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बजट 2021 में बीमारी के इलाज के साथ उनके रोकथाम पर भी जोर दिया गया है, जो एक अच्छी बात है

भारत में रोगों के बोझ का ताल्लुक गरीबी से है लेकिन वह कारणों को हमेशा आर्थिक वृद्धि में ढूंढता रहा है, जो स्वास्थ्य के लिए उभरते नये जोखिमों पर ध्यान नहीं देता रहा है.

चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए इस बार पिछले साल के मुकाबले 137 प्रतिशत ज्यादा आवंटन करके यह परिभाषित कर दिया कि स्वास्थ्य और कुशलता के मामले में रोगों के रोकथाम तथा उपचार के उपाय बजट 2021-22 का पहला स्तंभ है.

कुछ विशेषज्ञ इस परिभाषा की आलोचना कर रहे हैं और उपचार के उपायों पर ज्यादा खर्च किए जाने के पक्ष में हैं. एक अर्थशास्त्री का कहना है कि जनता की भलाई के लिए किए गए खर्च से उनके स्वास्थ्य में सुधार होता है तो इसे ‘पैसा वसूल’ माना जाएगा.

बीमार पड़ने वाला व्यक्ति इलाज कराने के बारे में सबसे आखिर में सोचता है, इसलिए सरकार बीमार पड़ने की संभावना ही खत्म कर दे तो इसके बड़े लाभ हो सकते हैं. इसके लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ-साथ दूसरे महकमों में भी समानांतर नीतियां लागू करनी होंगी.

यह इस साल के बजट में नज़र आता है, जिसमें न केवल स्वास्थ्य मंत्रालय बल्कि दूसरे महकमों के कार्यक्रमों को मजबूती देने पर ज़ोर दिया गया है, जिनमें सबको पानी पहुंचाने, कचरा निपटारे की व्यवस्था देने और स्वच्छ हवा उपलब्ध कराने की बातें शामिल हैं.


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पानी, सफाई और पोषण

रोग निवारक पहल के लिए नयी प्रधानमंत्री स्वस्थ भारत योजना की घोषणा की गई है और इसके लिए छह साल में 64,180 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं ताकि रोग निवारण की व्यवस्था को सभी स्तरों पर विकसित किया जा सके.

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बेहतर परिणामों के लिए पेयजल तथा स्वच्छता विभाग के लिए आवंटन 21,518 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 60,030 करोड़ रुपए कर दिया गया है. यह स्वास्थ्य एवं जनकल्याण खाते के लिए किया गया है जिससे परिणामों पर सीधा असर पड़ेगा, चाहे इससे स्वास्थ्य मंत्रालय सीधे जुड़ा हो या नहीं.

मौजूदा जानकारियों के मुताबिक पानी और सफाई में सुधार से स्वास्थ्य के मामले में बेहतर नतीजे मिलेंगे. बेहतर सफाई से शिशु मृत्यु दर के साथ-साथ शिशु रुग्णता में भी कमी आती है और देश पर रोगों का बोझ घटता है. यह स्वच्छ भारत मिशन से जाहिर है, जिसके चलते पांच साल से कम के बच्चों में पेचिश और मलेरिया के मामलों में कमी आई है. इसके साथ ही मृत शिशु के प्रसव, या 2.5 किलो से कम के शिशु के जन्म लेने के मामले भी कम हुए हैं. इस साल शहरी स्वच्छ भारत मिशन-2 को अगले पांच साल के लिए 1,41,678 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं.

पोषण के मामले में, पूरक पोषण कार्यक्रम और पोषण अभियान का आपस में विलय कर दिया गया है और मिशन पोषण-2 शुरू किया गया है ताकि 112 जिलों में पोषण के स्तर में सुधार हो. सभी 4,378 शहरी स्थानीय निकायों में सबको जल आपूर्ति के लिए जल जीवन मिशन (शहरी) की घोषणा की गई है. इसे 2,87,000 करोड़ रुपए के बजट से पांच साल में पूरा किया जाएगा.

