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गोवा की राजनीति में पार्टी से ज़्यादा अहम है शख़्सियतें, ये चुनाव इसका और अधिक सबूत हैं

ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनमें नेताओं ने अपनी सीटों से बार बार जीत हासिल की, भले वो किसी भी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हों. इसका कारण है गोवा का अव्यवस्थित राजनीतिक इतिहास.

सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

पणजी: गोवा के महालक्ष्मी मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने खड़े होकर 22 जनवरी को कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने आगामी 14 फरवरी को होने वाले असेम्बली चुनावों के लिए कोंकणी में एक शपथ ली और पुरोहित के पीछे दोहराया: ‘देवी महालक्ष्मी के चरणों में हम वचन देते हैं कि हम कांग्रेस पार्टी के प्रति निष्ठावान रहेंगे, जिसने उम्मीदवारों के रूप में हमारा चयन किया है’.

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी नेताओं पी चिदंबरम और दिनेश गुण्डू राव की उपस्थिति में, 36 कांग्रेस प्रत्याशियों ने बैम्बोलिम के होली क्रॉस श्राइन और हमज़ा शाह दरगाह पर भी इसी संकल्प को दोहराया.

ये नाटकीय व्यवहार सुर्ख़ियां बना, लेकिन जिस घबराहट के चलते पार्टी ने उनसे ये सब कराया, उसमें कुछ भी चकित करने वाला नहीं था.

गोवा में दलबदल की घटनाएं एक ऐतिहासिक परंपरा रही है, और पिछले पांच सालों में कांग्रेस ने इसकी बहुत मार झेली है, 40- सदस्यीय विधान सभा में जिसकी संख्या, 2017 के 17 से घटकर 2022 में दो पर आ गई.

बरसों तक, व्यक्तिगत स्तर पर नेताओं ने गोवा के अपने चुनाव क्षेत्रों को, अपनी जागीर की तरह तैयार किया है, और इसी कारण से राजनीतिक पार्टियां, उनकी उनकी जिताऊ क्षमता की पीठ पर सवारी करने के लिए उन्हें लुभाती रही हैं.

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आगामी असेम्बली चुनाव भी इससे अलग नहीं हैं, जिसमें चुनावों से पहले ही गोवा की 40 सदस्यीय विधानसभा के 15 विधायकों ने इस्तीफा देते हुए अपनी राजनीतिक संबद्धताएं बदल लीं.

गोवा के एक बहुत छोटा राज्य होने के ज़ाहिरी कारण के अलावा (केवल 3,702 वर्ग किलोमीटर), चुनावों में पार्टियों से ज़्यादा व्यक्तिगत नेताओं का प्रभाव होने के कारण, इस तटीय प्रांत के अव्यवस्थित राजनीतिक इतिहास में छिपे हैं.


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छोटे चुनाव क्षेत्र, स्थानीय जागीरें

ऊपर ऊपर से गोवा के अधिकतर वरिष्ठ राजनेता, व्यक्तिगत नेतृत्व की राजनीतिक जागीरों के वजूद का कारण तटीय राज्य के साइज़ और छोटे असेम्बली चुनाव क्षेत्रों को बताते हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक़ गोवा की आबादी 14.85 लाख थी, मुम्बई या दिल्ली के तक़रीबन दसवें हिस्से के बराबर. गोवा के हर चुनाव क्षेत्र में क़रीब 25,000 से 30,000 मतदाता हैं. चुनाव लड़ रहीं सभी पार्टियों के नेताओं का कहना है कि इसकी वजह से बीते वर्षों में राजनेताओं के लिए मतदाताओं के साथ सीधे संपर्क स्थापित करना संभव हो गया है.

मसलन, सोमा माझी जो पोरियम चुनाव क्षेत्र के केरी गांव में रहते हैं, तब से कांग्रेस के प्रतापसिंह राणे को वोट देते आ रहे हैं, जब से उन्हें वोटिंग का अधिकार मिला था. उनका परिवार भी यही करता है.

माझी ने कहा, ‘हमारे लिए बात कांग्रेस को वोट देने की नहीं, बल्कि प्रतापसिंह राणे को वोट देने की है. हमें इसकी परवाह नहीं है कि वो किस पार्टी के साथ हैं. अगर वो चुनाव नहीं लड़ते, तो फिर हम उसे वोट देंगे जिसे वो कहेंगे’. उससे एक दिन पहले ही छह बार के विधायक ने चुनावी रेस से पीछे हटने का फैसला किया था.

