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रूसी हमले में मारे गए छात्र नवीन को भारत में क्यों नहीं मिला था एडमिशन

नवीन शेखरप्पा ज्ञानगोडार की खारकीव में हत्या कर दी गई थी. लेकिन जिस चीज ने उन्हें यूक्रेन जाने के लिए प्रेरित किया, वह NEET था लेकिन ये है पैसे और भारत में सीटों की कमी की कहानी.

नवीन शेखरप्पा यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे..

कर्नाटक के नवीन शेखरप्पा ज्ञानगोडार मेडिकल की पढ़ाई करने यूक्रेन गए थे और वर्तमान संकट के बीच एक दिन जब वे खाने का सामान खरीदने की लाइन में लगे थे, तब रूसी फौज की गोलाबारी में उनकी मौत हो गई. उनकी मौत की खबर परिवार के लिए बहुत बड़ा दुख लेकर आई.

उनके पिता शेखरप्पा गौड़ा ने मीडिया के सवालों की जवाब देते हुए कहा कि नवीन डॉक्टरी पढ़ने यूक्रेन के खारकीव इसलिए गए थे, क्योंकि भारत के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई बहुत महंगी है और यहां से भी अच्छी शिक्षा यूक्रेन में इससे कम खर्च पर मिल जाती है. उन्होंने भारत में जाति आधारित सीट अलॉटमेंट यानी रिजर्वेशन को भी नवीन के यूक्रेन जाने की वजह बताया. उन्होंने कहा कि नवीन को 12वीं में 97 प्रतिशत नंबर आए थे और वह मेधावी छात्र था.

उनके इस बयान ने सोशल मीडिया में आरक्षण को लेकर बहस छेड़ दी और #ReservationKilledNaveen और #नवीनको_आरक्षण_ने_मारा जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे. आरक्षण विरोधियों का तर्क है कि नवीन जैसे स्टूडेंट्स पढ़ने यूक्रेन जैसे देश में इसलिए जा रहे हैं क्योंकि आरक्षण की वजह से उन्हें यहां सीटें नहीं मिल पा रही हैं. इस बारे में बहस की मांग भी की जा रही है.

नवीन के पिता ने मुख्य रूप से तीन बातें कही हैं.

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1. नवीन को 12वीं में 97% अंक मिले थे, इसके बावजूद उसे भारत में मेडिकल की सीट नहीं मिली.

2. मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए भारत में एक करोड़ रूपए से ज्यादा खर्च करना पड़ता है.

3. भारत में मेडिकल की सीटें जाति के आधार पर अलॉट की जा रही हैं.

दुखी परिवार के प्रति तमाम संवेदनाएं रखते हुए उनकी कही इन तीनों बातों की समीक्षा करते हैं.


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कैसे होता है भारत में मेडिकल में एडमिशन

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद से, भारत में तमाम मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन का एक मात्र जरिया NEET की परीक्षा है. 2016 से यही सिस्टम लागू है. मेडिकल एडमिशन के लिए इससे पहले, ऑल इंडिया पीएमटी, राज्यों के एडमिशन टेस्ट और कुछ राज्यों में 12वीं के नंबर, ये सिस्टम थे. अब 12वीं के नंबर का मेडिकल एडमिशन से संबंध खत्म हो चुका है. 12वीं में कोई स्टूडेंट राज्य या देश का टॉपर हो सकता/सकती है लेकिन इसके आधार पर उसे मेडिकल में एडमिशन नहीं मिल सकता. इसलिए नवीन द्वारा 12वीं में 97% लाने से मेडिकल एडमिशन में उसकी संभावनाओं पर कोई असर नहीं पड़ा.

