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सत्यपाल मलिक—पार्टी बदलने वाले, लोहियावादी, अरुण जेटली के दोस्त और ऐसे राज्यपाल जो शांत नहीं बैठते

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के तौर पर यह दावा करने कि ‘अंबानी’ और ‘आरएसएस से जुड़े व्यक्ति’ से संबंधित फाइलों को क्लियर करने के लिए उन्हें 300 करोड़ रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई थी, से लेकर किसान आंदोलन के समर्थन तक मलिक के बयानों ने भाजपा की नाराजगी बढ़ाई ही है.

मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक । फाइल फोटोः प्रवीण जैन । दिप्रिंट

नई दिल्ली: उन्हें एक अलग अंदाज वाला राज्यपाल कहा जा सकता है. ऐसे समय में जबकि कई राज्यों के राज्यपालों पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का पक्ष लेने का आरोप लगता रहता है, मेघालय के राज्यपाल सत्य पाल मलिक विवादों को जन्म देने की अपनी आदत के कारण केंद्र की आंखों का कांटा बनते जा रहे हैं.

यह दावा किए जाने कि जब वह जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के पद पर थे उन्हें ‘अंबानी’ और ‘आरएसएस से जुड़े व्यक्ति’ से संबंधित फाइलों को क्लियर करने के लिए 300 करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी, से लेकर मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ जारी किसान आंदोलन के खुले समर्थन तक और गोवा में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों संबंधी मलिक के सार्वजनिक बयानों ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया है.

शिलांग का राजभवन पिछले चार वर्षों के दौरान उनका चौथा पड़ाव है, जहां वह बतौर राज्यपाल तैनात रहे हैं—अगर पांचवा जोड़ना चाहें तो यह ओडिशा है जिसका 2018 में कुछ महीनों के लिए उनके पास अतिरिक्त प्रभार था.

मलिक ने श्रीनगर (अगस्त 2018 से अक्टूबर 2019) रवाना से पहले बतौर राज्यपाल अपने कार्यकाल की शुरुआत पटना के राजभवन (जहां वह सितंबर 2017 और अगस्त 2018 के बीच रहे) से की थी. विशेष दर्जा खत्म किए जाने और दो केंद्रशासित क्षेत्रों में विभाजन—जम्मू-कश्मीर और लद्दाख—जैसे महत्वपूर्ण घटनाक्रम के दौरान वह कश्मीर में ही थे. इसके बाद पिछले वर्ष अगस्त में मेघालय के राज्यपाल के रूप में शिलांग भेजे जाने से पहले उन्हें गोवा का राज्यपाल (नवंबर 2019-अगस्त 2020) बनाया गया.

आखिर ऐसा क्या है जो मलिक को एक राजभवन से दूसरे राजभवन में स्थानांतरित कराता रहता है?

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लोक दल नेता हरिंदर सिंह मलिक के मुताबिक, ‘वह मुझसे वरिष्ठ हैं, मैं उन्हें बड़े भाई की तरह मानता हूं. मुझे एक बार मेरठ में उनका भाषण सुनने आने के लिए 55 किलोमीटर की यात्रा करना आज भी याद है (जब मलिक एक छात्र नेता थे). उस समय भी वह बिना किसी लाग-लपेट के खुलकर अपनी बात कहते थे. लेकिन वह हमेशा सबके प्रति बहुत विनम्र रहते थे. मैं तो यही कहूंगा कि वह उस समय एक बेहतर वक्ता थे.’

सत्य पाल मलिक ने मेरठ विश्वविद्यालय में एक छात्र नेता के तौर पर शुरुआत की और एक वक्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई. वह 1974 में यूपी में विधायक बने और 1980 और 1989 के बीच दो बार राज्यसभा सदस्य रहे. 1989 और 1991 के बीच उन्होंने लोकसभा में अलीगढ़ का प्रतिनिधित्व किया.

उन्हें राजनीतिक या वैचारिक तौर पर किसी खांचे में रखना मुश्किल है. एक स्व-घोषित लोहियावादी (राम मनोहर लोहिया के अनुयायी) मलिक ने अपनी राजनीतिक निष्ठा कई बार बदली है और लोक दल, कांग्रेस, जनता दल, समाजवादी पार्टी में रहने के बाद आखिर में भाजपा में पहुंचे थे. दिवंगत नेता अरुण नेहरू के करीबी दोस्त रहे मलिक ने 1980 के दशक में बोफोर्स घोटाले के दौरान कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था. राज्यपाल के तौर में अपना कार्यकाल शुरू करने से पहले 75 वर्षीय जाट नेता ने 13 साल भाजपा में बिताए.

मलिक ने पिछले रविवार को जयपुर में ग्लोबल जाट समिट के दौरान ‘दिल्ली के नेताओं’ पर निशाना साधते हुए कहा कि वे एक जानवर के मरने पर तो शोक संदेश जारी कर देते हैं लेकिन नए कृषि कानूनों के खिलाफ जारी आंदोलन के दौरान करीब 600 किसानों की मौत पर मौन साध रखा है. उन्होंने यह कहते हुए किसानों के समर्थन में खड़े न होने पर भी नेताओं की आलोचना की कि उनमें से तमाम किसान पृष्ठभूमि से ही आते हैं.

