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पहले के मुकाबले अब ज्यादा महिलाएं बन रही हैं IAS लेकिन कुछ को ही मिल पाता है DM का पद

महिलाओं के बारे में सोचा जाता है कि वे ‘9-टू-5’ वाली जिला मजिस्ट्रेट होती हैं, जिन्हें घर के लिए भी समय निकालना होता है और वे सख्त भी नहीं होती हैं. इसलिए ज्यादातर को कलेक्टर नहीं बनाया जाता.

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भारतीय प्रशासनिक सेवा या आइएएस में यूपीएससी के लोक सेवा परीक्षाओं के जरिए 2014 से महिलाओं की संख्या औसतन तकरीबन 30 फीसदी है, मगर देश भर में महिलाओं को जिला मजिस्ट्रेट या डीएम जैसा अहम पद मिलने का औसत 19 फीसदी से ज्यादा नहीं है.

कुछ हफ्ते पहले केरल सरकार ने अपने 14 में से दसवें जिले में एक महिला आइएएस को डीएम बनाया. इससे वह देश में महिला डीएम के मामले में दूसरे नंबर का राज्य हो गया है. इस मामले में दिल्ली के बाद केरल का नंबर है. राजधानी दिल्ली में 11 में से नौ डीएम महिलाएं हैं. केरल और दिल्ली की मिसाल आइएएस बनने की ख्वाहिश रखने वाली लड़कियों के लिए उत्साह बढ़ाने वाली हो सकती है, क्योंकि डीएम का पद अफसरों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण बना हुआ है. लेकिन देश के बाकी हिस्सों में हालात निराशाजनक ही हैं.

विभिन्न राज्य सरकारों की वेबसाइट पर उपलब्ध डेटा के मुताबिक, कुल 716 जिलों में सिर्फ 142 जिलों में डीएम महिलाएं हैं. आबादी के लिहाज से 20 बड़े राज्य हरियाणा (4 फीसदी), छत्तीसगढ़ (7 फीसदी), बिहार (8 फीसदी), गुजरात (9 फीसदी) और मध्य प्रदेश (10 फीसदी) वगैह इस मामले में काफी पीछे हैं. मसलन, हरियाणा के 22 जिलों में सिर्फ एक (हिसार) में महिला डीएम है, जो महिलाओं के खिलाफ हिंसक अपराध में खासकर चर्चित है.

आबादी के लिहाज से बेहतर प्रदर्शन वाले राज्यों में दिल्ली (80 फीसदी), केरल (71 फीसदी), पश्चिम बंगाल (39 फीसदी), असम (27 फीसदी) और पंजाब (27 फीसदी) हैं. आंकड़ों के मुताबिक टॉप पांच राज्यों में भी असम और पंजाब 30 फीसदी से कम महिला डीएम हैं.

रमनदीप कौर द्वारा ग्राफिक | दिप्रिंट
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बीजेपी बनाम गैर-बीजेपी शासित राज्य

आंकड़ों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि बीजेपी शासित राज्यों का प्रदर्शन गैर-बीजेपी राज्यों से बदतर है. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) शासित राज्यों में महिला डीएम का औसत प्रतिनिधित्व 14 फीसदी है (कुल 394 जिलों में 57) है, जबकि गैर-एनडीए दलों के राज वाले राज्यों में दोगुना यानी 26 फीसदी है (कुल 302 जिलों में 81). बेहतर प्रदर्शन वाले केरल और दिल्ली को गैर-एनडीए शासित राज्यों की सूची से हटा लें तब महिला डीएम 22 फीसदी हैं (277 में 62).

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मसलन लगभग सभी एनडीए शासित पूर्वोंत्तर के राज्यों में देश में सबसे कम महिला डीएम का प्रतिनिधित्व है. सिक्किम और नगालैंड के क्रमश: छह और 11 जिलों में एक भी महिला डीएम नहीं हैं. अरुणाचल और त्रिपुरा में क्रमश: 17 फीसदी और 12 फीसदी महिला प्रतिनिधित्व है. मणिपुर, मेघालय और असम में अपने पड़ोसियों से कुछ बेहतर स्थिति है. वहां क्रमश: 20 फीसदी, 20 फीसदी और 27 फीसदी महिला प्रतिनिधित्व है.

