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पणजी के लिए हाईप्रोफाइल लड़ाई, गोवा की राजधानी जीतने के अलावा BJP का बहुत कुछ दांव पर लगा है

बीजेपी के अनुभवी नेता ‘बाबुश’ मोनसेराटे के लिए, निर्दलीय उम्मीदवार उत्पल पर्रिकर के खिलाफ लड़ाई आसान नहीं रहने वाली है. लेकिन ये सिर्फ पणजी नहीं है, दांव पर प्रतिष्ठा भी लगी है.

चित्रण/ दिप्रिंट

पणजी: गोवा विधानसभा चुनावों में सिर्फ दो हफ्ते बचे हैं और पणजी में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के दफ्तर में इस बात पर चर्चा चल रही है कि चुनाव जीतने के लिए स्मार्ट हिसाब किताब भी उतना ही अहम होता है जितना राजनीतिक सिद्धांत होते हैं.

एक बीजेपी नेता ने, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, दिप्रिंट से कहा, ‘उत्पल पर्रिकर अपने पिता (स्वर्गीय सीएम मनोहर पर्रिकर) की तरह सीधे हैं, और वो कभी राजनीति में नहीं रहे हैं, और इसलिए लगता है कि वो इस रणनीतिक पहलू को नहीं समझ पाते’.

बीजेपी ने उत्पल को उनके पिता की पुरानी सीट पणजी से टिकट नहीं दिया, और वहां से सिटिंग विधायक अतानासियो मोनसेराटे को खड़ा कर दिया. इसके बाद उत्पल ने निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया. और इसकी वजह से 14 फरवरी को पणजी में एक हाई प्रोफाइल लड़ाई देखने को मिलेगी.

38 वर्षीय उत्पल के लिए, जो व्यवसायी से राजनेता बने हैं, ये चुनाव उनके पिता की विरासत पर दावा करने के लिए हैं, और वो इसे किसी विरोधी के हाथ में नहीं जाने देंगे.

पणजी में घर-घर जाकर प्रचार कर रहे व्यापारी से राजनेता बने उत्पल पर्रिकर | विशेष व्यवस्था द्वारा

बीजेपी के लिए, ये जितना विरोधी लहर के सामने राजनीतिक फायदा उठाने को लेकर है, उतना ही उनका उद्देश्य पर्रिकर की विरासत को अपनाना भी है.

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पणजी टिकट उत्पल को दिया जाए या मोनसेराटे को- जो बाबुश के नाम से जाने जाते हैं- इस फैसले के परिणाम इससे आगे जा सकते हैं, कि प्रदेश की राजधानी कौन जीतता है. पार्टी सूत्रों ने दिप्रिंट से कहा कि गोवा के तिसवाड़ी तालुका में, ये तीन या चार सीटों पर बीजेपी की क़िस्मत का फैसला कर सकता है.


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BJP ने मोनसेराटे को क्यों चुना?

गोवा मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत आश्वस्त हैं, कि बीजेपी 40-सदस्यीय विधानसभा में 22 से अधिक सीटें जीतेगी, लेकिन गोवा व महाराष्ट्र के कई बीजेपी नेताओं ने दिप्रिंट से स्वीकार किया, कि मौजूदा सरकार को मज़बूत विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है. उनका मानना है कि बीजेपी को सबसे बड़ा फायदा ये है, कि विपक्ष में बहुत भीड़ है और कांग्रेस,आम आदमी पार्टी (आप), तृणमूल कांग्रेस, तथा दूसरे क्षेत्रीय संगठन चुनाव मैदान में उतरे हुए हैं.

इस स्थिति में, बीजेपी के लिए हर वो सीट महत्व रखती है, जिसे वो संभावित रूप से जीतने योग्य सीटों की सूची में जोड़ सकती है.

मोनसेराटे 2002 से राजनीति में हैं, और तिसवाड़ी तालुक़े की, जिसके अंतर्गत पणजी आता है, पांच में से कम से कम चार सीटों पर, उन्होंने अपना जनाधार बनाया है.

ये विधायक, जिनके खिलाफ रेप के एक आरोप समेत कई अपराधिक मामले चल रहे हैं, तब तक पणजी से दूर रहे जब तक इस सीट से मनोहर पर्रिकर लड़ रहे थे. स्वर्गीय पर्रिकर 1994 से इस सीट को बीजेपी के लिए कब्ज़ाए हुए थे.

बीजेपी सूत्रों और राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने कहा कि मनोहर पर्रिकर की मोनसेराटे के साथ एक सहमति थी, जिसमें एक दूसरे से टकराए बिना, उन्होंने अपने अपने गढ़ में अपनी पकड़ बनाए रखी.