मलिक ने ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अपनी सेवानिवृत्ति के बाद पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल ए.एस. वैद्य की हत्या की घटना को याद दिलाते हुए पार्टी को आगाह किया और कहा, ‘उन पर बल प्रयोग न करें, दूसरा, उन्हें खाली हाथ न लौटाएं क्योंकि वे भूलते नहीं हैं, वे सौ साल तक नहीं भूलते हैं.’

जाट नेता मोदी सरकार की तरफ से पेश तीन कृषि कानूनों को लेकर लगातार भाजपा पर निशाना साधते रहे हैं.

इससे पहले, मलिक ने चेताया था कि पंजाब, यूपी और उत्तराखंड में आगामी 2022 के राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा को किसान आंदोलन और गतिरोध हल नहीं करने की कीमत चुकानी पड़ेगी. उन्होंने यह भी दावा किया था कि भाजपा नेताओं को मेरठ, मुजफ्फरनगर और बागपत के गांवों में घुसने नहीं दिया जाएगा, जहां आंदोलन जोरों पर है.

मलिक के करीबी सहयोगियों में से एक, जो पिछले चार दशकों से अधिक समय से उनके साथ है, ने दिप्रिंट को बताया कि वह आदतन मुंहफट हैं, जिसके कारण अक्सर उन्हें कुछ पाने से ज्यादा ‘खोना’ पड़ा है.

हालांकि, राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख जयंत चौधरी, जिन्होंने बागपत से 2019 का संसदीय चुनाव लड़ा था, ने दिप्रिंट से कहा कि मलिक की बातों को अनुसना नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि वह जमीन से जुड़े नेता हैं और किसान समुदाय से आते हैं. बागपत मलिक का गृहनगर है.

चौधरी ने कहा, ‘उनके अपने लोग उन्हें बुला रहे हैं और वह ईमानदारी से मुद्दों पर अपनी बात रख रहे हैं और पार्टी से विपरीत रुख अपना रहे हैं, जिसकी सराहना की जानी चाहिए.’ साथ ही जोड़ा कि मलिक ने उनके (चौधरी के) दिवंगत दादा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के साथ भी काफी वक्त बिताया था, जो कि एक सम्मानित किसान नेता रहे हैं.


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राजनीतिक दल कोई भी हो, मलिक के लिए दोस्ती सबसे आगे

मेघालय के राज्यपाल के एक दूसरे सहयोगी ने बताया कि मलिक के मन में कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं रहता और उनके सभी बयान जनहित में दिए गए हैं और यह उन लोगों के साथ उनके व्यक्तिगत समीकरणों को प्रभावित करने वाले भी नहीं होते जिनके खिलाफ उन्होंने बोला हो.

सहयोगी ने कहा, ‘वह अब भी महबूबा मुफ्ती को अपनी बेटी की तरह मानते हैं.’

जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल ने पहले आरोप लगाया था कि मुफ्ती रोशनी योजना के लाभार्थी थे, जिसका उद्देश्य राज्य में सरकारी जमीन पर बसे लोगों को मालिकाना अधिकार देना था. मुफ्ती ने अक्टूबर 2021 में उन्हें एक कानूनी नोटिस भेजा था, जिसमें उनकी कथित ‘अपमानजनक टिप्पणी’ के लिए 10 करोड़ रुपये का हर्जाना मांगा गया था.

मलिक ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1974 में की थी, जब चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले भारतीय क्रांति दल के सदस्य के तौर पर यूपी विधानसभा में विधायक चुने गए. छह साल बाद उन्हें चरण सिंह की ही अगुवाई वाले लोक दल की तरफ से राज्यसभा सदस्य नामित किया गया.

1984 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 1986 में फिर राज्यसभा सदस्य बने. फिर बोफोर्स कांड के मद्देनजर 1987 में उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया.

हालांकि, निष्कासित कांग्रेस सदस्य सत्यदेव त्रिपाठी ने दिप्रिंट से कहा कि मलिक अरुण नेहरू से काफी प्रभावित थे. और उन्होंने दल तब बदला (कांग्रेस से लोक दल में) जब नेहरू ने कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया.

ऊपर उद्धृत मलिक के पहले सहयोगी ने दिप्रिंट को बताया कि उनके पास उस समय एक सांसद के तौर पर तीन साल से अधिक का कार्यकाल बचा था, लेकिन इस्तीफा देने से पहले दोबारा नहीं सोचा.

उन्होंने कहा, ‘उस समय उन्हें राजीव गांधी के बजाय सोनिया गांधी को लेकर ज्यादा परेशानी थी.’ हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि यह किस मुद्दे को लेकर थी.

