी के दूसरे साधन तलाशना मुश्किल हो रहा है.

43 वर्षीय बबिता ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी अधिकतर ग्राहक ऐसी महिलाएं थीं, जो एयरपोर्ट पर और एयरलाइन्स के साथ काम करतीं थीं, और जिन्होंने ज़ाहिर है कि अब आना बंद कर दिया है. अब जो ग्राहक आती हैं वो अब हमसे सौदेबाज़ी करती हैं. वो हमारी किसी भी सेवा के लिए पूरी रक़म अदा नहीं करना चाहतीं’.

उनकी मासिक आमदनी 70,000-80,000 रुपए से गिरकर, सिर्फ 10,000 रुपए रह गई है. उन्हें किराया और वेतन देने के लिए कम से कम 20,000 चाहिए होते हैं, ताकि कारोबार को चालू रख सकें. आज भी वो नुक़सान में चल रही हैं, स्टाफ को समय पर पैसा नहीं दे पा रही हैं, और उन्हें अपनी जेब से पैसा ख़र्च करना पड़ रहा है.

‘बहुत मुश्किल रहा है लेकिन मैं किसी तरह काम चला पा रही हूं. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो पता नहीं मैं अपने परिवार का ख़याल कैसे रख पाऊंगी’.

23 वर्षीय कामिनी दूसरी लहर आने से पहले ही बेरोज़गार हो गई थी और उसके बाद से आमदनी का कोई दूसरा ज़रिया नहीं ढूंढ़ पाई है. ‘मैं बबिता दीदी के नीचे काम सीख रही थी, जिसके बाद उन्होंने मुझे काम पर रख लिया. मैंने एक साल तक उनके लिए काम किया’.

वो अपने परिवार में अकेली कमाने वाली है. उसने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं छोटी थी तभी मेरे पिता गुज़र गए थे. मुझे तो अब याद भी नहीं कि कब. उसके बाद से अपनी दो बहनों, छोटे भाई और मां की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर आ गई है’.

उसने कहा, ‘बहुत मुश्किल रहा है लेकिन मैं किसी तरह काम चला पा रही हूं. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो पता नहीं कि मैं अपने परिवार का ख़याल कैसे रख पाऊंगी’.

घटे हुए वेतन पर गदाइवाल ने आगे कहा: ‘हमारी मजबूरी है काम करना और उनकी मजबूरी है हमारा फायदा उठाना’.

23 वर्ष की एक और महिला सिद्धि पाण्डेय, जिसे अपने परिवार का वित्तीय बोझ अपने कंधों पर लेना पड़ा, बिहार के सीवान में 10वीं क्लास के छात्रों को साइंस पढ़ाया करती थी, जहां उसे 30,000 हज़ार रुपए मिलते थे. लेकिन लॉकडाउन के चलते स्कूल बंद होने से, उसके लिए अपने परिवार का पेट पालना मुश्किल हो गया. फिर इस साल अगस्त में वो महिपालपुर आ गई, जहां वो अब होटल आमंत्रण में एक अकाउंटेंट का काम करती है और उस राशि का एक तिहाई पाती है.

उसने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं छह बहनों के परिवार में सबसे छोटी हूं और मेरे कोई भाई या पिता नहीं हैं, इसलिए अपनी मां की ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ जाती है. 30,000 रुपए महीने से लेकर, अब मैं 10,000 रुपए कमा रही हूं. बहुत मुश्किल है, लेकिन यही वजह है कि अपनी मां को एक बेहतर जीवन देने के लिए मैं दिल्ली आ गई’.

महिपालपुर का होटल उद्योग- ख़राब मालिक के साथ काम चलाना

सिद्धि की कहानी अकेली नहीं है. उसके जैसे बहुत से लोगों को दूसरी लहर के बाद, काम की तलाश में अपने होम टाउंस को छोड़ना पड़ा है, ताकि अपने पेट पाल सकें.

ऐसा ही एक व्यक्ति है 19 वर्षीय अक्षय कश्यप. अक्षय के पिता उस समय गुज़र गए थे, जब वो केवल चार साल का था, और उसकी मां कानपुर में एक टेलर है. लेकिन, कोविड ने उनकी सारी कमाई और काम की उम्मीद ख़त्म कर दी.