चूंकि नवीन ने कर्नाटक राज्य बोर्ड से 12वीं की पढ़ाई पास की थी, इसलिए वह और ज्यादा घाटे में था. चूंकि NEET अखिल भारतीय परीक्षा है, इसलिए नीट का आधार CBSE बोर्ड के सिलेबस को बनाया गया है, जो राज्यों के सिलेबस से अलग होता है. CBSE बोर्ड के स्टूडेंट्स 10वीं से 12वीं के बीच जो पढ़ते हैं, वह एक तरह से NEET की तैयारी में काम आ जाता है. यही बात राज्य बोर्ड के स्टूडेंट्स के लिए सच नहीं है. इसकी भरपाई के लिए उनको कोचिंग सेंटर की शरण में जाना पड़ता है. हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि CBSE बोर्ड के स्टूडेंट्स कोचिंग नहीं करते हैं.

NEET लागू होने के बाद, मेडिकल एडमिशन का तरीका किस तरह बदल गया, इसका अध्ययन करने के लिए तमिलनाडु सरकार ने जस्टिस एके राजन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया. इस कमेटी ने पाया कि

– NEET लागू होने के बाद से मेडिकल एडमिशन में CBSE बोर्ड के स्टूडेंट्स का अनुपात बढ़कर 38.84 प्रतिशत हो गया, जबकि NEET से पहले ऐसे छात्रों की संख्या 0.9 प्रतिशत ही थी.

– इसी दौर में राज्य बोर्ड के स्टूडेंट्स के कामयाब होने की दर 98.23 प्रतिशत से घटकर 59.41 प्रतिशत रह गई.

– मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन लेने वाले 99 प्रतिशत स्टूडेंट्स ने किसी न किसी रूप में कोचिंग ली थी.

– सफल अभ्यर्थियों में इंग्लिश मीडियम से पढ़ने वालों की संख्या NEET लागू होने के बाद बढ़ी है.

– वहीं, पहली कोशिश में एडमिशन पाने वालों की संख्या घटी है. 2011-12 में 99.29 प्रतिशत कैंडिडेट पहली कोशिश में एडमिशन हासिल कर रहे थे. 2020-21 में सिर्फ 28.58 प्रतिशत छात्र ही पहली कोशिश में एडमिशन ले पाए.

ये अध्ययन तमिलनाडु के स्टूडेंट्स पर किया गया है. कर्नाटक की सरकार को भी ऐसा अध्ययन कराना चाहिए ताकि उसे पता चले कि NEET का वहां के स्टूडेंट्स पर कैसा असर हुआ है. इतना तो तय है कि NEET को CBSE बोर्ड के सिलेबस के हिसाब से तैयार किया गया है. यानी, राज्य बोर्ड वालों का संघर्ष केंद्रीय बोर्ड वालों से ज्यादा है. साथ ही पहली कोशिश में सफल नहीं होने का मतलब है कि लंबी तैयारी करना और इसमें कोचिंग सेंटर्स की भूमिका आ जाती है.

अमीरों का रिजर्वेशन

भारत में मेडिकल एजुकेशन की सिर्फ 60 प्रतिशत सीटें सरकारी क्षेत्र में है. बाकी सीटें प्राइवेट हैं, जहां मेरिट की ढील है और फीस भी बहुत ज्यादा है. ये फीस 1 करोड़ से लेकर डेढ़ करोड़ तक हो सकती है. नवीन के पिता ने भी महंगी फीस की बात की है. ये दिलचस्प है कि प्राइवेट कॉलेज में पैसे के आधार पर मिलने वाली सीट को लेकर मेरिट के नुकसान की बात नहीं होती, जबकि इन सीटों में बेहद नीचे की रैंकिंग वालों को भी दाखिला मिल जाता है.

