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‘गुरुजी की बहू’ – कौन हैं सीता सोरेन और उनका बीजेपी में शामिल होना झारखंड की राजनीति पर कैसे असर डालेगा

JMM की महासचिव रहीं और तीन बार की विधायक सीता सोरेन, अपने देवर हेमंत सोरेन की सरकार की मुखर आलोचक थीं. शिबू सोरेन को लिखे इस्तीफे में उन्होंने कहा कि उन्हें और उनके परिवार को दरकिनार कर दिया गया है.

मंगलवार को नई दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में झारखंड के पार्टी प्रभारी लक्ष्मीकांत बाजपेयी और पार्टी महासचिव विनोद तावड़े की मौजूदगी में सीता सोरेन बीजेपी में शामिल हुईं | एएनआई

नई दिल्ली: झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के संस्थापक शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन मंगलवार को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गईं और उन्होंने जेएमएम नेतृत्व पर अपनी और अपने परिवार की उपेक्षा करने का आरोप लगाया.

झामुमो की महासचिव रहीं सीता तीन बार की विधायक हैं. शिबू सोरेन को संबोधित अपने इस्तीफे में उन्होंने कहा कि वह बहुत दुखी मन से इस्तीफा दे रही हैं, साथ ही यह भी कहा कि उनके पति ने झामुमो के लिए बहुत समर्पण और बलिदान के साथ काम किया है.

पत्र में लिखा है, “झारखंड आंदोलन के एक अग्रणी योद्धा और एक महान क्रांतिकारी मेरे दिवंगत पति दुर्गा सोरेन के निधन के बाद से मैं और मेरा परिवार लगातार उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं. पार्टी और परिवार वालों ने हमें अलग-थलग कर दिया है. यह मेरे लिए बेहद दर्दनाक रहा है.’ मुझे उम्मीद थी कि समय के साथ स्थिति में सुधार होगा, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ.”

झामुमो के कई लोगों ने दिप्रिंट को बताया कि उनका असंतोष रातों-रात नहीं जगा है, बल्कि पिछले कई सालों से पनप रहा था.

2009 में, सीता ने अपने पति को खो दिया, जो झामुमो के संरक्षक शिबू सोरेन के सबसे बड़े बेटे और झारखंड राज्य आंदोलन का ‘अभिन्न’ हिस्सा होने के नाते संभवतः पार्टी की बागडोर संभालते.

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झामुमो के एक नेता ने कहा, “उनकी (दुर्गा सोरेन की) असामयिक मृत्यु की वजह से उनका राजनीतिक करियर काफी छोटा रहा और इसने हेमंत सोरेन के लिए पार्टी का उत्तराधिकारी बनने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया. उनके निधन के बाद, उनकी पत्नी और बेटियां पार्टी के भीतर शक्ति का एक अलग केंद्र बन गईं और पार्टी के भीतर उन्हें लगातार उपेक्षित महसूस हुआ.”

दुमका से जामा विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करने वाली सीता सोरेन ने 19 मार्च को न केवल पार्टी से इस्तीफा दे दिया, बल्कि पार्टी विधायक के रूप में भी इस्तीफा दे दिया. उन्होंने दावा किया कि उन्हें और उनके परिवार को दरकिनार कर दिया गया है.

वह अपने देवर हेमंत सोरेन की सरकार की भी मुखर आलोचक रही हैं. उदाहरण के लिए, अप्रैल 2022 में, उन्होंने हेमंत सोरेन सरकार पर आरोप लगाया कि वह खनिज समृद्ध राज्य झारखंड में “ज़मीन की लूट” को रोकने में असफल रही है. हालांकि, झामुमो के भीतर कई लोगों का दावा है कि भले ही वह पार्टी से असंतुष्ट थीं, लेकिन उनका इसे छोड़ने का कोई इरादा नहीं था.

‘वोट के बदले नोट’ मामला

सीता सोरेन का नाम ‘वोट के बदले नोट’ मामले में आया था. उन पर 2012 के राज्यसभा चुनाव में एक निर्दलीय उम्मीदवार से रिश्वत लेने का आरोप है.

पटना उच्च न्यायालय द्वारा उनके खिलाफ भ्रष्टाचार की एफआईआर रद्द करने से इनकार करने के बाद सीता सोरेन ने शीर्ष अदालत का रुख किया था. उन्होंने जेएमएम रिश्वत मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1998 के फैसले का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि एमपी/एमएलए को रिश्वत के मामलों में भी छूट है. शीर्ष अदालत के समक्ष उनका तर्क यह था कि उन्होंने उस चुनाव में मतदान नहीं किया था और इसलिए उन्हें 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत संरक्षण प्राप्त है, जो कि ऐसे मामलों में कानून निर्माताओं को संरक्षण प्रदान करता है.

इस महीने की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट ने 1998 के जेएमएम रिश्वत मामले के फैसले को खारिज कर दिया, जिससे भ्रष्टाचार के मामले में शामिल सांसदों को मिली छूट खत्म हो गई.

