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सिर पर सामान उठाए हजारों किलोमीटर चलते, हाथ में बच्चा लिए रोते बिलखते लोग और कोविड लॉकडाउन के वो दिन

कैसे थे COVID लॉकडाउन के दौरान में रिपोर्टिंग के वो दिन, ऐसे याद कर रहीं है RNG से सम्मानित हमारी पत्रकार ज्योति यादव और बिस्मी तसकीन

रामनाथ गोयनका अवार्ड लेती दिप्रिंट की ज्योति यादव | फोटो: सुरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

रात के लगभग 10 बज रहे थे तभी अचानक से मेरा फोन बजा. मैंने देखा तो फ़ोन पर हमारी हिंदी की एडिटर रेणु अगाल थीं. फोन उठाते ही मानो मुझपर सवालों के बौछार हो गई. क्या तुमने अपने साथ ज्यादा से ज्यादा मास्क रखा है? क्या तुमने अपने साथ बिस्किट के पैकेट्स रखें हैं क्योंकि वहां खाने को कुछ नहीं मिलेगा, और ऐसे ही एक के बाद एक सवाल पूछते हुए उन्होंने मुझसे आगे कहा कि अपने बालों के खराब होने की चिंता किए बिना कम से कम दिन में दो बार उसे गर्म पानी से धोना, क्या मालूम कौन अपने साथ कोरोनावायरस ले आए. और हां थोड़ी-थोड़ी देर में अपना फ़ोन भी सैनिटाइज करती रहना.

उन्होंने मुझे चेतावनी देते हुए फ़ोन रखा और कहा कि मैं ट्रांसलेट की हुई कॉपी बिल्कुल भी पब्लिश नहीं करूंगी. मुझे स्टोरी हिंदी में फाइल करके देना.

मैं उस वक़्त नई-नई जर्नलिस्ट ही बनी थी और इंग्लिश टीम में अपनी जगह बनाना चाहती थी, लेकिन उनकी ऐसी बातों से मैं अब थोड़ा डर गई थी. ठीक है मैम! मैं अपनी सारी स्टोरीज हिंदी में ही फाइल करूंगी, ऐसा कहकर मैंने उन्हें थोड़ा खुश करने की कोशिश की.

मैं अपनी सहयोगी बिस्मी और ड्राइवर मनीष के साथ यूपी और बिहार के सड़कों पर तीन सप्ताह से अधिक समय बिताने के बाद वापस लौटने के लिए, अगले दिन सुबह वहां से निकल गई. आज तीन साल बाद मुझे यह महसूस हो रहा है कि उनकी सारी डांट मेरे अच्छे के लिए ही थी. मुझे हिंदी में स्टोरी फाइल करने के लिए उनकी डांट की वजह से ही आज मेरे हाथ में रामनाथ गोयनका पुरस्कार 2020 की ट्रॉफी है.

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मेरे स्टोरीज के दौरान उन्होंने मुझे जो भी समझाया और सिखाया आज में उन सभी चीज़ो के लिए उनकी बहुत आभारी हूं. हम हर रोज निराश लोगों को पैदल अपने घर जाते देख रहे थे, नाकाम सरकार और मौतों की रिपोर्टो के साथ वापस आते थे. हम हर रोज घंटो तक अपने लिए छत और खाना ढूंढ़ते रह जाते थे, और फिर घंटो-घंटो तक अपने मोबाइल डेटा से अपनी टीम को वीडियो फुटेज भेजते थे. हम (बिस्मी) आधी रात तक वीडियो स्क्रिप्ट और इंग्लिश कॉपी पर काम करते थे.


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इन सबके बाद मेरा काम शुरू होता था जब मुझे कॉपी हिंदी में लिखकर रेणु मैम को भेजना होता था. हर रात चीज़ो को समझाने के लिए सही शब्द, वाक्य और पंक्तियां ढूंढ़ते हुए मैं परेशान हो जाती थी. लॉकडाउन के पीक टाइम पर गलत खबरें तो मानों आग की तरह फैल जाती थी. ऐसे में हम पर चीज़ो को जमीनी तरीके से पेश करने का भी दबाव बना हुआ था. जब भी हम अभिभूत महसूस करते थे, तब महामारी की शुरुआत में हमारे चीफ एडिटर शेखर गुप्ता के द्वारा पत्रकारों को भेजा गया एक मेसेज मुझे प्रोत्साहित करता था.

