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जब नेहरू ने सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और नेताजी के हिटलर की ओर झुकाव पर खुल कर बात की

रामनारायण चौधरी वरिष्ठ गांधीवादी थे, और शायद इसीलिए 1958 और 1960 के बीच के साक्षात्कारों की श्रृंखला में नेहरू उनके समक्ष दिल खोल कर बोले.

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जवाहरलाल नेहरू की फाइल फोटो | Photo: @PatilSntosh | Twitter

कल्पना करें कि जवाहरलाल नेहरू एक टीवी स्टूडियो में इंटरव्यू के दौरान अपनी निजी जिंदगी और अपनी सरकार की नीतियों के बारे में हर सवाल का खुल कर जवाब दे रहे हैं. क्या ये जानना रोचक नहीं होगा कि भारत के पहले प्रधानमंत्री अपने काबिल साथियों सी राजगोपालाचारी, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद तथा सुभाषचंद्र बोस के हिटलर की ओर झुकाव के बारे में क्या राय रखते हैं?

एक अल्पज्ञात पुस्तक इस तरह की जिज्ञासाओं को संतुष्ट कर सकती है, जिसमें नेहरू के अक्टूबर 1958 और अक्टूबर 1960 के बीच के 19 साक्षात्कार शामिल हैं. साक्षात्कारकर्ता रामनारायण चौधरी कोई पत्रकार नहीं थे. दरअसल वह राजस्थान के एक वरिष्ठ गांधीवादी थे और शायद इसीलिए नेहरू उनके सामने खुल सके और बिना लाग-लपेट के जवाब दिया.


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राजाजी की कांग्रेस से दूरी

जब उनसे भारत के अंतिम गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी के बारे में पूछा गया, जो साक्षात्कार के समय विपक्ष में थे, तो नेहरू ने जवाब दिया ‘कांग्रेस के पूरे इतिहास काल में उनकी बहुत प्रशंसा हुई. लेकिन वह कभी भी पूरी तरह से कांग्रेस में नहीं थे. मेरा मतलब है, वह कांग्रेस की दुनिया से दूर थे.’ (पंडितजी-पोटाने विशे, रामनारायण चौधरी द्वारा संपादित और करीमभाई वोरा द्वारा अनूदित, नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद, 2013. पृष्ठ 58)

नेहरू ने राजगोपालाचारी, जो राजाजी के नाम से प्रसिद्ध थे, को याद करते हुए कहा कि उनके काम की शैली ऐसी थी कि जिससे ‘आंदोलन कमजोर होता… इसीलिए अपनी बुद्धिमत्ता और काबिलियत के लिए सराहे जाने के बावजूद वह कभी भी पूरी तरह से कांग्रेस में, कांग्रेसी माहौल में, या आम कांग्रेसियों के साथ नहीं रहे.’ उन्होंने कहा कि ‘वह (राजगोपालाचारी) कांग्रेस में बहुत पहले से थे, फिर भी किसी न किसी कारण से वह कभी कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बन सके.’

राजाजी के सबसे अच्छे गुण के बारे में पूछे जाने पर नेहरू ने कहा, ‘यह उनकी बुद्धिमत्ता थी, जो बहुत तीक्ष्ण थी. उनके गुणों में जो कुछ भी सकारात्मक नहीं था, वह भी उसी बुद्धिमत्ता का परिणाम था.’ (पृष्ठ 59)

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पटेल की कार्यशैली, आज़ाद की मेधा

नेहरू ने सरदार वल्लभभाई पटेल की कार्यशैली के बारे में बहुत सम्मान से बात की. उनके अनुसार, ‘सरदार का पूरा जीवन उनके विचारों, उनकी काबिलियत और उनकी कार्य क्षमता का प्रतीक था… वे दृढ़ और सख्त अनुशासन-पसंद इंसान थे.’

