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‘फॉर द वुमेन, बाय द वुमेन’ – कैसे बुनाई की आदत ने बनाया खेतीखान गांव की महिलाओं को बिजनेस वुमेन

हिमालयन ब्लूम्स की महिलाएं अब अपने काम में इतनी निपुण हो चुकी है कि अब बिना किसी मेंटर के खुद से इस कंपनी को आगे बढ़ा रही हैं.

ग्रुप में बैठकर बुनाई करती हिमालयन ब्लूम्स की महिलाएं | फोटो: इंस्टाग्राम @himalayanblooms

नई दिल्ली: जब मैं उत्तराखंड के चंपावत जिला के खेतीखान गांव पहुंची तो वहां का नजारा बिलकुल ही अलग था. वहां जिधर देखो महिलाएं सिर्फ और सिर्फ बिनाई करती हुई नजर आ रही थीं. वो सिर्फ खाली समय में नहीं बल्कि चलते- फिरते, पार्टी फंक्शन में भी बुनाई करती हुई नजर आ रही थीं. हर जगह इतनी बुनाई करती हुईं महिलाओं ने मुझे बार बार चौंकाया..आखिर माजरा क्या है.

फिर मैंने इनसे बातचीत की तो पता चला कि ये महिलाएं अपने डेलीरूटीन के काम काज के बीच हर समय बिनाई करती हैं और ठंड में ये स्पीड थोड़ी बढ़ जाती है. लेकिन इन गांव की महिलाओं ने मुझे एक नई राह दिखा दी थी.

उत्तराखंड के चंपावत जिला के खेतीखान गांव में मैं गई तो अपने यूथ फॉर इंडिया फ़ेलोशिप कार्यक्रम के लिए थी लेकिन इस कार्यक्रम के लिए मेरा आइडिया पूरी तरह से फेल हो गया और मुझे वहां तीन महीने रहकर किसी एक और टॉपिक या फिर आईडिया पर काम करना था.

तब खेतीखान की महिलाओं पर केंद्रित होकर ही मैंने काम करने की ठानी. 12 महिलाओं को साथ जोड़कर मैंने ग्रुप बनाया और अपना प्रोजेक्ट शुरू किया. पहले मैंने उनसे बिनाई सीखी और फिर जन्म हुआ कंपनी हिमालय ब्लूम्स का. आज इस कंपनी से 200 से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हैं और इस व्यवसाय को आगे बढ़ा रही हैं. हमारी कंपनी ऊन के खिलौनों से लेकर स्वेटर तक हर वो चीज बना रहीं हैं जो आप सोच सकते हैं.

प्रतिभा कहती हैं, “मैंने अपनी जर्नी 2014-15 में यूथ फॉर इंडिया से शुरू की.”

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वह आगे कहती हैं, “हिमालयन ब्लूम्स को शुरू करने का ऐसा कोई प्लान नहीं था, मैं सिर्फ अपने फ़ेलोशिप के दौरान इन महिलाओं के साथ काम रही थी और उन्हें ये सिखाना चाहती थी कि वो अपनी सिलाई-बिनाई की कला को रोजगार बना कर पैसे भी कमा सकती है. उनकी कला को धीरे-धीरे बेहतर से और बेहतर बनाते बनाते ही इस सफर और हिमालयन ब्लूम्स की शुरुआत हुई.”

प्रतिभा ने अपने आठ साल पुराने सॉफ्टवेयर इंजीनीयरिंग की नौकरी सिर्फ इसलिए छोड़ी थी क्योंकि उन्हें ग्रामीण भारत के लोगों के लिए कुछ करना था. जब एसबीआई फाउंडेशन के यूथ फॉर प्रोग्राम के लिए वो उत्तराखंड गईं तो वह 30 साल की थीं. कर्नाटक से होने के कारण उन्हें भाषा से जुड़ी परेशानियां भी झेलनी पड़ी लेकिन रूरल इंडिया के लिए काम करने के उनके जज्बे ने सभी बाधाओं का हल ढूंढ़ निकाला.