मुझे ऐसा लग रहा है की वो सारी नींद की कमी, थकान, हताशा और लाचारी का फल आज जाकर मिला है. ऐसा लग रहा है रामनाथ गोयनका अवार्ड 2020 ने हिंदी पत्रकारिता को और ऊपर ले जाने एवं सम्मान दिलाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. हिंदी डेस्क के (इंद्रजीत, गौरव और पूजा) की बहुत सारी प्रशंसा करना चाहती हूं, जिन्होंने इन कॉपी को एडिट किया और इन्हें एक रीडर के नज़र से देखकर इनपर काम किया.

‘तुम और ज्योति कल सुबह रिपोर्टिंग के लिए जा रही हो’– इन शब्दों ने मुझे (बिस्मी तसकीन) खुशी और चिंता दोनों में डाल दिया. यह वक़्त कोरोना महामारी का था. हर जगह लॉकडाउन था, मैं एक कंटेनमेंट जोन में रह रही थी जहां कोरोना के मामले रोज़ आ रहे थे. रिपोर्टिंग से कब वापस आना है, इसका हमें कुछ नहीं पता था.

ज्योति और मेरे पास अपनी जरुरी चीज़े इकट्ठा करने के लिए सिर्फ रात का वक़्त था. अगली सुबह हमें निकलना था. शेखर गुप्ता ने हमेशा युवा पत्रकारों को आगे बढ़ने और चमकने का मौका दिया और यही ‘हमारे जीवन की सबसे बड़ी कहानी बनी’.

अगली सुबह एक नए जोश के साथ हमने यात्रा शुरू की. लेकिन जल्द ही लॉकडाउन की वास्तविकता हमें देखने को मिली. यहां हम अपनी कार में आराम से बैठे थे और वहां हमने देखा कि लोग अपनी जरूरतों के सामान के साथ, अपने परिवार, छोटे छोटे बच्चे, गर्भवती महिला को ले कर कोई पैदल चल रहा है तो कोई ट्रक में निकल रहा है. गुरुद्वारे और अस्थायी रसोई घर बने हुए थे, लेकिन भीड़ और भूख के आगे सब बेबस कभी भंडारे में भी खाना कम पद जा रहा था. क्या जो कुछ सरकार द्वारा किया जा रहा था, वह काफी था? इन सभी विचारों से परे, हमपर इसे साबित करने का लगातार दबाव था- हमारे गांव के हालत कैसे हैं, क्योंकि सबसे ज्यादा शहरों से लोग गांव की तरफ चल रहे थे, हजारों मील तक बस इंसानों बच्चों की कतारें थीं. इनपर खबर करना जिम्मेदारी वाला और बहुत बड़ा काम था, रिपोर्ट को संवेदनशील बनाने के साथ-साथ हमारे पाठकों के लिए वास्तविकता से जुड़ी होनी चाहिए थी.

दो साल पहले, ज्योति और मैंने रामनाथ गोयनका पुरस्कारों के लिए आवेदन करने पर चर्चा की थी. उसने इस आवेदन को हिंदी के लिए भेजा था. हम दोनों को इन स्टोरीज को अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में फाइल करना था. तीन साल बाद जब अवॉर्ड जीतने का मुझे मेल आया तो मैंने उस मेल को अनजाने में स्किप कर दिया. इस विषय में दिप्रिंट की फीचर और ओपिनियन संपादक रमा लक्ष्मी ने मुझे फ़ोन कर के जानकारी दी कि तुम्हे रामनाथ गोयनका अवार्ड मिलने वाला है. मुझे इस पर विश्वास ही नहीं हो रहा था, क्योंकि मैं भूल चुकी थी कि मैंने इस अवार्ड के लिए अप्लाई कब किया था. 22 मार्च 2023 को प्रवासी मजदूरों के पलायन के कवरेज लिए रामनाथ गोयनका पुरस्कार 2020 मिला जो लेकर मैं अपने घर आई.

रिपोर्टिंग के दौरान कभी-कभी हम खो जाते थे, खाने के लिए भी हमें बहुत भटकना पड़ता था और एक बार हम बिहार में कहीं भारी बारिश में फंस गए थे और हम तीनों को पूरियां खानी पड़ी, जो लॉकडाउन के दौरान खाने की कमी के लिए पैक की थीं. लेकिन जिस दिन हमें रामनाथ गोयनका सम्मान मिलना था उस दिन हमारे ऑफिस में दोस्त और सहकर्मी खूब तालियां बजा रहे थे. वह क्या ही पल था जब वह केक काटने के लिए सब आए और उनमें से हर किसी ने हमारी जीत की सराहना की और कहा दिप्रिंट जीत गया है.


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