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क्या पुलिस कमिश्नरी प्रणाली को लागू करने से कानून व्यवस्था सुचारू रूप से चल पायेगी

2012, 2018 और 2019 में भोपाल और इंदौर में आयुक्त प्रणाली शुरू करने का प्रयास किया गया था, लेकिन आईएएस, एसडीएम और राजस्व अधिकारियों ने परामर्श के बिना अपनी शक्तियों को कम करने पर आपत्ति जताई थी.

मध्य प्रदेश पुलिस | फोटो: mppolice.gov.in

मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 9 दिसंबर 2021 को अधिसूचना जारी की गयी कि भोपाल और इंदौर में पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली लागू की जाएगी, जिसमें भोपाल और इंदौर के मेट्रोपोलिटन क्षेत्र में आने वाले पुलिस थानों की कमान पुलिस आयुक्त के हाथों में दी जाएगी. इस अधिसूचना के तहत सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 20 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए, पुलिस आयुक्त को कार्यपालक मजिस्ट्रेट की शक्तियां दी गईं और अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त किया है.

कमिश्नरी प्रणाली शुरू में बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास के प्रेसीडेंसी क्षेत्रों में अंग्रेज़ों द्वारा शुरू की गई थी और इसे 1960 से 1965 के बीच अन्य शहरों में पेश किया गया. इससे पहले 2012, 2018 और 2019 में भोपाल और इंदौर में आयुक्त प्रणाली शुरू करने का प्रयास किया गया था, लेकिन आईएएस, एसडीएम और राजस्व अधिकारियों ने परामर्श के बिना अपनी शक्तियों को कम करने पर आपत्ति जताई.

इस प्रणाली के माध्यम से, पुलिस आयुक्त एक एकीकृत पुलिस कमांड संरचना का प्रमुख होता है और एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट की कुछ न्यायिक शक्तियों के लिए भी जिम्मेदार होता है, जिसमें निवारक गिरफ्तारी का आदेश देने, धारा 144 के तहत आदेश पारित करने और लाइसेंस देने की शक्ति शामिल है. आयुक्त न्यायपालिका के बजाय सीधे राज्य सरकार को रिपोर्ट करता है.

पुलिस आयोग की छठी रिपोर्ट के अनुसार, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि कमांड संरचना को एकीकृत करने से न केवल कानून और व्यवस्था मजबूत होगी बल्कि जिलाधिकारियों के साथ समन्वय में देरी को दूर किया जा सकेगा.

भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में ‘पुलिस व्यवस्था’ राज्य सरकार के दायरे में आती है और राज्य सरकार के पास सत्ता है की वह इस विषय में कानून बनाये, पर उसी संविधान के मूल ढांचे में ‘शक्तियों के पृथक्करण’ का सिद्धांत भी है जिसमें न्यायिक व्यवस्था की स्वायत्ता पर ज़ोर दिया गया है. कमिश्नरेट प्रणाली के तहत पुलिस आयुक्त के पास कुछ आपराधिक मामलों को निर्धारित करने की न्यायिक शक्तियां भी दी गई है जो कि इस सिद्धांत के विरुद्ध हैं.

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28 नवंबर को छपी खबर में मध्य प्रदेश के उच्च पुलिस अधिकारी के हवाले से कहा गया है कि ‘पुलिस तंत्र द्वारा त्योहारों के समय पर नियमित रूप से ‘आदतन अपराधियों’ को नोटिस और बंध पत्र भेजे जाते हैं. जिसका अनुपालन डीएम द्वारा नहीं हो पाता क्योंकि वह उनके लिए मात्र एक प्रशासनिक प्रक्रिया है और इस पुलिस अधिकारी का मानना है कि कमिश्नरेट प्रणाली लागू होने से उसमें बदलाव आएगा.जबकि इन मुद्दों पर हमारा अनुभव कुछ अलग दर्शाता है. यह देखा गया है कि पुलिस महकमा कानून व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर कुछ खास शोषित तबको को निशाना बनाता है.  चाहे वो आबकारी कानून हो या ‘आदतन अपराधी’ की कानूनी श्रेणी, इसका दुरूपयोग ज़्यादातर विमुक्त और पिछड़े समुदाय के खिलाफ होता है. कमिश्नरेट प्रणाली लागू होने के बाद इस विषय से जुडी न्यायकि शक्तियां भी पुलिस आयुक्त के पास होंगी, जिसमें पहले जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी पड़ती थी. यह संभावित है कि इस सत्ता के केंद्रीकरण से इन मामलों में पुलिस शक्तियों का दुरुपयोग बढ़ेगा.

