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चीन नेपाल के लोगों को चीनी भाषा क्यों सिखाना चाहता है?

चीन को पता है कि अब युद्ध करके देश नहीं जीते जा सकते. प्रभाव विस्तार के लिए सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्व स्थापित करना ही एकमात्र तरीका है.

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नेपाल के स्कूल में बच्चे, प्रतीकात्मक तस्वीर | फ्लिकर

नेपाल की मीडिया के मुताबिक, चीन सरकार ने घोषणा की है कि नेपाली विद्यालयो में चीनी भाषा यानी मंदारीन के शिक्षकों का वेतन चीन सरकार देगी. चीन सरकार ने यह भी कहा कि चीनी भाषा के शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए अन्य सहायता भी उपलब्ध कराएगी. चीन सरकार की इस घोषणा के बाद भारतीय मीडिया में इस बात पर चिंता जाहिर की गयी कि इससे नेपाल में चीन का असर बढ़ेगा. चीन सरकार की इस घोषणा से उत्साहित होकर नेपाल के अनेक निजी विद्यालयों ने चीनी भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया.

नेपाली अख़बार हिमालयन टाइम्स की खबर के अनुसार काठमांडू के 10 प्रतिष्ठित निजी विद्यालयों ने अपने यहां चीनी भाषा की पढ़ाई अनिवार्य करने की पुष्टि की है. इसके अतिरिक्त नेपाल के कुछ अन्य इलाकों के विद्यालयों ने भी चीनी भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया है. गौरतलब है कि चीनी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली, पढ़ी जाने वाली भाषा भी है. भाषा सीखने के लिहाज से दुनिया की मुश्किल भाषाओं में एक होने के बाद भी इसे सीखने वालो की संख्या बढ़ ही रही है.


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चीन सरकार की चीनी भाषा के शिक्षकों का वेतन देने की घोषणा ने नेपाल के स्कूलों को चीनी भाषा को अनिवार्य बनाने के लिए उत्साहित किया है. हालांकि नेपाल सरकार की पाठ्यक्रम विकास समिति के प्रवक्ता गणेश प्रसाद भट्टराई ने कहा कि विद्यालय अपनी मर्जी से किसी विषय को अनिवार्य नहीं बना सकते, इसका निर्णय केवल हम कर सकते हैं.

माओ की फाइव फिंगर पॉलिसी और भाषा का सवाल

माओ ने एक बार कहा था कि तिब्बत एक हथेली है और उसकी पांच उंगलियां हैं – लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और अरुणाचल प्रदेश. माओ के इस वक्तव्य से पता चलता है कि आंशिक तिब्बती बौद्ध संस्कृति के विस्तार के कारण ही उसने इन्हें तिब्बत या अप्रत्यक्ष रूप से चीन का हिस्सा मान लिया था. भाषा का पढ़ाया जाना कोई सामान्य बात नहीं होती. भाषा के माध्यम से एक नये कल्चर के बारे में पता चलता है. भाषा अपने साथ जीवन शैली, खान-पान, त्यौहार आदि लेकर आती है. उस कल्चर को अपनाने और श्रेष्ठ मानने की भावना भी छात्रों में आती है. जैसे भारत के संदर्भ में अंग्रेजी भाषा.

नेपाल में चीनी भाषा की पढ़ाई का एक आर्थिक पक्ष यह है कि नेपाली सरकार के आंकड़ों के अनुसार पिछले साल नेपाल में सबसे ज्यादा पर्यटक चीन से आये. उससे पहले तक वहां भारतीय पर्यटकों की संख्या सबसे ज्यादा होती थी. काठमांडू के बाजारों में चीनी पर्यटकों से चीनी भाषा में मोलभाव की बात करना अब नेपाली दुकानदारों के लिए सामान्य बात हो गयी है. काठमांडू के बिजनेस हब- थमेल में चीनी भाषा के साइन बोर्ड अब आम हैं. इसके अतिरिक्त अनेक चीन व्यापारियों ने लीज पर लेकर काठमांडू में अनेक दुकान भी खोल ली हैं, जो अब नेपाली दुकानदारों के साथ प्रतियोगिता कर रहे हैं.

