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‘गाय को अपनी मां कहने वाला समाज क्यों कुलबुला रहा है’

छुट्टा पशु बढ़ रहे हैं, यूपी सरकार ने ही इनकी संख्या करीब आठ लाख बताई है, वास्तव में यह तीन गुना से भी ज्यादा है और तेजी से बढ़ रही है.

छुट्टा पशु | फोटो: अभय मिश्रा

कलिंजर में आकार ले रहा है नया कृषक कानून, गंगापथ की सरकारें उसमें अपना भविष्य देख सकती है.

आजकल इस शहर का नाम भदोही है. ‘आजकल’ इसलिए क्योंकि सरकारें बदलते ही शहर का नाम बदल जाता है. भदोही को अपने कालीन के लिए जीआई टैग मिला हुआ है. उत्तर प्रदेश के इसी जनपद का हिस्सा है कलिंजर.

कलिंजर गंगा तट पर बसा गांव है. काली और दोमट मिट्टी की बेहतरीन उपजाऊ जमीन, जहां सिंचाई के लिए गंगा का पानी उपलब्ध है. इस गांव के सारे किसानों ने पिछले कुछ सालों से पूरी तरह खेती करना बंद कर दिया है. स्पष्ट कर दूं, सारे किसान यानी सारे किसान और पूरी तरह बंद मतलब पूरी तरह बंद. गंगा पथ के इस इलाके में सैकड़ों बीघा जमीनें बिना जुताई के पड़ी हैं और उनमें कांस उग रहा है. छोटे से लेकर बड़े किसान सबका हाल एक जैसा ही है. इस इलाके के रहने वाले पूर्व सांसद गोरखनाथ पाण्डेय के खेत भी सूखे पड़े हैं.

अब कलिंजर की इस तस्वीर को जरा बड़े फलक में देखिए.


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‘गाय को मां कहने वाला समाज कुलबुला रहा है’

प्रयागराज से वाराणसी के बीच गंगा का आस्था मैदान माना जाता है. इस इलाके में हजारों हैक्टेयर भूमि बिना हल चलाए छोड़ दी गई है क्योंकि इन खेतों में नील गाय के सैकड़ों समूहों और छुट्टे पशुओं ने कब्जा कर लिया है. गाय को मां कहने वाला समाज कुलबुला रहा है, उसे आवारा घूमती गायें यमराज के भैसें के समान दिखाई देती है.

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इस इलाके में ज्यादातर छोटी जोत के किसान हैं. औसतन एक या दो बीघा वाले किसान. घर में दूध ना देने वाली गाय के चारे का इंतजाम बेहद मुश्किल होता है. मजबूरन उसे घर से दूर छोड़ दिया जाता है. सिर्फ इलाहाबाद से वाराणसी के बीच यह संख्या लाखों में है. गौ प्रेमी सरकार ने गाय को कसाईखाने ले जाने पर रोक लगा दी है. नील गाय को भी मारने पर पाबंदी है.

समस्या के सरलीकरण के दौर में यदि आपको लगता है कि हिंदू गाय को बचाते हैं और मुसलमान काटते हैं तो तस्वीर के दूसरे पहलू पर नज़र डालिए. गाय को कसाई घर जाने से रोकने से पहले भी गरीब किसान अपनी दूध ना देने वाली गाय को कसाई के हाथों ही बेचता था और खुद को यह समझा लेता था कि वह अपने हाथों से कोई पाप नहीं कर रहा है, जब तक गौमाता उसके पास थी उसने सेवा की. कुछ-कुछ वैसे ही जैसे हर बार माघ मेले या कुंभ मेले में बहुत से लोग अपने बूढ़े मां–बाप को छोड़ जाते हैं क्योंकि वे उनके खाने-पीने का इंतजाम नहीं कर सकते.

हालात यह है कि गौवंश बचाने की सरकारी कोशिशें उन्ही गौशालाओं तक सीमित हैं जो विजुअली रिच हैं यानी किसी करोड़पति के चंदे से चलने वाली ऐसी जगह जहां हजारों की संख्या में गौवंश को संभाला गया है. इन्हीं गौशालाओं की तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर की जाती है लेकिन जमीन पर सच्चाई एकदम अलग है.