1989 में मलिक लोक दल प्रत्याशी के रूप में लोकसभा के लिए चुने गए और वी.पी. सिंह के मंत्रिमंडल में केंद्रीय पर्यटन और संसदीय मामलों के राज्य मंत्री भी बने. उन्होंने 21 अप्रैल से 10 नवंबर, 1990 के बीच करीब सात महीने तक इस पद पर कार्य किया.

उनके राजनीतिक जीवन के संदर्भ में हरेंद्र सिंह मलिक ने बताया, ‘मलिक हमेशा एक समाजवादी नेता रहे हैं और चौधरी चरण सिंह की राजनीति के स्कूल के सदस्य रहे हैं, जो किसानों और मजदूरों के लिए खड़ा था और राष्ट्रवाद की बात करता था न कि क्षेत्रवाद की.

भाजपा के साथ उनकी पारी 2004 में शुरू हुई, और तबसे उन्होंने पार्टी के भीतर कई पदों पर कार्य किया है, जिसमें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (जो वह 2012 और 2014 में दो बार बने) भी शामिल है.

दूसरे करीबी सहयोगी ने बताया, ‘वह अटल बिहारी वाजपेयी से प्रेरित होकर भाजपा में शामिल हुए थे. और यहां तक कि एल.के. आडवाणी से भी उनकी खूब जमती थी. ऐसा कोई नहीं जिससे उनकी दोस्ती न रही हो. सभी राजनीतिक दलों में उनके दोस्त रहे हैं. चाहे अहमद पटेल हों, फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आजाद, एल.के. आडवाणी, संजय गांधी या इंदिरा गांधी.’

पहले सहयोगी ने बताया कि एक व्यक्ति जिसे मलिक खास तौर पर पसंद करते थे और अपने करियर के शुरुआती दिनों से ही प्रभावित थे, वे थे दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली. मलिक जब गोवा के राज्यपाल थे तो एक बार उन्हें भूटान के विदेशी गणमान्य व्यक्तियों की मेजबानी करनी थी. लेकिन उन्होंने जेटली के बेटे रोहन (जनवरी, 2020 में) की शादी में शामिल होने के लिए इस कार्यक्रम को नजरअंदाज कर दिया. मलिक के पहले सहयोगी ने घटनाक्रम को याद करते हुए कहा कि हालांकि इसने ‘दिल्ली के कई नेताओं’ को नाराज कर दिया लेकिन मलिक ने स्पष्ट तौर पर कहा कि दोस्ती उनके लिए ज्यादा मायने रखती है.

‘कम से कम कोई यह तो नहीं कह सकता कि मैं उनके लिए खड़ा नहीं हुआ’

जैसा कि उनके कई करीबी सहयोगियों और स्टाफ सदस्यों ने दिप्रिंट को बताया कि मेघालय के राज्यपाल को इस बात की कोई चिंता नहीं रहती कि उनकी मुखरता उन्हें या उनके करियर को किस तरह प्रभावित करेगी. एक तीसरे सहयोगी ने कहा, ‘यह कुछ इसी तरह से है जैसे कोई अपना इस्तीफा अपनी जेब में रखकर चलता हो (शाब्दिक तौर पर नहीं).’

मार्च 2020 में बागपत में मलिक ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि कश्मीर में राज्यपालों के पास कोई काम नहीं होता और वे केवल गोल्फ खेलते हैं और शराब पीते हैं. 2019 में जब वह कश्मीर के राज्यपाल थे, उन्होंने घाटी में सक्रिय आतंकियों को ‘लड़के’ करार दिया था और उनसे कहा था कि पुलिसकर्मियों को मारना बंद करें और इसके बजाय भ्रष्ट राजनेताओं के पीछे पड़ें. अक्टूबर 2021 में एक टीवी न्यूज चैनल को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि गोवा में भाजपा की प्रमोद सावंत सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त थी और राज्य में कोविड संकट से निपटने में अक्षम थी.

उसी इंटरव्यू में उन्होंने दावा किया था कि उन्हें जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के पद से इसलिए हटाया गया क्योंकि उन्होंने भूमि सौदों को मंजूरी नहीं दी थी, जिसके लिए उन्हें 300 करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी, और जिससे एक कारोबारी और दूसरे आरएसएस के करीबी एक नेता को फायदा होता. उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से सलाह लेने के बाद दो भूमि सौदों पर हस्ताक्षर नहीं किए, जिन्होंने उन्हें ऐसा नहीं करने के लिए कहा था.

यह पूछे जाने पर कि मलिक किसान आंदोलन को लेकर इतने मुखर क्यों हैं, तीसरे सहयोगी ने दिप्रिंट को बताया कि मलिक ने उनसे कहा था- ‘कम से कम जब मैं घर लौटूंगा तो कोई यह तो नहीं कह सकता कि मैं उनके लिए खड़ा नहीं हुआ या भाजपा के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ. मुझे समुदाय में सम्मान मिलेगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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