झामुमो नेताओं ने कहा कि परिणामस्वरूप, सीता सोरेन को विशेष सीबीआई अदालत के समक्ष मुकदमे का सामना करना पड़ेगा, जो पहले से ही 2012 के खरीद-फरोख्त मामले में गवाहों से पूछताछ कर रही है.

झामुमो नेता मनोज पाण्डेय ने कहा, “सीबीआई के पास उनके खिलाफ खरीद-फरोख्त का मामला है. उन पर दबाव डाला गया होगा और उन्होंने यह सोचकर इस्तीफा दिया गया होगा कि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है. हमें पूरा यकीन है कि अब उन्हें उस मामले में राहत मिल जाएगी. अपने आप को बचाने के लिए उन्होंने बीजेपी ज्वाइन की है.”

पार्टी की संभावनाओं पर असर

यह पूछे जाने पर कि आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, पाण्डेय ने कहा कि इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.

उन्होंने कहा, “एक परसेंट भी असर नहीं होगा इलेक्शन पर. इससे पहले भी इससे बड़े नेता झामुमो छोड़ कर गए हैं और फिर वे खुद वापस आ गए हैं. यह आत्मघाती कदम है. यह पार्टी गुरुजी की है और इसे इस मुकाम तक पहुंचाने में हेमंत सोरेन ने मदद की है.”

झामुमो में कई लोगों का दावा है कि सीता सोरेन के बाहर निकलने से पार्टी और इसकी चुनावी संभावनाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

पांडेय ने कहा, “फैमिली से इनका वजूद है. दुर्गा जी (सीता सोरेन के पति) ने पार्टी को बहुत आगे बढ़ाया और इनका बीजेपी में शामिल होना उनके सपनों को तोड़ना है. पार्टी के भीतर ऐसे वरिष्ठ विधायक हैं जो अभी भी कैबिनेट का हिस्सा नहीं हैं और उन्होंने कभी शिकायत नहीं की लेकिन उन्होंने हमेशा अपना असंतोष व्यक्त किया है.”


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‘विकास से कोसों दूर है झारखंड’

वरिष्ठ भाजपा नेता विनोद तावड़े ने कहा, “भाजपा ने सीता सोरेन को ‘झारखंड की नेता’, ‘आदिवासी नेता’ कहकर पार्टी में उनका स्वागत किया. “झारखंड में एक और ताकत बीजेपी की बढ़ी है. विधानसभा चुनाव में इसका अलग असर दिखेगा,”

दिल्ली में बीजेपी में शामिल होने के दौरान सीता सोरेन ने कहा कि वह जेएमएम छोड़ने के बाद ‘पीएम मोदी के महापरिवार’ में शामिल हो रही हैं. उन्होंने कहा, “मैंने भी बहुत संघर्ष किया झामुमो के साथ 14 साल तक रही. मेरे ससुर शिबू सोरेन जी और मेरे पति के नेतृत्व में झारखंड को अलग राज्य बनाने का सपना साकार हुआ.”

अपने ज्वाइनिंग स्पीच में सीता सोरेन ने राज्य आंदोलन में अपने पति दुर्गा सोरेन के योगदान पर जोर दिया. उन्होंने कहा, “यह उनका सपना था..झारखंड को एक विकसित राज्य कैसे बनाया जाए. मेरे पति ने बहुत मेहनत की और ‘जल, जंगल, ज़मीन’ के लिए संघर्ष किया. लेकिन उनकी लड़ाई अधूरी रह गई क्योंकि जब मेरे पति जीवित थे तो वह राजनीति में आना चाहते थे, विधायक बनना चाहते थे और राज्य की सेवा करना चाहते थे. लेकिन वह एक सपना ही रह गया.”

सीता सोरेन ने बीजेपी को राज्य की सभी 14 सीटों पर जीतने के संकल्प के साथ कहा, “उनके सपने को पूरा करने के लिए मैं विधायक बनी. लेकिन इन 24 वर्षों में हमें जिस स्थान पर पहुंचना चाहिए था हम नहीं पहुंच सके. जनता बदलाव चाहती है और मुझे भी लगता है कि अलग राज्य सुनिश्चित करने में मेरे पति के योगदान के बावजूद झारखंड विकास से कोसों दूर है. इसलिए, मैंने मोदी जी के महापरिवार में शामिल होने का फैसला किया.”

इसका झारखंड चुनाव पर क्या असर पड़ेगा

2019 के आम चुनावों में, भाजपा ने झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से 11 पर जीत हासिल की थी, जबकि उसकी सहयोगी आजसू ने एक सीट हासिल की थी. झामुमो और कांग्रेस दोनों के पास एक-एक सीट है. आगामी लोकसभा चुनावों के लिए, भाजपा ने पहले ही 11 सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, जबकि इंडिया ब्लॉक ने अभी तक अपने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है क्योंकि सीट-बंटवारे को लेकर झामुमो और कांग्रेस सहित सहयोगियों के बीच बातचीत जारी है.