पड़ोसी वालपोई चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व राणे के बेटे विश्वजीत करते रहे हैं, जो पहले कांग्रेस के साथ थे. 2017 में जब विश्वजीत पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में गए, तो पीछे पीछे उनके मतदाता भी चले गए.

बेनॉलिम में चर्चिल अलेमाओ कई बार विधायक चुने गए हैं, भले ही वो किसी भी पार्टी के साथ रहे हों, जबकि राजधानी पणजी बीजेपी के मनोहर पर्रिकर के प्रति वफादार बनी रही, जब तक वो जीवित रहे.

लेकिन, पर्रिकर की मौत के बाद हुए उप-चुनाव ने दिखा दिया कि मतदाताओं की निष्ठा उनके साथ थी, न कि बीजेपी के साथ, जब अतानासियो ‘बाबुश’ मोनसेराटे ने कांग्रेस के लिए ये सीट जीत ली. बीजेपी जानती थी कि अगर उसे पणजी और उसके पड़ोसी चुनाव क्षेत्रों को अपने साथ बनाए रखना है, तो मोनसेराटे को अपने जाल में फंसाना होगी, जो उसने किया.

अपना नामांकन दाख़िल करते हुए मोनसेराटे ने पत्रकारों से इतने सामान्य लहजे में कहा, ‘मैं हमेशा कहा करता था कि पर्रिकर के बाद मैं हूं,’ जैसे पणजी कोई संपत्ति है जिस पर पर्रिकर और मोनसेराटे अपना अधिकार जता रहे थे.

राजनीतिक अस्थिरता का इतिहास

1987 में राज्य का दर्जा हासिल होने के बाद के वर्षों में गोवा में राजनीतिक अस्थिरता रहने के कारण व्यक्तित्व पर आधारित राजनीति ज़्यादा हावी हो गई, और व्यक्तिगत नेता ताक़त हासिल करने के लिए सियासी चालबाज़ियां करने लगे.

इस दौरान राजनीतिक संगठन अपने नाम पर, मतदाताओं के बीच ज़्यादा साख पैदा नहीं कर पाए, चूंकि मौजूदा सरकारों का तख़्ता पलटने के लिए इन नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का समर्थन करते हुए, शख़्सियतों की पीठ पर सवार होकर वो सत्ता में आ जाते थे.

मसलन, 1990 में लुई प्रेतो बारबूसा ने प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट के बैनर तले, महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के साथ हाथ मिलाकर कांग्रेस की प्रतापसिंह राणे सरकार को गिरा दिया. लेरिन बारबूसा सरकार 8 महीने के अंदर गिर गई.

इसी तरह, 1999 में लुईज़ीन्हो की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार, जो 40 सदस्यीय असेम्बली में 21 सीटों के एक दुर्लभ बहुमत के साथ सत्ता में आई थी, पांच महीने के भीतर गिरा दी गई.

साथी कांग्रेस नेता फ्रांसिस्को सरदीन्हा, जो मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पाले हुए थे, 10 विधायकों के साथ कांग्रेस से अलग हो गए और बीजेपी से हाथ मिला लिया ताकि अपनी अगुवाई में सरकार बनवा सकें.

गोवा की सरकारें कितनी अस्थिर रही हैं, इसका काफी कुछ अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य का दर्जा मिलने के बाद लगभग 34 वर्षों में यहां 20 मुख्यमंत्री रहे हैं, जिनमें से कुछ नेताओं का एक से अधिक कार्यकाल रहा है. इसके अलावा, यहां तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लग चुका है.

पिछले सप्ताह दिप्रिंट से बात करते हुए, बीजेपी के पदस्थ सीएम प्रमोद सावंत ने कहा ‘एक छोटा राज्य होने के कारण, जिसमें इतनी सारी राजनीतिक पार्टियां हैं, पहले यहां के लोग विधायकों को चुन रहे थे, पार्टियों को नहीं’. उन्होंने आगे कहा, ‘इस बार हम गोवा के लोगों से कह रहे हैं कि सरकार बनाने के लिए वो पार्टी को वोट दें, सिर्फ विधायकों को वोट न दें’.


