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OBC कोटे के बिना स्थानीय निकाय चुनाव के SC के आदेश के बाद शिवराज सरकार पर दबाव बढ़ा, BJP डैमेज कंट्रोल मोड में

भाजपा नेताओं ने माना कि उनकी कुछ 'गलतियों' के कारण मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी कोटे के बिना मप्र स्थानीय निकाय चुनावों को दो सप्ताह के भीतर अधिसूचित करने का फैसला सुनाया है. उधर 2023 के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले इस फैसले ने कांग्रेस को आक्रामक बना दिया है.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की फाइल फोटो | फोटो: एएनआई

नई दिल्ली: मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार को सुप्रीम कोर्ट के मंगलवार के फैसले के बाद असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है. कोर्ट के आदेश के मुताबिक राज्य द्वारा आरक्षण के लिए जरूरी ‘ट्रिपल टेस्ट’ प्रक्रियाओं के पूरा नहीं किया गया है. इसलिए स्थानीय निकाय चुनावों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कोटे के बिना दो सप्ताह के भीतर अधिसूचित किया जाए.

इस आदेश के बाद सियासी हलचल तेज हो गई है. विपक्षी दल कांग्रेस इसे राज्य सरकार के ओबीसी के साथ ‘विश्वासघात’ बताकर ट्वीट कर हो हल्ला मचा रही है, तो वहीं भाजपा नेता नुकसान को साधने की कोशिशों में लगे हैं.

भाजपा के लिए स्थिति कितनी चिंताजनक है इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लंदन की अपनी यात्रा रद्द कर दी. वहां उन्हें एक निवेशक शिखर सम्मेलन में भाग लेने जाना था. उन्होंने ट्वीट करते हुए कि उनकी सरकार ओबीसी के ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है.’

नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट को बताया कि मध्य प्रदेश में कुछ ‘गलतियों’ से पार्टी को भारी नुकसान हो सकता है.

नेता ने कहा, ‘हमने दो गलतियां की हैं. पहली, हमने ट्रिपल टेस्ट की प्रक्रिया को समय पर पूरा नहीं किया. दूसरा, हमारी कानूनी टीम सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना पक्ष रखने में नाकामयाब रही.’

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उन्होंने कहा, ‘अब, ओबीसी आरक्षण के बिना स्थानीय निकाय चुनाव कराने से विधानसभा चुनाव (2023 में होने वाले) से पहले सशक्तिकरण को लेकर भाजपा के नैरेटिव को नुकसान पहुंचेगा. भारत में जाति और आरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को देखते हुए विपक्ष गलत खबरें फैलाकर इस स्थिति का फायदा उठा सकता है.’

कमलनाथ जैसे कांग्रेस नेता पहले ही दावा कर चुके हैं कि समय पर ट्रिपल टेस्ट पूरा करने में विफलता एक ‘षड्यंत्र’ की ओर इशारा करता है. कमलनाथ 2018 में सीएम बने थे. लगभग दो दर्जन विधायक के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा खेमे में शामिल होने के बाद, उनकी सरकार ने मार्च 2020 में बहुमत खो दिया था.

कमलनाथ ने मीडियाकर्मियों से बात करते हुए आरोप लगाया, ‘शिवराज सरकार का ओबीसी विरोधी चेहरा एक बार फिर सामने आया है. वह नहीं चाहते थे कि ओबीसी वर्ग को आरक्षण का लाभ मिले और इसलिए ये साजिश रची गई.’

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि उनकी अल्पकालिक सरकार ने 2019 में ओबीसी कोटा 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया था. लेकिन भाजपा ने इसे रद्द कर दिया. नाथ ने अपने एक ट्वीट में भाजपा को संबोधित करते हुए कहा, ‘आपने जो घाव दिए हैं, उन्हें ठीक नहीं किया जा सकता. ओबीसी आपके झांसे में नहीं आएंगे.’

शिवराज सरकार सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका दायर करने की योजना बना रही है. उधर बीजेपी के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि वे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में ओबीसी आरक्षण के बिना स्थानीय चुनाव होने पर चुनावी नतीजों को लेकर गंभीर रूप से चिंतित हैं. ऐसे राज्य में जहां 2011 की जनगणना के अनुसार 50 प्रतिशत आबादी ओबीसी थी, वहां इस तरह का फैसला आना भाजपा के लिए एक राजनीतिक बारूदी सुरंग हो सकती है.

सूत्रों के अनुसार, भाजपा आलाकमान इस कानूनी लड़ाई से नाराज है और उन्होंने स्थिति की समीक्षा करने और इसे लेकर रणनीति तैयार करने के लिए सीएम चौहान, राज्य के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा और राज्य के शहरी विकास मंत्री भूपेंद्र सिंह को दिल्ली बुलाया है.


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सुप्रीम कोर्ट का मामला और ‘ट्रिपल टेस्ट’ विवाद

चौहान सरकार की मौजूदा हालत के लिए कुछ हद तक इस पूरी प्रक्रिया के जटिल समीकरण भी जिम्मेदार हैं. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कमलनाथ सरकार ने मार्च 2019 में ओबीसी कोटा बढ़ाने फैसला लिया था. वहीं से इसकी शुरुआत हुई.