कोई काम या पेट भरने कोई ज़रिया न देख, 12वीं की अपनी परीक्षा देते ही, किशोर क़रीब 500 किलोमीटर का सफर तय करके राष्ट्रीय राजधानी आ गया.

‘मेरा दिन सुबह 9 बजे शुरू होता है और रात 9 बजे ख़त्म होता है. मैं चाहता हूं कि ये स्थायी हो जाए, ताकि मैं अपनी मां का ख़याल रख सकूं. मेरा सपना बीएससी करने और इंजीनियर बनने का है’.

अक्षय को महिपालपुर के एक होटल में वेटर की नौकरी का वादा किया गया, जहां उसे 8,000 रुपए महीना मिलने थे. एक सामान्य दिन में क़रीब 12-14 घंटे का काम होता था. लेकिन, जब महीना ख़त्म हुआ तो होटल ने कथित तौर पर उसे केवल पूरी रक़म का एक छोटा सा हिस्सा दिया, सिर्फ 3,000 रुपए.

फिर दूसरी लहर आ गई और अपनी जान के डर से, कश्यप अपनी मां की देखभाल के लिए कानपुर वापस चला गया, जिसके सर और गरदन में गांठें हैं, और परिवार के पास नियमित डॉक्टरी जांच के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं.

जैसे ही चीज़ें खुलनी शुरू हुईं, कश्यप काम करने और अपना बक़ाया पैसा लेने के लिए महिपालपुर लौट आया. लेकिन उसे 8,000 रुपए में से केवल 2,000 और दिए गए. अब ये किशोर एक दूसरे होटल में रूम सेवा कर रहा है, और वेटर का भी काम करता है.

कश्यप ने कहा, ‘इस होटल ने भी मुझसे 8,000 रुपए का वादा किया है, और वो मेरे खाने और रहने का भी ख़र्च उठाते हैं’. कश्यप ने आगे कहा, ‘मेरा दिन सुबह 9 बजे शुरू होता है, और रात 9 बजे ख़त्म होता है. मैं चाहता हूं कि ये स्थायी हो जाए, ताकि मैं अपनी मां का ख़याल रख सकूं. मेरा सपना बीएससी करने और इंजीनियर बनने का है. मैंने 12वीं क्लास में फिज़िक्स भी ली थी’.

अक्षय तो इस उद्योग में नौसीखिया है, लेकिन होटल इंडस्ट्री के बहुत से अनुभवी लोगों को भी, कोविड के सामने अपना आगे का रास्ता खोजना मुश्किल हो रहा है.

राजेंद्र भंडारी, जो होटल पोर्टलैण्ड में फ्रंट डेस्क पर बैठते हैं, दो दशकों से अधिक से होटल उद्योग में है. भंडारी पहले पहाड़गंज के होटलों में काम करते थे, लेकिन दूसरी कोविड लहर के बाद उन्हें महिपालपुर में काम मिल गया.

लॉजिसटिक्स की गड़बड़ी, तय समय और छुट्टियां न होना और वेतनों में भारी कटौतियों की आशंका से, भंडारी अब इस काम को ही छोड़ने पर ग़ौर कर रहे हैं.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘एक ऑफ लेने के लिए मुझे अगले दिन 24 घंटे की शिफ्ट करनी पड़ती है. हमारे कोई साप्ताहिक ऑफ नहीं होते, कोई राष्ट्रीय छुट्टियां नहीं होतीं और अगर मैं 24 घंटे की शिफ्ट न करूं, तो सैलरी कट जाती है. इस लाइन में 80 प्रतिशत लोग, हर रोज़ कम से कम 12 घंटे काम करते हैं’.

अगर कुछ लोग लाइन छोड़ने की सोच रहे हैं, तो कुछ को मजबूरन शोषक मालिकों को झेलना पड़ता है.

मनोज कुमार जो एक होटल के फ्रंट डेस्क पर काम करता था, ने बताया कि कई बार उसे या तो वेतन नहीं मिला या उससे कम मिला जितना वादा किया गया था.

