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मगरमच्छों से भरी नदी, जंगल, नदारद फोन नेटवर्क, भारत-नेपाल सीमा पर यूपी के गांवों का कैसा है हाल

iWitness - असाइनमेंट पर दिप्रिंट के पत्रकारों के अनुभवों की कहानी के पीछे की कहानी.

दीवार पर लिखा स्लोगन नो टावर, नो पावर । फोटोः प्रवीण जैन

बहराइच:जब मैं उत्तर प्रदेश में आगामी लोकसभा चुनाव को कवर करने के लिए पिछले हफ्ते दिल्ली से निकली, तो मैं राजनेताओं और ज़मीनी राजनीति की हकीकत को समझने के लिए तैयार थी, लेकिन जिस चीज़ के लिए मैं तैयार नहीं थीं वो था मगरमच्छों से भरे पानी में यात्रा करना और मुख्य जंगली इलाके में नाव की सवारी करते हुए गुज़रना.

हम लखनऊ में थे जब दिप्रिंट के नेशनल फोटो एडिटर प्रवीण जैन और मैंने भारत-नेपाल सीमा पर स्थित उन गांवों के बारे में सुना, जहां केवल नावों और कतर्नियाघाट जंगल से होकर जाने वाले रास्तों से होकर ही पहुंचा जा सकता था.

हमने सुना है कि इनमें से कुछ गांवों में कभी मोबाइल नेटवर्क भी नहीं थे. हमने तय कर लिया कि हम इन गांवों को अब और इंतज़ार नहीं कराएंगे और इसलिए हमने इन गांवों का सफर किया जो दो दिनों तक चला.

इस बात से अनजान की आगे इसमें क्या चुनौतियां आने वाली हैं, पत्रकार के रूप में हम इसे खुद देखना चाहते थे.

हम 10 अप्रैल को सुबह 10 बजे बहराइच के लिए निकले और जैसे ही कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य के पास पहुंचे, हमारा मोबाइल का नेटवर्क गायब हो गया.

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हमारी यात्रा शुरू हो चुकी थी. हमने गिरवा नदी के तट पर एक छोटी सी जगह पर अपना रास्ता बनाया, जहां हमें बताया गया कि हमें एक नाव का इंतज़ार करना होगा जो हमें उस पार ले जाएगी.

प्रवीण और मैं दोनों अपने शूटिंग टूल्स से लदी इस नाव पर चढ़े, इन गांवों के निवासियों के साथ-साथ सामान भी ले जाया जा रहा था.

ध्यान रहें, हम दोनों में से कोई भी तैरना नहीं जानता. हम यह बात जानते थे कि किसी भी स्थिति में अगर यह नाव पलट गई तो नदी में रहने वाले मगरमच्छों से हम नहीं बच पाएंगे.

हम दोनों ने अपनी सांसें रोक रखी थीं, लेकिन साथ ही अपने आसपास भी ध्यान रख रहे थे. जो एक संकरा सा हिस्सा लग रहा था वह जल्द ही दोपहर की धूप में चमकते हुए नदी के विशाल पानी में बदल गया.

किनारे पर पहुंचने के बाद हमने राहत की सांस ली, लेकिन हमें बताया गया कि भरथापुर 6 किलोमीटर की दूरी पर है, लेकिन इस बार हमें घने कतर्नियाघाट जंगल के माध्यम से होकर जाना पड़ा जहां साल और सागौन के जंगल, हरे-भरे घास के मैदान, दलदल और आर्द्रभूमि हैं, जो घड़ियालों,बाघ, गैंडे और हाथियों का घर हैं.

हमने आसपास पूछा और गिरवा नदी के किनारे स्थित सशस्त्र सीमा बल शिविर से मदद मांगी क्योंकि यह इलाका हम दोनों को बेहद खतरनाक और अजनबी लगा.

चारों ओर सुंदर हरियाली थी, लेकिन रास्ते नज़र नहीं आ रहे थे. समय हमारे हाथ से फिसला जा रहा था क्योंकि हमें सूर्यास्त से पहले वापस लौटना था, जबकि जंगल की सुंदरता ने हमें मंत्रमुग्ध कर दिया था.

जब हम अंततः भरथापुर पहुंचे, तो हमने फूस की छतों वाले घर देखे. उस गांव में एकमात्र पक्का मकान था वह था प्राइमरी स्कूल. ग्रामीण, जिनके पास अक्सर बाहर से कोई नहीं आता, शुरू में हमें देखने के लिए काफी उत्सुक थे और जैसे ही हमने बताया कि हम पत्रकार हैं, वे खुलकर बोलने लगे.

‘दुखों से परेशान’

अपने जीवन जीने का तरीका दिखाने के लिए पूरा गांव हमारे चारों ओर इकट्ठा हो गया.

जंगलों से गुज़रते हुए भरथापुर जाने का रास्ता | प्रवीण जैन/दिप्रिंट

अस्सी वर्षीय कलावती की आंखों में आंसू थे. अपनी स्थानीय भाषा में, उन्होंने हमें बताया कि कैसे गांव वाले “दुखों से परेशान” हैं.

उन्होंने हमें बताया कि कैसे उन्हें स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और बिजली जैसी सबसे बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलती हैं. गांव के घरों पर लगाए गए छोट-छोटे सोलर पैनलों से उनका काम चलता है.

उन्होंने हमें बताया कि कैसे गांव में एक स्कूल तो है, लेकिन जंगल में जानवरों का सामना होने जाने पर शिक्षक अक्सर नहीं आते हैं. उन्होंने उन घटनाओं के बारे में भी बताया जब जंगली जानवरों ने उनके भाइयों को मार डाला था.