नवंबर 2021 में भाजपा सरकार, नाथ सरकार के परिसीमन और सीटों के आरक्षण को रद्द करने के लिए एक अध्यादेश लेकर आई. कुछ कांग्रेस नेताओं ने भाजपा सरकार को इस कदम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. पिछले साल दिसंबर में ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों पर मामला संज्ञान में लाए जाने पर – स्थानीय निकाय चुनाव होने से एक महीने पहले- सुप्रीम कोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग (एसईसी) को सामान्य श्रेणी के तहत ओबीसी सीटों को फिर से अधिसूचित करने के लिए कहा था.

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को 2010 के संविधान पीठ के फैसले का पालन करने का भी निर्देश दिया, जिसमें आरक्षण के लिए ‘ट्रिपल टेस्ट’ प्रक्रिया का पालन करने की बात कही गई है.

इस प्रक्रिया में पहले डेटा एकत्र करने और स्थानीय निकायों में आरक्षण की जरूरत का आकलन करने के लिए एक आयोग गठित करने और फिर आवश्यक कोटा पर आयोग की सिफारिशों की समीक्षा करने की आवश्यकता होती है. तीसरा चरण यह सुनिश्चित करना है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को मिलाकर कुल सीटों पर आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक न हो. सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए मप्र सरकार को चार महीने की समय दिया था.

इस बीच मप्र सरकार ने एसईसी से परिसीमन का काम अपने हाथ में ले लिया. जनवरी 2022 में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों को रद्द कर दिया और प्रशासकों की नियुक्ति की.

मप्र सरकार ने मई में राज्य के पिछड़ा जाति कल्याण आयोग द्वारा तैयार एक रिपोर्ट प्रस्तुत की और तर्क दिया कि स्थानीय चुनावों में ओबीसी को 35 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई कर रही जस्टिस ए.एम. खानविलकर की बेंच इससे प्रभावित नहीं हुई. कोर्ट ने कहा कि सरकार ने ट्रिपल टेस्ट की प्रक्रिया पूरी नहीं की है. पीठ ने ऐसा करने के लिए और समय देने से भी इनकार कर दिया.

संविधान में हर पांच साल में चुनाव कराने की व्यवस्था है. लेकिन मप्र में 23,200 से अधिक स्थानीय निकायों के चुनाव पिछले दो साल से ज्यादा समय से लटके हुए हैं. मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, नियम-कायदों की धज्जियां उड़ने की कगार पर है लिहाजा चुनावों में देरी नहीं की जा सकती. इसके बाद कोर्ट ने एसईसी को ओबीसी के लिए आरक्षण के बिना स्थानीय निकाय चुनावों को अधिसूचित करने का आदेश दिया गया.

यह फैसला, मामले में कमलनाथ के हस्तक्षेप से पहले मौजूद यथास्थिति की वापसी को दर्शाता है. 2014 तक स्थानीय निकाय चुनावों में अनुसूचित जातियों के लिए 16 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए 20 प्रतिशत और ओबीसी के लिए 14 प्रतिशत सीटें आरक्षित थीं.

मुश्किल स्थिति में भाजपा, कांग्रेस हुई आक्रामक

सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कांग्रेस के हाथ में एक बड़ा हथियार दे दिया है. वह अब अदालत के फैसले को रद्द करने के लिए विधानसभा के विशेष सत्र बुलाने और केंद्र को ओबीसी वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को ठोस रूप देने का प्रस्ताव भेजने की मांग कर रही है.

कांग्रेस विधायक कमलेश्वर पटेल ने दिप्रिंट को बताया, ‘यदि शिवराज सरकार गंभीर है, तो उसे ओबीसी आरक्षण के लिए एक प्रस्ताव पारित करने के लिए विधानसभा सत्र बुलाना चाहिए’ उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा, ‘लेकिन यह आरक्षण को नकारने की आरएसएस की चाल है’

दिप्रिंट से बात करते हुए एक कांग्रेसी नेता और याचिकाकर्ता जफर इस्लाम ने भी इसी तरह के आरोप लगाए. उन्होंने कहा, ‘राज्य सरकार अभी भी ट्रिपल टेस्ट पूरा करने के लिए समय मांग रही है. उन्हें कितना समय चाहिए?’

दूसरी तरफ भाजपा नेता इसके लिए कांग्रेस को दोषी ठहराने में लगे हुए हैं. उनके मुताबिक आज जो हालात बने हैं उसके लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. अगर कांग्रेस नेता कोर्ट में नहीं जाते तो आरक्षण पर रोक नहीं लगती.

गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया कि कांग्रेस पाखंड कर रही है. उन्होंने कहा, ‘ पहले कांग्रेस अदालत गई और अब वह ओबीसी आरक्षण की बात कर रही है. भाजपा ने मध्य प्रदेश को ओबीसी समुदाय (चौहान, उमा भारती और बाबूलाल गौर) के तीन मुख्यमंत्री दिए हैं. लेकिन कमलनाथ ने तो ओबीसी नेता (दिवंगत) सुभाष यादव को धोखा दिया ताकि वह मुख्यमंत्री बन सकें.

हालांकि बीजेपी में ओबीसी नेता मौजूदा हालात से खफा हैं.

मप्र में बीजेपी ओबीसी मोर्चा के प्रमुख भगत सिंह कुशवाह ने दिप्रिंट को बताया: ‘हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हैं, लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस समुदाय की आबादी 50 फीसदी है, उसे सिर्फ 14 फीसदी आरक्षण ही मिल रहा है? यह समुदाय के साथ अन्याय है. अदालत को इस बड़े मुद्दे पर विचार करना चाहिए’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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