उसने कहा, ‘मुझे क़रीब 40,000 रुपए का बक़ाया नहीं मिला है. जब मैं मालिक के पास जाता हूं तो वो मुझे धमकी देता है. कुछ लोगों ने तो अपने बक़ाया पैसे लेने के लिए पुलिस तक को बुलाया है. ये जानते हुए भी कि मेरा बॉस बुरा है, मेरे पास उससे काम मांगने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है. मुझे अपना परिवार पालना है’.


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घाटा उठा रहे होटल मालिक

अगर इन होटलों में काम कर रहे कर्मचारी बुरे दौर से गुज़र रहे हैं, तो इनके मालिक या इन्हें किराए पर लेकर चला रहे लोग भी, तक़रीबन उसी नाव में सवार हैं.

लॉकडाउन को दौरान महीनों तक बंद पड़े होटलों को फिर से खोलना, काफी महंगा काम साबित हुआ. रेट कम करने के बाद भी ऑक्युपेंसी बेहद कम बनी हुई है.

उन्होंने कहा, ‘मैं सोचा करता था कि मैं बॉस हूं, लेकिन कोविड ने मुझे अहसास करा दिया कि मैं केवल एक दिहाड़ी मज़दूर हूं’.

महिपालपुर में दो होटलों के मालिक और महिपालपुर होटल एसोसिएशन के सदस्य, बॉबी लोहिया ने कहा कि सिर्फ अपने स्टाफ को वेतन देने, और बिजली बिल भरने के लिए उन्हें लोन लेना पड़ा, और फिलहाल वो घाटे में काम कर रहे हैं’.

उन्होंने कहा, ‘मैं सोचा करता था कि मैं बॉस हूं, लेकिन कोविड ने मुझे अहसास करा दिया कि मैं केवल एक दिहाड़ी मज़दूर हूं’.

लोहिया ने कहा कि क़र्ज़ो पर बढ़ते ब्याज, होटलों में बेहद कम ऑक्युपेंसी और सरकार से कोई राहत न मिलने से होटल एसोसिएशन बिल्कुल बेअसर होकर रह गई है.

उन्होंने कहा, ‘महिपालपुर होटल एसोसिएशन बिल्कुल भी प्रभावी नहीं है. कोविड की वजह से किसी को भी समझ नहीं आ रहा कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए. बहुत सारे लोगों ने अपने परिजन और कारोबार खो दिए. हर कोई बेहद निराश है. हमारा कारोबार छोटे पैमाने का उद्योग है. हमारे आधे होटल अवैध हैं तो ऐसे में हम किसके पास जाकर मदद मांग सकते हैं’.

उन्हीं की बात का समर्थन करते हुए विशाल रेज़िडेंसी होटल के मालिक अशोक सहरावत ने बताया कि व्यवसाय को फिर से शुरू करना कितना मुश्किल है. क्योंकि ज़्यादातर होटल बेहद ख़राब हालत में हैं, ऊपर से बिज़नेस न होने की सूरत में भी स्टाफ को सैलरी देना है, और सुरक्षा के सामान्य मानदंड बनाए रखने हैं. इस सब के बीच सरकार या महिपालपुर होटल एसोसिएशन की ओर से कोई राहत नहीं है.

‘दिक़्क़त ये है कि होटल मालिकों और पट्टेदारों के बीच कोई एकता नहीं है. तो ऐसे हालात में हम सरकार के पास भी कैसे जाएं? लॉकडाउन के दौरान अपना घर चलाने और बच्चों की देखभाल करने के लिए, मुझे अपनी जमा पूंजी का सहारा लेना पड़ा. अब जाकर हम बमुश्किल अपना ख़र्च निकाल पा रहे हैं’.

अवैध निर्माण में राहत की कोई गुंजाइश नहीं

अवैध रूप से बने होने के कारण महिपालपुर के बहुत से होटल, जिन्होंने कोविड के दौरान भारी नुक़सान उठाया, राहत पैकेजेज़ का भी फायदा नहीं उठा पाए.

जून ने दिप्रिंट को बताया कि महिपालपुर के अधिकतर गेस्ट हाउस और होटल अवैध रूप से चल रहे थे और उनकी ‘गतिविधियां भी उचित नहीं थीं’, जिससे आसपास के निवासियों को परेशानी होती थी.

