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‘ख़ुदा जाने ये बटवारा बड़ा है या वो बटवारा बड़ा था’- प्रवासी संकट और बंटवारे के बीच लकीर खींचती गुलज़ार की कविता

जब कोविड-19 महामारी के कारण प्रवासी मजदूरों पर मानवीय संकट गहरा रहा है तब गुलज़ार अपनी रचनाओं में उन्हें जगह दे रहे हैं- जो वो बखूबी करते हैं.

गीतकार गुलज़ार प्रवासी मजदूरों के अपने घरों की ओर लौटने की तुलना बंटवारे से कर रहे हैं | दिप्रिंट

जाने-माने गीतकार, लेखक और शायर गुलज़ार बखूबी जानते हैं कि बंटवारे के असल मायने क्या हैं और इसकी विभीषिका कैसी होती है. 1934 में दीना ( जो कि अब पाकिस्तान में है) में जन्मे गुलज़ार बंटवारे के कारण उन दिनों वहां से बॉम्बे आ गए थे जहां हिंदी सिनेमा में उन्होंने नाम कमाया.

उन्होंने इस डरावनी और भयानक घटना के बार में फुटप्रिंट्स ऑन जीरो लाइन, जो कि फिक्शन, नॉन फिक्शन और कविता का कलेक्शन है, उसमें खूब लिखा है. टू  नाम के उपन्यास में भी उन्होंने इस बारे में लिखा है.

जब कोविड-19 महामारी के कारण प्रवासी मजदूरों पर मानवीय संकट गहरा रहा है तब वो अपने लिखने के कामों में लगे हुए हैं- जो वो बखूबी करते हैं.

लॉकडाउन के दौरान गुलज़ार ने कई सारी कविताएं लिखी और महामारी की कई परतों को अपनी लेखनी के जरिए दिखाया लेकिन इनमें से कई कविताएं उम्मीद और सहारा भी देती हैं. हाल की कविता ऐसे में सबसे मौजूं है.

इसमें उन्होंने प्रवासी मजदूरों के शहर छोड़ अपने घरों की तरफ जाने और बंटवारे के बीच लकीर खींची है, जो कि इतिहास में सबसे बड़ा मानव प्रवासन है.

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इस कविता को यहां पढ़ें.

मज़दूर, महामारी – II

कुछ ऐसे कारवां देखे हैं सैंतालिस में भी मैंने
ये गांव भाग रहे हैं अपने वतन में
हम अपने गांव से भागे थे, जब निकले थे वतन को
हमें शरणार्थी कह के वतन ने रख लिया था
शरण दी थी
इन्हें इनकी रियासत की हदों पे रोक देते हैं
शरण देने में ख़तरा है
हमारे आगे-पीछे, तब भी एक क़ातिल अजल थी
वो मजहब पूछती थी
हमारे आगे-पीछे, अब भी एक क़ातिल अजल है
ना मजहब, नाम, जात, कुछ पूछती है
— मार देती है

ख़ुदा जाने, ये बटवारा बड़ा है
या वो बटवारा बड़ा था

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