उन्होंने हमें बताया कि कैसे नेता उनके गांव नहीं आते और कैसे उन्हें उनसे कभी-कभार ही कोई मदद मिलती है. उन्होंने हमें बताया कि कैसे बीमार लोग जंगल और पानी के रास्ते अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही मर जाते हैं, जो 50 किमी से भी अधिक दूर है.

यह पता था कि उनकी कहानियां कमजोर दिल वाले नहीं सुन सकते और उनके दर्द को सुनने वालों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है.

उनका दर्द सुनते सुनते, हमें समय का ध्यान नहीं रह गया और हमें पता ही नहीं चला कि किस वक्त सूर्यास्त हो गया है. हम दोनों कलावती और गांव के बाकी लोगों की कहानियां सुनने के बाद फिर से जंगल की ओर दौड़ पड़े.

जंगल से वापसी की यात्रा अंधेरे में करना और भी कठिनाई भरा था. पत्तों की हर सरसराहट हमें अंदर तक कंपा देती थी. नदी पार करते वक्त नाविक रात के घुप्प अंधेरे में टॉर्च के सहारे नाव को आगे ले जा रहा था.

‘बिजली नहीं तो वोट नहीं’

प्रवीण और मैं दोनों उस रात मुश्किल से सो सके. हमारे फोन में अभी भी ठीक से नेटवर्क नहीं आ रहा था, हमारे दिमाग में तरह-तरह के विचार कौंध रहे थे. हम तो चले आए थे, लेकिन हमारा मन अभी भी भरथापुर में ही था.

अगले दिन हमारा मिशन भारत-नेपाल सीमा पर स्थित चार और गांवों में जाना था. हमने कहानियां सुनी थीं कि कैसे इन गांवों में कभी भी मोबाइल नेटवर्क नहीं आता है और ग्रामीणों ने चेतावनी दी थी कि यदि अधिकारियों ने अब कार्रवाई नहीं की तो वे चुनाव का बहिष्कार करेंगे.

इन गांवों का रास्ता भी कतर्नियाघाट जंगल से होकर जाता है. जब हम इन गांवों से कुछ सौ मीटर दूर थे, तब हमें पता चला कि एक भारी-भरकम पेड़ की मोटी डाल के टूट कर गिरने से रास्ता बंद हो गया है. जंगल हमें उन कठिनाइयों की एक झलक दे रहा था जिनका सामना ये ग्रामीण हर दिन करते हैं.

चार गांवों के रास्ते में गिरा पेड़ का तना | प्रवीण जैन/दिप्रिंट

हमें यह भी बताया गया कि अब किसी को सीधे तौर पर अधिकारियों से रास्ता साफ करने के लिए कहना होगा क्योंकि मैसेज या कॉल के जरिए इसकी सूचना नहीं दी जा सकती है.

इन गांवों के अंदर हर दीवार पर “नो टावर, नो पावर” और “नो नेटवर्क, नो वोट” जैसे नारे लिखे हुए थे.

हालांकि, इन गांवों का इलाका भौगोलिक रूप से भरथापुर जैसा कठिन नहीं था, फिर भी वे बाहरी दुनिया से कटे हुए थे और मोबाइल नेटवर्क टावर न होने के कारण सबसे बुनियादी संसाधनों तक पहुंच के लिए संघर्ष कर रहे थे.

एक ग्रामीण ने हमें यह भी बताया कि अगर, उस समय, प्रवीण या मुझे कुछ हो जाता, तो उन्हें नहीं पता था कि वे हमारी कोई सहायता कर पाते या नहीं. आप कल्पना कीजिए कि हमें उस वक्त कितना आश्चर्य हुआ होगा जब हमें पता चला कि उन्हें भारत की तुलना में नेपाली मोबाइल नेटवर्क से बेहतर सिग्नल मिलते हैं और इसलिए उनमें से कई भारत के बजाय नेपाली सिम का उपयोग करते हैं!

इन ग्रामीणों ने हमें ऐसी कहानियां भी सुनाईं जिससे पता चलता था कि बाकी देश से वे अपने आपको किस तरह से कटा हुआ महसूस करते हैं.

वे विकास और बाहरी दुनिया से जुड़ाव के भूखे थे, अपने बच्चों को जीवन में आगे बढ़ते देखने के भूखे थे.

बुनियादी मांग पर तेजी से प्रतिक्रिया देते हुए, अधिकारियों ने गांवों के पास बीएसएनएल का एक टावर लगाया, जिससे थोड़ी राहत तो मिली, लेकिन ग्रामीणों ने कहा कि प्राइवेट कंपनी के नेटवर्क की उनकी मांग जारी रहेगी.

चूंकि ये गांव सीमा के बहुत करीब थे, इसलिए हमने कतर्नियाघाट जंगल के पास भारत-नेपाल सीमा का भी दौरा किया. सीख यह थी कि जब आप सीमाओं को करीब से देखते हैं तो वे वास्तव में धुंधली हो जाती हैं.

हमारी दो दिवसीय यात्रा घाघरा बैराज के पास समाप्त हुई, जहां हमने पारंपरिक रूप से मशहूर बाटी की तरह ही एक व्यंजन ‘घाटी’ खाई. जब हम सत्तू भरे इस गोल-गोल व्यंजन का आनंद ले रहे थे तभी तभी एक बंदर मेरी प्लेट की तरफ झपटा और एक घाटी चुरा ली क्योंकि दो दिनों के बाद फोन में नेटवर्क आने की वजह से मैं फोन को स्क्रॉल करने में व्यस्त थी.

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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