मुफ्त में रसोई गैस देने की एलपीजी उज्ज्वला स्कीम का लाभ एक करोड़ लोगों को पहुंचाने की योजना बनाई गई है, हालांकि घरों को इसकी सप्लाई का लक्ष्य 98 प्रतिशत पूरा कर लिया गया है.

अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि पानी और सफाई की तरह रसोई के स्वच्छ ईंधन से बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार होता है. गहरों में जैविक ईंधन के प्रयोग से खासकर सांस की बीमारी के चलते शिशु मृत्यु ज्यादा होती है. रोकथाम के इन उपायों को स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चों में जोड़ा जा सकता है क्योंकि इनके कारण लोगों के स्वास्थ्य में सुधार होता है.

घरों के बाहर की हवा में प्रदूषण को कम करने के उपायों के लिए नये बजट में 2,217 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. यह सही दिशा में उठाया गया कदम है. अनुमान हैं कि भारत में कुल मौतों में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का योगदान 2019 में 18 प्रतिशत रहा और आर्थिक नुकसान में उसका योगदान 1.4 प्रतिशत रहा.

कोविड-19 के अलावा वायु प्रदूषण भारत में स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरा है, जबकि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में 14 शहर भारत के ही हैं.

भारत में वायु प्रदूषण का असर रोगों के बदलते स्वरूप में प्रकट हो रहा है. समय से पहले प्रसव में नवजात शिशुओं की मौतों में 2005-15 के बीच 39.5 प्रतिशत की कमी आई, लेकिन औचक दिल के मरीजों की संख्या इस अवधि में 11.1 प्रतिशत बढ़ गई और यह अकाल मृत्यु के और कुल मौतों के सबसे बड़े कारण के रूप में उभरा है. प्रदूषण से जुड़े दूसरे रोग भी बढ़ रहे हैं, जिनका इलाज लंबा और महंगा होता है. यह रोग के रोकथाम के उपायों को और अधिक जरूरी बना देता है.


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स्वास्थ्य से संबंधित बोझ के दो रूप

इस तरह, भारत स्वास्थ्य के मामले में दो तरह की समस्याओं का सामना कर रहा है.

पहला मामला गरीबी से जुड़ा है, मसलन गंदगी, गंदा पानी, कुपोषण और दूसरा तेज विकास के कारण उभरे नये खतरे.

पिछले 35 वर्षों में भारत जीडीपी में प्रति वर्ष 6.3 प्रतिशत की और 11 साल में दोगुनी वृद्धि दर्ज करता रहा है. इसके कारण हुए विकास ने स्वास्थ्य संबंधी कुछ खतरों को कम किया, तो कुछ को बढ़ा दिया. जीडीपी में वृद्धि से एक ओर आय बढ़ी और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने की क्षमता भी बढ़ी, तो दूसरी ओर असुरक्षित मकानों, अनियोजित शहरों, नाली और कचरे की खराब व्यवस्था, कूड़ा निपटारे की निष्क्रिय व्यवस्था, वायु और जल प्रदूषण ने स्वास्थ्य के लिए नये खतरे पैदा किए.

ऐतिहासिक रूप से तो भारत पर रोगों का बोझ, मसलन शिशुओं और माताओं की ऊंची मृत्यु दरें, गरीबी की देन रही है. 1946 में गठित भोरे कमिटी के बाद से स्वास्थ्य नीति का ज़ोर रोग निवारक स्वास्थ्य सेवा पर रहा. लेकिन भारत पर आज रोगों का जो बोझ बढ़ा है उसका संबंध ऐसे विकास से है जिसमें स्वास्थ्य के लिए उभर रहे नये खतरों पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है.

दोनों पर ध्यान देने की जरूरत है, और रोकथाम की नीति से दोनों को फायदा पहुंचेगा.

(इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर और अर्थशास्त्री हैं. संहिता सपटनेकर माइक्रोइकोनॉमिक्स में Universidad de Navarra (स्पेन) से पीएचडी की छात्रा हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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