महामारी के समय भी, जब मध्य प्रदेश में कमिश्नरेट प्रणाली को लागू भी नहीं किया गया था, तब भी हमारी शोध यह दिखती है कि पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी बढ़ी और प्रशासन द्वारा विभिन्न जिलों में धारा 144 के तहत आदेश बिना किसी तर्क के लागू किये गए और इसके कारण सामान्य जनमानस पर खासकर के वंचित और शोषित तबको के लोगों के जीवन और उनकी आजीविका पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा. इसलिए पुलिस के हाथों में शक्तियों का केंद्रीकरण चिंताजनक है.

केंद्रीकरण होने की वजह से पुलिस की जवाबदेही कम होगी

यदि हम उन जगहों का उदाहरण ले जहां पहले से यह प्रणाली लागू की गई है तो यह बात और साफ़ नज़र आती हैं. हाल ही में पारित सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट के विरोध में हुए आंदोलन को देखें तो यह बात साफ़ उभर आती है. जब कई राज्यों में इस कानून का विरोध करने हेतु लोगों ने अपने लोकतांत्रिक अधिकार के तहत धरने और प्रदर्शन किये, तब पुलिस और सत्ता तंत्र ने इनका दमन करने के लिए इस प्रणाली के तहत दी गई वैधानिक छूट का खूब दुरुपयोग किया. यह महत्वपूर्ण है कि लखनऊ में उसी समय कमिश्नरेट प्रणाली की शुरुआत हुई थी, जब जनवरी 2020 में ये विरोध प्रदर्शन चल रहे थे.

उसी दौरान यह बात भी सामने आयी कि अहमदाबाद, जहां कमिश्नरेट प्रणाली लागू है वहां अप्रैल 2016 से 4 वर्षों तक बिना कारण धारा 144 के तहत आदेश दोहराए गए, जो न्यायालय की नजर में गैरकानूनी है. धारा 144 के तहत दिए गए आर्डर की वैधानिक अवधी ज़्यादा से ज़्यादा 6 महीनों की होती है और इसे लागू किये जाने के लिए प्रामाणिक कारण और लोगों के अधिकारों पर कम से कम रोक होनी चाहिए और धारा 144 के तहत आदेश बिना किसी प्रामाणिक कारण के दोहराना गैर-कानूनी है. फिर भी अहमदाबाद में 4 वर्षों तक बिना कारण यह आदेश दोहराए गए और इसका दुरुपयोग हुआ.

कमिश्नरेट प्रणाली को लागू करने के पक्ष में यह तर्क दिए गए कि इसके लागू होने से कानून व्यवस्था सुचारू रूप से चल पायेगी और इस व्यवस्था में ‘सिंगल कमांड सेंटर’ होने कारण त्वरित फैसले लिए जा सकते हैं, जिससे अपराध में कमी आएगी. जबकि हमारा इस विषय पर काम करने का अनुभव यह दर्शाता है कि इसके परिणामस्वरूप सत्ता का केंद्रीकरण होने की वजह से पुलिस की जवाबदेही कम होगी और सत्ता और शक्तियों का दुरुपयोग होने की चिंता है.

( संजना मेश्राम, हर्ष किंगर और मृणालिनी रवींद्रनाथ क्रिमिनल जस्टिस एंड पुलिस एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट में रिसर्च एसोसिएट्स हैं. व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं.)


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