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क्या नेपाल की चीन से दोस्ती बढ़ रही है

भारत और नेपाल के बीच लंबे समय तक लव और हेट रिलेशन रहे. दोनों के बीच सीमा विवाद भी है जिसमें कालापानी का विवाद प्रमुख है. इस विवाद को हल करने के लिए 2008 में नेपाल ने चीन की मदद भी मांगी थी. आर्थिक मामलों में नेपाल की भारत पर निर्भरता भी रही है. नेपाल के कम्युनिस्टों का असर बढ़ने के बाद नेपाल और भारत के सम्बन्धों में खटास बढ़ी है. इसके साथ ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार का चीन की तरफ झुकाव भी बढ़ा है. चीन ने नेपाल के भारत के साथ खराब होते सम्बन्धों को तेजी से भुनाया. भारत द्वारा 2015 में अघोषित रूप से किये गए इकॉनोमिक ब्लॉकेड से भी नेपाल में भारत विरोधी भावना को बढ़ावा मिला. लेफ्ट नेतृत्व वाली नेपाल सरकार के चीन के महत्वाकांक्षी बेल्ट एन्ड रोड इनिसिएटिव में शामिल होने के बाद नेपाल-चीन सम्बन्ध एक नयी ऊंचाई पर पहुंचे हैं.

1960 में चीन-तिब्बत सहयोग से बनी काठमांडू से चीन/तिब्बत को जोड़ने वाली सड़क को चीन की मदद से अब पक्का बना दिया गया है. 13वी शताब्दी में नेपाल से चीन गए एक नेपाली वास्तुविद और पेंटर अरनिको की याद में इसका नाम अरनिको राजमार्ग रखा गया है. 18 वर्षीय अरनिको एक प्रतिभाशाली नेपाली चित्रकार और मूर्तिकार था जो 13वीं शताब्दी में चीन के राजा कुबलाई खान के बुलाने पर नेपाल से 70 अन्य नेपाली चित्रकारों और कारीगरों के साथ इसी रास्ते से होता हुआ चीन की राजधानी पेइचिंग तक गया था. उसने वहां बहुत से स्मारक डिजाइन किये और बनाये. अरनिको ने चीन में ही शादी की और वहीं उसकी मृत्यु हुई. अरनिको चीन-नेपाल की ऐतिहासिक मैत्री का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है.

इस हाइवे को अब चार लेन की बनाया जा रहा है. अरनिको हाइवे को तिब्बत के अंदरूनी जिले सांगत्से तक बढ़ाये जाने की योजना है. पिछले साल जब यह लेखक इस सड़क पर यात्रा कर रहा था तो उसे पता चला कि सैकड़ों चीनी इंजीनियर इस सड़क को बनाने में लगे हैं. सबसे अजीब बात यह कि नेपाल में होने पर भी इस सड़क पर केवल चीनी भाषा में साइनबोर्ड लगे हैं. कुछ साइनबोर्ड में चीनी भाषा में लिखा है कि ‘क्षेत्र में अनधिकृत प्रवेश वर्जित है’.

अब ऐसे नेपाली इलाके में, जहां चीनी भाषा जानने वाले लोग एकाध ही हों, वहां केवल चीनी भाषा में साइनबोर्ड लगाने का एक ही अर्थ है, भाषा के माध्यम से अपने सांस्कृतिक वर्चस्व को सिद्ध करना.


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चीन/तिब्बत से सटे जिले मुस्तांग जिसे सांस्कृतिक रूप से तिब्बत का हिस्सा माना जाता है में भी कुछ चीनी भाषा के बोर्ड दिखते हैं जो चीनियों की इस इलाके में आवाजाही का सूचक है. चीन सरकार ने मुस्तांग के जिला मुख्यालय को तिब्बत-चीन सीमा से जोड़ने वाली सड़क निर्माण में भी सहयोग दिया है.

काठमांडू पोस्ट के डिप्टी चीफ एडिटर अनिल गिरी के अनुसार – चीनियों के साथ हमारी कोई साम्यता नहीं है. भले ही चीन के साथ सम्बन्ध बढ़ा कर हमें अभी तात्कालिक लाभ मिले, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम ठीक नहीं होंगे. श्रीलंका को कर्ज जाल में फंसाने के बाद चीन के इरादे ठीक नहीं लगते. उनके मुताबिक, चीन सड़कें नेपाल के नहीं, अपने फायदे के लिए बना रहा है जिससे इन सड़कों के माध्यम से चीनी माल भारत भेजा जा सके.

चीन को पता है कि अब युद्ध करके देश नहीं जीते जा सकते, इसलिए सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्व ही एकमात्र तरीका है. नेपाल में चीनी भाषा को बढ़ावा देने वाला कदम इसी बात का संकेत है.

(लेखक नेपाल मामलों के जानकार हैं. उनकी पीएचडी नेपाल के बारे में ही है.)

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