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सबसे पुरानी पार्टियों के प्रभाव में कमी

गोवा की दो सबसे पुरानी पार्टियों- महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) और यूनाइटेड गोअंस पार्टी- के प्रभाव में कमी आ गई, क्योंकि वो अपनी मूल राजनीतिक विचारधारा और एजेण्डा से ज़्यादा समय तक टिकी रहीं.

एमजीपी ‘बहुजन समाज’ की पार्टी थी, और उसने गोवा के महाराष्ट्र में विलय का समर्थन किया था, जबकि यूनाइटेड गोअंस पार्टी प्रमुख रूप से ईसाई थी, और उसने गोवा के लिए राज्य के दर्जा, और अपनी अलग पहचान बनाए रखने की हिमायत की थी. एमजीपी ने 1963 से 1979 के बीच, 15 वर्षों से अधिक समय तक गोव पर राज किया, जिसमें दिसंबर 1966 से अप्रैल 1967 के बीच, राष्ट्रपति शासन का समय भी शामिल था.

1990 के दशक से गोवा में जो स्थानीय संगठन उभरकर सामने आए हैं, वो दरअसल नेताओं की राजनीतिक आकांक्षाओं की जगह बनाने के मक़सद से ही वजूद में आए हैं. इस तरह की पार्टियां विचारधारा नहीं बल्कि सुविधा के आधार पर गठबंधनों में शामिल हुई हैं, और अंत में वो या तो बड़ी पार्टियों में मिला ली गईं, या भंग कर दी गईं. मसलन, जब बारबूसा ने राणे सरकार को गिराया, तो उन्होंने गोवा पीपुल्स पार्टी बनाई थी.

1998 में विल्फ्रेड डिसूज़ा, जो प्रतापसिंह राणे कैबिनेट में एक मंत्री थे, पार्टी तोड़कर गोवा राजीव कांग्रेस पार्टी के नाम से एक अलग दल के प्रमुख बन गए, और बीजेपी के समर्थन से सरकार बना ली.

इस बीच, फ्रांसिस्को सरदीन्हा ने गोवा पीपुल्स कांग्रेस का गठन कर लिया था.

हाल ही में, पूर्व कांग्रेस नेता विजय सरदेसाई ने 2016 में बीजेपी की तीखी आलेचना करते हुए गोवा फॉर्वर्ड पार्टी बना ली. 2017 में, सत्ता पाने के लिए उनकी पार्टी ने बीजेपी से हाथ मिला लिया, और सरदेसाई आख़िरकार डिप्टी सीएम बन गए, जब तक दलबदलों को साथ लेकर अपनी स्थिति मज़बूत करने के बाद बीजेपी ने उन्हें अनौपचारिक ढंग से बाहर नहीं कर दिया.

सरदेसाई अपनी पारंपरिक सीट फतोरदा से विधान सभा चुनाव लड़ रहे हैं, और इस बार कांग्रेस के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन करते हुए, उन्होंने बीजेपी के साथ कभी हाथ न मिलाने का संकल्प लिया है.

दल-बदल एक स्थानीय परंपरा

छह बार के सीएम राणे ने, जिनकी सरकारें दल-बदलुओं ने गिराईं हैं, पिछले हफ्ते दिप्रिंट से कहा, ‘गोवा एक बहुत छोटा सूबा है इसलिए यहां राजनेता अपनी वफादारियां बना सकते हैं. लेकिन, दल बदल गोवा की सबसे बड़ी बीमारी है’.

इस चुनाव में गोवा कांग्रेस ने सार्वजनिक रूप से प्रण किया है कि वो दल-बदलुओं को अपनी पार्टी में नहीं लेगी.

इस बीच, गोवा में आम आदमी पार्टी ने अपने उम्मीदवारों से हलफनामे पर दस्तख़त कराए हैं कि वो रिश्वत नहीं लेंगे और दल नहीं बदलेंगे.

लेकिन, चुनावों से पहले दोनों पार्टियों ने रणनीतिक प्रवेश कराए हैं, और दूसरी पार्टियों से दल-बदलू नेताओं को अपने यहां लिया है.

मसलन, जब कांग्रेस उम्मीदवार धार्मिक स्थलों पर दल न बदलने की शपथ ले रहे थे, तो कालनगूट से बीजेपी के एक पूर्व दबंग नेता, जो पिछले महीने ही कांग्रेस में शामिल हुए थे, अगली पंक्ति में प्रमुखता के साथ खड़े थे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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