भाजपा की नज़र आदिवासी वोट बैंक पर है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 28 लाख कमजोर आदिवासी समूहों के लिए 24,000 करोड़ रुपये के कल्याण मिशन की घोषणा की थी. बिरसा मुंडा की प्रतिमा के सामने खड़े होकर मोदी ने खूंटी में भाषण दिया था लेकिन उनका संदेश सिर्फ झारखंड तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उनका लक्ष्य देश भर के आदिवासी इलाकों पर था. 2019 में, भाजपा ने 47 आरक्षित सीटों में से 31 और 2014 में 47 में से 27 सीटें जीती थीं. बीजेपी यह संख्या और बढ़ाना चाहती है क्योंकि एनडीए 400 का आंकड़ा पार करना चाहता है.

चाहे वह हेमंत सोरेन के पार्टी की कमान संभालने की बात हो या फिर हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन के बढ़ते दबदबे की, सीता परिवार के भीतर अपने असंतोष को व्यक्त करने में हमेशा मुखर रही हैं. 2021 में उस वक्त सबकी त्योरियां चढ़ गईं, जब सीता सोरेन की बेटियों ने दुर्गा सोरेन सेना नाम से एक अलग संगठन बनाया. हालांकि, उन्होंने दावा किया था कि यह एक गैर-राजनीतिक संगठन है, लेकिन पार्टी के भीतर कई लोगों का मानना था कि सीता इसके जरिए सोरेन की विरासत का उपयोग करके एक और शक्ति का केंद्र बनाने की कोशिश कर ही हैं.

सीता इस बात से सीएम पद के लिए नामित संभावित उम्मीदवारों में से हेमंत सोरेने की पत्नी कल्पना सोरेन का नाम होने से नाखुश थीं और उन्होंने इस कदम का खुले तौर पर विरोध किया था.

जेएमएम के एक पदाधिकारी ने कहा, “सीता सोरेन, सोरेन की विरासत नहीं ले सकतीं क्योंकि यह पहले ही राजनीतिक रूप से हेमंत को हस्तांतरित हो चुकी है जिन्होंने अपनी क्षमता साबित कर दी है. ठीक वैसे ही जैसे लोक जनशक्ति पार्टी को लेकर चिराग पासवान और पशुपति पारस के बीच लड़ाई में चिराग ही विजयी हुए हैं. भाजपा को इस बात का अहसास है, लेकिन वह सोरेन परिवार के भीतर भी उसी तरह से अशांति पैदा करने की कोशिश कर रही है जिस तरह से उसने पहले अखिलेश यादव सौतेले भाई प्रतीक की पत्नी अपर्णा यादव को भाजपा में शामिल करके किया था. उनका पार्टी में प्रवेश दिखावे के लिए था.”

जहां तक बीजेपी की बात है तो इस कदम के पीछे का तर्क बताते हुए पार्टी के एक पदाधिकारी ने कहा कि गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री (रघुबर दास) के साथ बीजेपी का प्रयोग विफल होने के बाद, वह बाबूलाल मरांडी को वापस ले आई और पार्टी आदिवासी राजनीति व सीता सोरेन पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है. सोरेन उस भूमिका में बिल्कुल फिट बैठती हैं.

एक बीजेपी नेता ने कहा, “वह अकेले एक बड़ा चेहरा नहीं हैं लेकिन पार्टी सोरेन की विरासत पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है. झारखंड में आदिवासी बड़े पैमाने पर दो श्रेणियों में आते हैं – ईसाई और गैर-ईसाई – जिनमें से पहला मुख्य रूप से कांग्रेस का समर्थन करता है और दूसरा जेएमएम का. भाजपा झामुमो वोटबैंक पर ध्यान केंद्रित कर रही है और ‘गुरु जी की बहू’ उस आदिवासी राजनीति की भूमिका में अच्छी तरह से फिट बैठती है.’

भाजपा यह भी उम्मीद कर रही है कि सीता सोरेन के बाहर निकलने के बाद चुनाव से पहले इस तरह के और दलबदल हो सकते हैं. भाजपा नेता ने आगे कहा, “हेमंत सोरेन जितने लंबे समय तक ईडी की हिरासत में रहेंगे, पार्टी चलाना उतना ही मुश्किल होगा.”

भाजपा के वरिष्ठ नेता सुनील कुमार ने विश्वास जताया कि सीता सोरेन की एंट्री से पार्टी की चुनावी संभावनाएं और मजबूत होंगी. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “वह एक प्रमुख आदिवासी नेता हैं और देश के लिए पीएम मोदी के दृष्टिकोण में विश्वास व्यक्त करते हुए उन्होंने पार्टी में शामिल होने का फैसला किया है. वह राज्य में चल रही शैडो गवर्नमेंट और वहां कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं होने के बारे में काफी मुखर रही हैं. उनके बीजेपी ज्वाइन करने का राज्य भर में सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और इससे भाजपा को आदिवासी क्षेत्र में प्रवेश करने में मदद मिलेगी,”

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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