ये समझाते हुए कि अनुपालन की उपेक्षा कैसे की जाती है, जून ने कहा कि बहुत से होटल 12 मीटर से ज़्यादा ऊंचे हैं, लेकिन उन्होंने फायर महकमे की मंज़ूरी 12 मीटर से कम ऊंचाई के लिए ली हुई है, जिससे उन्हें फायर एनओसी लेने से छूट मिल जाती है. उन्होंने कहा कि बहुत से होटल बिल्डिंग उप-नियमों का भी उल्लंघन करते हैं.

जून ने कहा कि बहुत सी गलियों में जहां होटल बने हुए हैं, अग्निशमन की गाड़ी अंदर उनमें दाख़िल नहीं हो सकती और आग लगने की स्थिति में ये ‘घातक’ साबित हो सकती है.

महिपालपुर में संकरी गलियों और अवैध निर्माणों को आग के खतरे के तौर पर बताया गया है | रेवथी कृष्णन | दिप्रिंट.

जून ने कहा, ‘ये होटल आग के गोले पर बैठे हैं. मैंने पिछले कुछ वर्षों में एमसीडी, फायर महकमे और दिल्ली पुलिस को लिखा है, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. इस मुद्दे की अनदेखी हो रही है. अगर कोई आग लग जाती है, तो कौन ज़िम्मेवार होगा?’

ये पूछने पर कि इलाक़े के विधायक होने के नाते, वो इस मामले को बड़े स्तर पर क्यों नहीं उठा सके, जून ने दिल्ली में ‘प्राधिकरणों की बहुलता’ की बात कही, जिसमें दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के अंतर्गत आती है, तो नगर निगम उप-राज्यपाल के नीचे है.

जून ने कहा, ‘एमसीडी और दिल्ली पुलिस तो मेरे पत्रों का जवाब देने की भी परवाह नहीं करते. हालांकि मुख्य सचिव ने कहा है कि विधायकों के पत्रों का एक हफ्ते के भीतर जवाब दिया जाएगा. फायर महकमा भी मेरे पत्रों को नज़रअंदाज़ कर रहा है’.

दिप्रिंट उन पत्रों तक पहुंचा जो जून ने दिसंबर 2020 के बाद से, दिल्ली के गृहमंत्री सत्येंद्र जैन, उपायुक्त (पुलिस) दक्षिण पश्चिमी दिल्ली, और फायर विभाग को लिखे हैं, जिनमें यहां के बहुत से होटलों में आग के ख़तरे और महिपालपुर में कथित अवैध गतिविधियों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया था.

विधायक ने ये भी कहा कि सभी होटल कथित तौर पर, बोरवेल्स के ज़रिए दिल्ली जलबोर्ड से पानी खींच रहे थे. उन्होंने ये भी कहा कि बीएसईएस उन्हें अवैध बिजली कनेक्शंस उपलब्ध करा रही है.

उन्होंने कहा, ‘मैं आग लगने की आशंका से चिंतित हूं. वो बहुत घातक साबित होगी. फायर वाहन गलियों के अंदर नहीं घुस सकते, क्योंकि वो बंद और भीड़ भरी हैं. इन होटलों की वजह से हाईवे पर ट्रैफिक की आवाजाही बाधित होती है. और उसके ऊपर से पुलिस उचित कार्रवाई नहीं कर रही है. उसकी वहां पर अवैध गतिविधियां चलाने वालों के साथ मिलीभगत है’.

टिप्पणी के लिए संपर्क किए जाने पर, दक्षिण दिल्ली नगर निगम के मेयर मुकेश सूर्यान ने महिपालपुर के होटलों को राहत या उनकी ‘अवैध हैसियत’ पर किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया.

उन्होंने इस सवालों को भी नज़रअंदाज़ कर दिया कि क्या लॉकडाउन के दौरान होटल उद्योग की सहायता के लिए कोई प्रयास किए गए. उन्होंने कहा, ‘सिर्फ महिपालपुर के होटल मालिक ही नहीं, बल्कि महामारी ने हर किसी का जीना मुश्किल कर दिया था’.

लेकिन, उन्होंने दिप्रिंट से ये ज़रूर कहा कि इस क्षेत्र (महिपालपुर) को 2041 में ही दिल्ली के मास्टर प्लान में शामिल किया जाएगा.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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