प्राइवेट कॉलेज में एडमिशन की शर्त सिर्फ NEET क्वालिफाई कर लेना है, इसलिए सिस्टम ऐसा बनाया गया है ताकि ज्यादा से ज्यादा छात्र क्वालिफाई करें और जिनके पास पैसा है, वे NEET में बेहद खराब परफॉर्म करने के बावजूद भी एडमिशन ले सकें. मिसाल के तौर पर 2021 में अनरिजर्व कैटेगरी से NEET क्वालिफाई करने के लिए 138 नंबर काफी थे, जबकि परीक्षा 720 नंबर की थी. इस वजह से परीक्षा देने वाले 15.44 लाख लोगों में से 8.7 लाख ने क्वालिफाई कर लिया. अब देश में सरकारी और प्राइवेट मिलाकर, MBBS की कुल सीटें 82,000 के आसपास हैं. यानी 8.7 लाख लोगों में से सिर्फ 82,000 का ही एडमिशन होना है. बाकी बचे छात्र या तो अगले साल की तैयारी करते हैं,या किसी और पढ़ाई में या काम में लग जाते हैं या फिर यूक्रेन जैसे देश में मेडिकल की पढ़ाई करने चले जाते हैं.

रिजर्वेशन हो या न हो, ये लगभग 8 लाख एडमिशन न पाने वाले स्टूडेंट्स कोई रास्ता तो जरूर तलाशेंगे. प्रकाशक और इंफ्लूएंसर महेश्वर पेरी हाई फीस और लो कटऑफ के सिस्टम को ‘अमीर लोगों का रिजर्वेशन’ कहते हैं. उनके हिसाब से लो कटऑफ इसलिए रखा जाता है ताकि हर सीट के लिए प्राइवेट कॉलेजों में होड़ मचे.

क्या रिजर्वेशन से मौके घट रहे हैं?

इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप इस मामले को कहां से देख रहे हैं. अगर आप एससी-एसटी-ओबीसी हैं तो आपको लग सकता है कि इसके बिना तो मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन मिलना मुश्किल होगा. आप ये तर्क भी दे सकते हैं कि मेरिट तो पीढ़ियों से संचित होता है जो नेटवर्क और पढ़ने लिखने की पारिवारिक परंपरा से जुड़ी चीज है. वहीं कोई सवर्ण या उच्च कही जाने वाली जाति का कैंडीडेट सोच सकता है कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों में अगर रिजर्वेशन नहीं होता, तो उसके एडमिशन के मौके बेहतर होते. उसके तर्क का आधार ये हो सकता है कि सभी लोगों को बराबर मौके क्यों नहीं मिल रहे हैं. वैसे अब तो भारत में हर समुदाय और वर्ग आरक्षण के दायरे में हैं. जो एससी-एसटी-ओबीसी नहीं हैं वो EWS कोटा पा रहे हैं. ओबीसी की तरह उनके लिए भी 8 लाख रुपए सालाना आमदनी की शर्त है.

एक और बात ये है कि 2021 के NEET-UG के आंकड़ों के मुताबिक, नीट क्वालिफाई करने वाले ओबीसी के 83%, एससी के 80% और ST के 77% कैंडीटेट ऐसे थे, जिन्होंने अनरिजर्व कटेगरी के कट ऑफ यानी 50 परसेंटाइल से बेहतर परफॉर्म किया था. नीट क्वालिफाई करके जिनको भारत में एडमिशन नहीं मिल रहा है, उसमें सबसे ज्यादा ओबीसी हैं, उसके बाद जनरल कटेगरी से अप्लाई करने वाले, फिर एससी और तब एसटी. यानी रिजर्व कटेगरी के 4 लाख से ज्यादा स्टूडेंट्स को नीट क्वालिफाई करने के बाद भी भारत के मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन नहीं मिल रहा है.

नवीन की समस्या आरक्षण नहीं थी. उसके जैसे स्टूडेंट्स की समस्या है मेडिकल में सीटों का कम होना, प्राइवेट में ऊंची फीस, NEET का अमीरपरस्त ढांचा और CBSE बोर्ड का बोलबाला और कोचिंग का जाल. इसके अलावा पैरेंट्स की मेडिकल ही पढ़ाने की जिद भी इसकी एक वजह हो सकती है, जिसके बारे में और अध्ययन किया जाना चाहिए.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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