शुरू शुरू में महिलाओं को घर से बाहर निकलने और उन्हें सिलाई-बुनाई को एक व्यवसाय की तरह देखने के लिए प्रेरित करने में लगभग दो से तीन साल लग गए. वह बताती हैं, “कई बार मुझे गांव गांव जाकर उन्हें बुलाना पड़ता था. लेकिन अब न केवल आस-पास की महिलाएं यहां आकर काम करती हैं बल्कि दूर दूर के गांवों से भी महिलाएं आती हैं और हमसे रॉ मटेरियल लेकर जाती हैं, फिर काम पूरा होने पर बनाई गई चीज़े सबमिट करने आती हैं.”

हिमालयन ब्लूम्स की महिलाओं द्वारा बुने गए ऊन के खिलौने | फोटो: इंस्टाग्राम @himalayanblooms

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फॉर द वुमेन, बाय द वुमेन

प्रतिभा कहती हैं कि हिमालयन ब्लूम्स “फॉर द वुमेन, बाय द वुमेन” के लिए शुरू किया था और जब इससे ज्यादा से ज्यादा महिलाएं जुड़ती हैं और अपना काम खुद करती है तो ये विज़न सफल होता नज़र आता है. वो आगे कहती हैं कि मैं शुरू से ही चाहती थी कि इन महिलाओं का कोई बॉस न हो नाही इन्हें कोई थर्ड पार्टी कंट्रोल करें, हमारा विज़न इन महिलाओं को लीडर बनाना था और अब ऐसा हो रहा है.

हिमालयन ब्लूम्स की महिलाएं अब अपने काम में इतनी निपुण हो चुकी है कि अब बिना किसी मेंटर के खुद से इस कंपनी को आगे बढ़ा रही हैं. आज इसके इंस्टाग्राम अकाउंट पर 2600 से ज्यादा फॉलोवर्स हैं और ये महिलाएं अपने द्वारा बनाए गए सामान का खुद वीडियो और फोटो लेकर सोशल मीडिया में डालती हैं. इसकी मार्केटिंग, फंडिंग सोशल मीडिया खुद संभालती है.

प्रतिभा की जर्नी में एसबीआई फाउंडेशन का एक बहुत बड़ा रोल रहा क्योंकि उसी की वजह से वो खेतीखान गांव गईं और महिलाओं की इस कला के बारे में जान पाईं. उन्होंने कहा कि यूथ फॉर इंडिया प्रोग्राम की खासियत यह है कि वो फ़ेलोशिप के लिए हमेशा आपको दूसरे राज्यों में भेजते हैं ताकि आप ज्यादा नई चीज़ सीख सके और लोगों को सिखा सकें.

वह कहती हैं हम इस तरह से भी गांव के लोगो के लिए और उनके साथ मिलकर काम कर सकते है.

एसबीआई फाउंडेशन के अंडर चलने वाला यूथ फॉर इंडिया एक अलग तरह का फेलोशिप चलाता है. जिसमें पढ़े लिखे शहरी युवा 13 महीनों तक भारत के गांवों में वहां के विकास के लिए विभिन्न परियोजनाओं पर एनजीओ के साथ मिलकर काम करते है.

प्रतिभा कहती हैं अब में केवल एक एडवाइजरी की तरह इन महिलाओं की मदद करती हूं और साल में एक दो बार इनसे मिलने जाती हूं बाकि सारा काम ये खुद ही संभाल लेती है.

वहीं सिद्धार्थ भी 2020-21 बैच के फेलो हैं उनका कहना है कि वो मैकेनिकल इंजीनिरिंग की ग्रेजुएशन के दौरान एक कंपनी में काम तो कर रहे थे लेकिन उन्हें हमेशा लगता था कि उन्हें लोगों के साथ उनके लिए काम करना हैं.

उन्होंने कहा कि “मुझे अपनी लाइफ में मशीनों का शोर नहीं बल्कि लोगों की आवाज़ सुननी थी. मुझे हमेशा से रूरल इंडिया के लिए काम करना था और प्रोग्राम के दौरान मुझे राजस्थान के किसानों के साथ काम करने का मौका मिला और अब मैं वही कर रहा हूं.”

एसबीआई फाउंडेशन के सीईओ एवं प्रबंध निदेशक संजय प्रकाश यूथ फॉर इंडिया कार्यक्रम के लिए कहते हैं, “जब ये युवा रूरल इंडिया के लिए काम करते हैं तो इससे केवल किसी एक गांव का ही नहीं बल्कि पूरे देश और गांव का विकास होता है.”


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