एक गोवा बीजेपी नेता ने कहा, ‘2017 में पणजी सीट के उपचुनाव में, जब गोवा सीएम बनने के लिए पर्रिकर को राज्य विधान सभा के लिए चुना जाना था, तो उस समय बाबुश के कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने की चर्चाएं थीं. लेकिन वो गोवा फॉर्वर्ड पार्टी में शामिल हो गए, जो उस समय हमारी सहयोगी थी. ये महज़ इत्तेफाक़ नहीं हो सकता’.

मोनसेराटे एक उद्यमी हैं और रियल एस्टेट तथा हॉस्पिटैलिटी व्यवसाय से जुड़े हैं, 2002 और 2006 में तालेगाव से विधायक थे, जो तिसवाड़ी तालुक़ा में पणजी से सटा हुआ चुनाव क्षेत्र है. 2002 चुनावों के बाद वो थोड़े समय के लिए, मनोहर पर्रिकर की कैबिनेट में मंत्री भी थे.

भाजपा विधायक अतानासियो मोनसेरेट अपने समर्थकों के साथ जिस दिन उन्होंने पिछले सप्ताह अपना नामांकन दाखिल किया था | विशेष व्यवस्था द्वारा

2012 मोनसेराटे तिसवाड़ी की सांताक्रूज़ सीट से विधायक चुने गए, जबकि उनकी पत्नी जेनिफर तालेगाव सीट से चुनाव लड़ीं और जीत गईं, जिसपर उन्होंने 2017 में भी जीत हासिल की.

2017 के चुनाव आते आते, पर्रिकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में चले गए थे, और मोनसेराटे ने पणजी से चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें पहली बार, पर्रिकर के शिष्य सिद्धार्थ कुनकालिएंकर के हाथों चुनावी हार का मज़ा चखना पड़ा.

पर्रिकर की मौत के बाद 2019 उपचुनाव में वो आख़िरकार पणजी से विजयी हुए, और उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार कुनकालिएंकर को परास्त किया.

विडंबना ये है कि 2015 में, कांग्रेस ने मोनसेराटे को ‘पार्टी-विरोधी गतिविधियों’ के लिए छह साल के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया था, चूंकि उन्होंने पर्रिकर के केंद्रीय कैबिनेट में चले जाने के बाद, पणजी के लिए हुए उपचुनाव में बीजेपी उम्मीदवार का समर्थन किया था.

2019 उपचुनाव में भी उत्पल ने, मोनसेराटे के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए, पार्टी से टिकट की मांग की थी.

सांताक्रूज़ जहां से मोनसेराटे पहली बार जीते थे, तालेगाव जिसका उन्होंने और उनकी पत्नी ने प्रतिनिधित्व किया है, और पणजी जो फिलहाल उनके पास है, के साथ साथ विधायक ने तिसवाड़ी के सेंट आंद्रे में भी अपना जनाधार बनाया है, जहां से सिटिंग विधायक फ्रांसिस्को सिलवेयरा उनके सहायकों में से एक हैं. इसके अलावा मोनसेराटे-समर्थित नेताओं का पणजी नगर निगम में भी नियंत्रण है, जिसका एक हिस्सा तालेगाव में आता है.

गोवा बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट से कहा, ‘एक तरफ मनोहर पर्रिकर के बेटे हैं जो कभी राजनीति में नहीं रहे हैं, उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा है, और उनके पास अपना कोई काम नहीं है, जिसे वो लोगों को दिखा सकें. वो अपने पिता की साख के सहारे चल रहे हैं, और हमें नहीं मालूम कि क्या वो उनकी जीत के लिए काफी हो सकती है. दूसरी तरफ बाबुश के साथ ये है कि सिर्फ एक नहीं, बल्कि तीन या चार सीटें दांव पर लगी हैं’.

एक और बीजेपी नेता ने कहा कि 2019 में मोनसेराटे ने, 10 कांग्रेस विधायकों को पार्टी छोड़कर, बीजेपी में लाने में ‘मुख्य भूमिका’ निभाई थी, जिससे गोवा सरकार पर पार्टी की पकड़ मज़बूत हुई थी, इसलिए पार्टी नेतृत्व उनकी उम्मीदवारी की अनदेखी नहीं कर सकता था.

पणजी की लड़ाई

पणजी चुनाव क्षेत्र में 22,203 मतदाता हैं, और चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 2017 चुनावों में यहां 78.38 प्रतिशत मतदान हुआ था.