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे एनडीए-शासित बड़े राज्यों में यह प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय औसत से कम 16 फीसदी और 15 फीसदी है.

गैर-एनडीए शासित राज्यों में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाड़, राजस्थान और ओडिशा में महिला डीएम प्रतिनिधित्व क्रमश: 26 फीसदी, 15 फीसदी, 19 फीसदी, 23 फीसदी, 22 फीसदी और 20 फीसदी है.

रमनदीप कौर द्वारा ग्राफिक | दिप्रिंट

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हिंसाग्रस्त इलाकों में महिला प्रतिनिधित्व सबसे कम

विश्लेषण के आंकड़ों के मुताबिक, 2021 तक 47 जिले उग्र वामपंथ से ग्रस्त बताए गए हैं, इनमें सिर्फ सात जिलों में महिला डीएम हैं. यह आंकड़ा 15 फीसदी बैठता है. जम्मू-कश्मीर में 20 फीसदी (20 जिलों में सिर्फ 4 में) से ज्यादा महिला डीएम नहीं हैं.

ये आंकड़े महिला अफसरों की बताई कहानियों से मेल खाते हैं, जिनमें तबादलों और नियुक्ति में भेदभाव का शिकार होने का आरोप लगाया गया है. हालांकि महिला आफसरों की तादाद 1970 के दशक में 10 फीसदी से कम थी, जो अब बढक़र करीब 30 फीसदी हो गई है.

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महिलाओं को ‘9-टू-5 वाला आइएएस अफसर’ माना जाता है

अपनी किताब एव्रिथिंग यू एवर वांटेड टु नो अबाउट ब्यूरॉक्रेसी बट वर अफ्रेड टु आस्क में आखिर में पूर्व आइएएस अधिकारी रेणुका विश्वनाथन ने लिखा है कि महिलाओं को जिला कलेक्टर बनाने से इनकार करने का चलन आजादी के बाद शुरुआती दशकों से ही बेहिसाब है. डीएम का दायित्व चौबीस घंटे का होता है, इसलिए महिलाओं को घर और परिवार की जिम्मदारियों की वजह से उपयुक्त नहीं माना जाता. घर के दायित्व पर जोर उनके वरिष्ठ अधिकारी भी देते हैं. इसके अलावा नेताओं के राजनैतिक हस्तक्षेप और वरिष्ठ लोगों के अहम पद पर जाने की जरूरतें भी महिलाओं के आड़े आती हैं. मसलन, नगालैंड में प्रादेशिक प्रशासनिक सेवा के अधिकारी डीएम हैं, वहां कोई महिला डीएम नहीं है (आइएएस के मुकाबले प्रादेशिक सेवा के अधिकारियों के नेताओं से बेहतर ताल्लुकात होते हैं).

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लिहाजा, महिलाएं उन्हीं पदों तक सीमित रहती हैं, जिसमें 9-टू-5 की सेवा होती है या मजाक में जिसे ‘रेगुलर’ जीवन-शैली कहा जाता है. ऐसे पदों पर सचिवालय में डेस्क पर ज्यादा समय देना होता है और धूल भरी सडक़ों की खाक नहीं छाननी पड़ती और इस तरह शुरुआत से ही उनके करियर में ऊंचे सरकारी पदों तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है.

डीएम की नियुक्ति के स्तर पर ही भेदभाव का शिकार महिलाओं के लिए आश्चर्य नहीं कि ऊंचे सरकारी पदों पर उनका प्रतिनिधित्व बेहद कम है. इंडिया स्पेंड के 3 जनवरी 2022 तक आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि केंद्र में कुल 92 सचिवों में (13) महिलाएं सिर्फ 14 फीसदी ही थीं और मुख्य सचिव तो महज दो थीं. सबसे बढक़र यह कि आज तक कोई महिला कैबिनेट, गृह या रक्षा सचिव नहीं बनी.

(लेखिका पत्रकार और न्यूयॉर्क के कोलंबिया यूनिवर्सिटी के दक्षिण एशिया विभाग से एमए कर रही हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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