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सरकार को एहसास हो रहा है कि केन-बेतवा जोड़ना एक गलत कदम है, लेकिन अब पीछे नहीं हटा जा सकता

इस नामंजूरी की जद में पिछले साल सीईसी यानी केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की सिफारिशें हैं जिसने तमाम सरकारी दवाबों के बाद भी इस परियोजना पर गंभीर प्रश्न खड़े किए.

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नाव से नदी पार करते ग्रामीण, फाइल फोटो | प्रशांत श्रीवास्तव

पर्यावरण मंत्रालय के एक एक्सपर्ट ग्रुप ने केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट के तहत बनने वाले एक अहम बांध को पर्यावरणीय मंजूरी देने से मना कर दिया. यह बांध मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले के डिंडौनी में बनाया जाना प्रस्तावित था. इस मनाही का तात्कालिक और तकनीकी कारण यह है कि पर्यावरणीय मंजूरी के लिए उपयोग किए जाने वाला डाटा डेढ़ साल से ज्यादा पुराना नहीं होना चाहिए और इसलिए दोबारा जन सुनवाई की जरूरत बताई गई है ताकि पता चल सके की स्थिति क्या है. जन सुनवाई परियोजना प्रभावित गांव वालों के लिए एक मौका है.

लेकिन, इस नामंजूरी की जद में पिछले साल सीईसी यानी केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की सिफारिशें हैं, जिसने तमाम सरकारी दवाबों के बाद भी इस परियोजना पर गंभीर प्रश्न खड़े किए.

इसके अलावा कुछ खामोश सवाल हैं जो इस परियोजना की सीटूसी यानी कॉस्ट कंट्री का अंदाज लगा रहे हैं.

पहले कुछ साधारण तथ्य जान लीजिए. भारत की पहली नदी जोड़ों परियोजना से जुड़ने वाली नदियां केन और बेतवा मध्य प्रदेश से निकलती है. केन जबलपुर के पास से निकलकर पन्ना राष्ट्रीय उद्यान के बीच से बहती हुई बांदा के पास यमुना में मिल जाती है. बेतवा होशंगाबाद के पास से निकलती है और ओरछा से होती हुई हमीरपुर के पास यमुना में मिल जाती है. दोनों ही नदियां अंतिम रूप से यमुना के माध्यम से गंगा में मिलती हैं. इसमें चंबल को भी शामिल कर लीजिए. प्रयागराज के महासंगम में गंगा को मध्य प्रदेश की इन्ही नदियों से पानी मिलता है. इसका एक मतलब यह भी है कि वाराणसी की गंगा में चंबल, केन और बेतवा का पानी ही होता है. तो मध्य प्रदेश से बहने वाली इन दोनों नदियों का फ्लोरा-फोना और व्यवहार एक ही है, यानी जब गर्मियों में नदियां सूखती है तो दोनों ही नदियों में पानी कम हो जाता है और जब बरसात में नदियां उफनती है तो दोनों ही नदियों में बाढ़ आ जाती है. दोनों का कैचमेंट एरिया 90 सेंटीमीटर वर्षाजल वाला है.


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अब सवाल यह उठाता है कि जब दोनों नदियों की हालात कमोवेश एक सी होती है तो इन्हें जोड़कर कौन सा उद्देश्य पूरा होने वाला है? इसका जवाब नीतिकारों की नीयत में छिपा है. होता यह है कि बेतवा का बहाव क्षेत्र ज्यादातर बसाहट वाले इलाकों से है जिसके कारण इसमें डोमेस्टिक और इंडस्ट्रीयल सीवेज की मात्रा ज्यादा होती है और इसका सारा पानी उपयोग के लिए खींच लिया जाता है. ओरछा जैसे धार्मिक स्थानों पर बेतवा में आस्था के स्नान का भी दबाव है वहीं केन का बहाव क्षेत्र पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से ज्यादा गुजरता है. यानी इसके तट पर जानवरों की कॉलोनियां ज्यादा है, वे नदी से सिर्फ जरूरत का पानी लेते हैं और प्रदूषण की भेंट भी नहीं चढ़ते. यही कारण है कि केन नदी में गर्मियों के मौसम में भी थोड़ा पानी बहता रहता है और साफ भी रहता है. बस पन्ना राष्ट्रीय उद्यान के बीच से बहने वाले इसी साफ सुथरे पानी पर सबकी नज़र है. इस पानी को नहरों से खींचकर बेतवा में डाला जाए और फिर उस पानी को मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश आपस में बांट लें.