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‘छुट्टे पशुओं पर किसानों का गुस्सा बढ़ रहा है’

जब एक किसान अपनी कुछ बिस्वा में बोई सब्जी को चरते हुए देखता है तब वह उस गौवंश के साथ बेहद हिंसक व्यवहार करता है. गाय पर एसिड फेंकना, करंट लगाना या तार के कांटों से बंधे डंडे से गाय को मारना एक आम बात है. यह काम कोई हिंदू या मुसलमान नहीं करता, यह काम एक किसान करता है. ठंड से गाय का मरना भी बढ़ रहा है.

किसान भी मर ही रहा है, प्रधानमंत्री ने उसके खाते में 2000 रूपए भेजे हैं जिससे परिवार का पेट पूरे सीजन नहीं भरा जा सकता. यूपी सरकार पशुओं को छोड़ने से रोकने के लिए तीस रूपए प्रतिदिन देने का दावा कर रही है लेकिन इस पैसे से एक गाय की खुराक का भूंसा भी नहीं आता, हरा चारा और बाकि देखभाल तो भूल ही जाइए.

चारागाह जैसे विकल्प तकरीबन खत्म ही हो गए हैं, लालच ने पंचायत की जमीनों का उपयोग बदल दिया है, अब पशुओं के पास चरने की कोई जगह नहीं है यानी उन्हें अपना जीवन एक ही जगह बंधकर बिताना होगा. जंगल में विचरती गाय सिर्फ भगवान कृष्ण की तस्वीरों की विषयवस्तु हैं.

छुट्टे पशुओं पर किसानों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. यूपी के किसानों का कृषि बिल के विवाद में अब तक कोई पक्ष सामने नहीं आया और सरकार उसे अपने पक्ष में मान रही है जबकि किसान सोच रहा है कि पहले खेती हो फिर उसके बाजार पर चर्चा की जाए.

छुट्टे पशुओं को लेकर सरकारी नीति ना होने से एमपी–यूपी बॉर्डर पर एक धंधा चमकने लगा है. लोग पैसे जमाकर एक डंपर किराए पर लेते हैं उसमें अपने पशुओं को भरते हैं और मिर्जापुर से सटी मध्य प्रदेश के रीवा जिले की सीमा में छोड़ देते हैं, उन्हें बस यह ध्यान रखना होता है कि डंपर चलाने वाला ‘हिंदू’ हो.

इन हजारों हैक्टेयर खाली पड़ी जमीनों की एक और कहानी है. बिचौलियों ने इन जमीनों से भी कमाई का रास्ता निकाल लिया है. होता यूं है कि मंडी में धान की खरीदी के लिए रजिस्ट्रेशन करना होता है. दलाल, मंडीकर्मियों के साथ मिलकर इस जमीन पर धान उगा दिखा देता है और छोटे किसानों से खरीदा गया धान सरकारी रेट पर मंडी में बेच देता है.

छोटे किसानों को खुले बाजार में बमुश्किल हजार ग्यारह सौ रूपए मिलते हैं वहीं एमएसपी 1868 रूपए प्रति क्विंटल है. इस तुरत फुरत लाभ ने मंडी के भीतर ढेर सारे नए बिचौलिए पैदा कर दिए हैं. वे छोटे किसानों के ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन ना कर पाने का पूरा फायदा उठाते हैं.

छुट्टा पशु बढ़ रहे हैं, यूपी सरकार ने ही इनकी संख्या करीब आठ लाख बताई है, वास्तव में यह तीन गुना से भी ज्यादा है और तेजी से बढ़ रही है. आवारा घूम रहे पशु एक समस्या हैं, इसका समाधान धार्मिक चश्में से देखने वाली सरकार किसान के पेट की आग के तपन से जल जाएगी.

कलिंजर के किसानों की खेती छिन गई है, वे दुखी और व्यथित हैं. उन्हें कृषि कानून के ट्रॉफी की तरह पेश मत कीजिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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