राजनीतिक विश्लेषक क्लियोफातो कूटीन्हो ने कहा कि मोनसेराटे का पणजी में एक मज़बूत जनाधार है, और राजधानी शहर में एक बड़ी स्लम आबादी है, जहां से उन्हें समर्थन मिलता है. उन्होंने कहा कि क़रीब 20 प्रतिशत मतदाता सारस्वत ब्राह्मण समुदाय से हैं, और पणजी में उन्हें न केवल राय बनाने वाले माना जाता है, बल्कि वो उस पक्ष के लिए साथ मिलकर वोट देते हैं, जिन्हें वो संभावित विजेता समझते हैं.

उन्होंने कहा, ‘इस बार, मनोहर पर्रिकर की वजह से ये ब्लॉक उत्पल के साथ जा सकता है, जिससे पणजी चुनाव एक कांटे की टक्कर बन सकता है’.

मतदाताओं के लिए एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा है तैरते हुए कसीनो की  श्रंखला, जो अन्यथा नदी के मनोहर किनारे फैले हुए हैं. 2019 के चुनावों में मानसेराटे ने वचन दिया था, कि सत्ता में आने के 100 दिनों के भीतर वो इन्हें बंद करा देंगे.

कूटीन्हो ने कहा कि 2019 में पणजी के मतदाताओं पर इस वादे का असर हुआ था, मोनसेराटे का इस वादे को पूरा न कर पाना, इस बार उनके खिलाफ जा सकता है. अपने प्रचार में उत्पल पहले ही, वादा पूरा करने में नाकाम रहने के लिए, अपने विरोधी पर तंज़ कर चुके हैं.

14 फरवरी के चुनाव के लिए अपना नामांकन भरते समय मोनसेराटे ने पत्रकारों से कहा, ‘पर्रिकर एक अलग ही क्लास के नेता थे, लेकिन मैंने हमेशा कहा है कि पर्रिकर के बाद, मैं हूं…आप मुझसे बस एक उम्मीदवार (उत्पल) के बारे में क्यों पूछ रहे हैं? मैदान में मौजूद दूसरे उम्मीदवारों को हल्के में मत लीजिए. कांग्रेस के पास भी एक अच्छा उम्मीदवार है’.

कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी (आप) के पूर्व प्रदेश संयोजक, और एक पूर्व नौकरशाह एल्विस गोम्स को मैदान में उतारा है.

बीजेपी नेताओं ने अपने पिता की विरासत पर क़ब्ज़ा करने की, उत्पल की मंशा पर ये कहते हुए सवाल खड़े किए हैं, कि सीनियर पर्रिकर कभी नहीं चाहते थे कि वो राजनीति में दाख़िल हों.

अपने प्रचार में उत्पल ने परोक्ष रूप से कहा है, कि उनकी लड़ाई मोनसेराटे के खिलाफ है. जिस समय उत्पल घर-घर जाकर प्रचार कर रहे थे, उन्होंने पणजी के निवासियों को संबोधित करते हुए एक सार्वजनिक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया, ‘…आज पणजी शहर मुर्झाता जा रहा है, और इसके एक मनहूस शहर में तब्दील हो जाने का ख़तरा है’.

उन्होंने सफाई शुल्क में वृद्धि, अनियोजित विकास, अनुचित पार्किंग नियम, और फ्लोर एरिया रेशो जैसे कुछ मुद्दों का हवाला दिया. उन्होंने कहा कि उन्होंने एक निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ने का फैसला इसलिए किया, कि ‘भाई (सीनियर पर्रिकर) के अच्छे कार्यों को आगे बढ़ा सकूं, और सुनिश्चित कर सकूं कि शहर उस प्राचीन गौरव को फिर से प्राप्त कर सकें, जो उसे उनके समय में हासिल था’.

गोवा के एक वरिष्ठ पत्रकार ने, जो उत्पल को क़रीब से जानते हैं, नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा, ‘उत्पल पर्रिकर बिल्कुल अपने पिता की तरह हैं. लेकिन एक पहलू जो अलग है वो ये, कि उत्पल कभी सार्वजनिक जीवन में नहीं रहे. उन्होंने न सिर्फ चुनाव नहीं लड़े, बल्कि उन्हें कभी सक्रियता के साथ अपने पिता के चुनाव प्रचार, या राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होते भी नहीं देखा गया. मनोहर पर्रिकर ऐसा ही चाहते थे’.

उन्होंने कहा कि इस पहलू से उत्पल के पास खोने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं है. अगर वो पणजी से मोनसेराटे के हाथों हार भी जाते हैं, तो भी उन्हें इसका श्रेय मिलेगा कि उन्होंने अपने पिता की राजनीतिक विरासत पर दावेदारी जताने की कोशिश की, और वो फिर से उसी काम पर वापस जा सकते हैं, जो उन्होंने अपने अधिकतर जीवन में किया है- कारोबार.

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