डूब के इलाके की बात को छोड़ दें क्योंकि जब तक अपना मकान-दुकान डूब में नहीं आता चिंता करने की कोई बात नहीं है. सरकारी कागज कहते हैं कि इस परियोजना में पन्ना राष्ट्रीय उद्यान का बाहरी हिस्सा ही डूब में आएगा इसलिए जानवरों की बसाहट को लेकर जताई जा रही चिंता इनवायरमेंट रोमांटिसिज्म से ज्यादा कुछ नहीं है. इस रोमांस की असलियत वे लोग समझ सकते हैं जिन्होंने नर्मदा परियोजना में बनी नहरों को देखा समझा है. आम आदमी सोचता है कि दो नदियों को एक नहर के माध्यम से जोड़ दिया जाएगा ताकि ज्यादा पानी वाली नदी कम पानी वाली नदी को पानी दे सके, लेकिन केन-बेतवा के संदर्भ में इसका मतलब है एक विशाल बांध और भी कई सारे बांध और ढेरों नहरें. इन दोनों नदियों पर पहले ही 22 बांध मौजूद हैं. अब छह और प्रस्तावित हैं तो पुराने बांधों का क्या होगा? क्या बांधों के जरिए नदियों को जोड़ना ही एकमात्र उपाय है? इन नहरों से पन्ना राष्ट्रीय उद्यान की कितनी जमीन दलदली होगी, इसका सिर्फ अनुमान ही व्यक्त किया जा सकता है. नीति दस्तावेज मानकर चलते हैं कि नहरों और बांधों के निर्माण से उसके आस-पास की जमीन दलदली नहीं होती. अवैध शिकार के चलते यहां पहले ही बाघ न के बराबर बचे थे. अब सरकार ने करोड़ों खर्च कर फिर से बाघों को यहां बसाने की शुरुआत की है.

एक नज़र इस बहुप्रचारित तथ्य पर डाल लीजिए कि देश की पहली रिवर लिंक योजना मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुंदेलखंड की पानी की समस्या को दूर करेगी. हालात यह है कि केन के जानवरों के हिस्से वाले थोड़े से पानी के लिए दोनों राज्यों की बीच तलवारें खिंच चुकी है. वे तय नहीं कर पा रहे कि रबी के सीजन में पानी का बंटवारा कैसे संभव होगा. यूपी डीपीआर में वर्णित डाटा से भी ज्यादा पानी मांग रहा है और एमपी ने साफ मना कर दिया.

राजनेता जानते हैं कि परियोजना पूरी होने के बावजूद रबी के सीजन में पानी की किल्लत बनी रहेगी. हर कोई पानी पर अपना कब्जा रखना चाहता है क्योंकि लिंक प्रोजेक्ट पानी को पैदा नहीं करेगा यानी पानी की उपलब्धता उत्तरोत्तर कम ही होगी, वह बढ़ेगी नहीं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दोनों राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार है. नदियों की सबसे बड़ी फ्लैगशिप परियोजना पर उससे जुड़े राज्यों का रवैया चिंता पैदा करता है कि करोड़ों रुपए कहीं पानी में ही तो नहीं बहने जा रहे? यह चिंता सीईसी ने भी जताई है.


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इतना खर्च कर जिन नदियों को जोड़ा जा रहा है वे थोड़ा आगे बढ़कर प्रकृति की नदी जोड़ो योजना के तहत खुद ही यमुना में मिल जाती हैं. एक तथ्य और देखिए. लिंक परियोजना के शुरू होने पर यह पूरी कवायद शून्य साबित हो जाएगी. डीपीआर के मुताबिक, उत्तर प्रदेश को केन नदी का अतिरिक्त पानी देने के बाद मध्य प्रदेश करीब इतना ही पानी बेतवा की ऊपरी धारा से निकाल लेगा.

परियोजना के दूसरे चरण में मध्य प्रदेश चार बांध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में नहरें बिछाकर सिंचाई के इंतजाम करेगा. लेकिन इस पूरी कवायद में कहीं भी यह नहीं बताया गया कि क्या इन नदियों के पास इतना पानी है या रहेगा?
सरकारी दावों का यह आधार भी वैज्ञानिक नहीं है कि इस परियोजना के पूरा होने से 15 लाख लोगों को साफ पीने का पानी मिलेगा और 70 लाख लोग इससे सीधे तौर पर लाभान्वित होंगे. यह दावा इसलिए हवा-हवाई है क्योंकि पर्यावरणीय मंजूरी के लिए डेवलपरों द्वारा पेश किए गए आंकड़े ही आपस में मेल नहीं खाते.


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सरकार को सौंपे गए दस्तावेजों के मुताबिक डेवलपरों ने तीन तरह की मंजूरियों के लिए जो आंकड़े पेश किए उनमें भी कई असमानताएं हैं. परियोजना की लागत लगातार बढ़ती जा रही है. शुरुआत में 1994-95 के मूल्य स्तर पर इसकी लागत 1,998 करोड़ रुपए रखी गई थी. वर्ष 2015 में यह करीब 10,000 करोड़ रुपए पहुंच चुकी थी और महज पांच साल बाद अनुमान लगाया जा रहा है कि इस परियोजना की लागत 28,000 करोड़ रूपए होगी.

अलबत्ता परियोजना के दस्तावेज में यह नहीं बताया गया था कि यह लागत मौजूदा मूल्य स्तर पर है या नहीं, मंजूरी के लिए सरकार को सौंपे गए एक अन्य दस्तावेज में परियोजना के प्रभावितों के पुनर्वास और पर्यावरण प्रबंधन की लागत 5,072 करोड़ रुपए बताई गई. मंजूरी देते समय परियोजना के लागत लाभ विश्लेषण के भाग के रूप में इस पर विचार नहीं किया गया.

डिंडौनी डैम की पर्यावरणीय मंजूरी नामंजूर कर एक्सपर्ट समूह ने सरकार को मौका दिया है कि वो इस पूरी परियोजना पर ही पुनर्विचार करे. लेकिन जैसा कि होता है, कमजोर लोकतंत्र की ताकतवर सरकारें पीछे नहीं हटा करतीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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