नेहरू ने अपनी और सरदार पटेल की कार्यशैलियों की दिलचस्प तुलना की. ‘आप सिर्फ कांग्रेस के गुजरात और यूपी (उत्तर प्रदेश) में काम की तुलना करें. उन्होंने गुजरात में एक मज़बूत संगठन बनाया, जिसमें ज़्यादा लचीलापन नहीं था. इसमें ताकत के साथ ही कमजोरी भी थी, जो बाद में सामने आई… यूपी में किसी एक व्यक्ति का (कांग्रेस पर) नियंत्रण नहीं था. वहां कम-से-कम 10 से 12 व्यक्ति थे और सभी बराबर थे… उनमें बदलाव किया जाता रहता था. गुजरात और बंगाल की तरह नहीं, जहां कि 10 साल तक एक ही व्यक्ति रहा… यूपी में एक दूसरे के विरोध और खुली चर्चा करने के अवसर थे. लेकिन जब कार्यान्वयन की बात आती थी, तो सब एकजुट होते थे. इसकी कमियां और विशेषताएं दोनों थीं.’(पृष्ठ 57-58)

‘मौलाना आज़ाद मुझसे सिर्फ एक साल बड़े थे. लेकिन विद्वता के लिए उनका इतना सम्मान था कि उन्हें शुरू से ही वरिष्ठ माना जाता था.’ भारत के पहले शिक्षा मंत्री आज़ाद की तीक्ष्ण बुद्धि की तारीफ करने के बाद नेहरू ने उनके व्यक्तित्व की एक दिलचस्प खासियत का जिक्र किया. ‘वह भीड़ से घबराते थे और शोर-शराबे से दूर रहते थे. हमें जबरन उन्हें साथ करना पड़ता था… उनके साथ एक मसला था. वह खुद के मामलों में इतना व्यस्त रहते थे कि लोग उन तक आसानी से नहीं पहुंच पाते थे. वह लोगों से अच्छे से मिलते थे, लेकिन वह खुलते नहीं थे और अपनापन नहीं बना पाते थे.’ (पृष्ठ 55-56)

नेताजी का हिटलर के जर्मनी की ओर झुकाव

नेहरू ने ‘नेताजी’ सुभाष चंद्र बोस के बारे में कहा, ‘यह एक ज्ञात तथ्य है कि सुभाष बाबू एक बहादुर इंसान थे. उनके मन में भारत की आज़ादी के विचार भरे हुए थे. कभी-कभी हमारे विचार नहीं मिले. लेकिन उस समय ये शायद ही मायने रखता था.’ नेहरू के अनुसार, ‘गांधी को छोड़ना भारत में राजनीति छोड़ने के बराबर था. यदि हमारा उनसे (गांधी) मतभेद होता तो हम बहस कर सकते थे… गांधी भारत की ऐसी ज़रूरत थे कि कोई अन्य उनकी जगह नहीं ले सकता था. इसलिए आपको उनके साथ रहना ही था… लेकिन सुभाष बाबू को उनकी सलाह के मुताबिक काम करना जरूरी नहीं लगा. हमारी सोच में यही अंतर था. इसके अलावा, तब हिटलर के जर्मनी की ओर उनका थोड़ा झुकाव हो गया था और मैंने इसका जमकर विरोध किया.’ (पृष्ठ 56-57)

उदारवादी राजनीति के दिग्गज नेता और अहिंसक हिंदुत्व के शुरुआती चैंपियन मदन मोहन मालवीय – जिन्हें 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के शासन के पहले वर्ष मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया– नेहरू के लिए अपने बीच के एक नायक की हैसियत रखते थे. ‘छोटी उम्र में जब मैं इलाहाबाद में था तभी से ही मेरे मन में उनके प्रति सम्मान था. गांधीजी के भारत आगमन से पूर्व जब भी हम उलझन में या उद्वेलित होते, हम भाग कर उनके पास जाते और कुछ करने का आग्रह करते… मेरी शिक्षा विदेशी थी, मेरी पृष्ठभूमि अलग थी और वह अलग तरह के थे. फिर भी, मैं उनका बहुत आदर करता था. उन्होंने हमेशा उदारवादियों और अतिवादियों के बीच एक कड़ी का काम किया. उनकी भावनाएं उन्हें एक तरफ ले गईं और विचारधारा दूसरी तरफ. वह उन नेताओं में से थे, जिन्होंने शुरुआती दौर में कांग्रेस को दिशा दी. वह अंत तक वहीं थे, हालांकि पूरी तरह से गांधी की कांग्रेस में वह कभी नहीं रहे. फिर भी, उन्होंने इसे कभी छोड़ा भी नहीं.’ (पृष्ठ 60).

लाजपत राय की राजनीति अपने समय से आगे थी

इसी तरह, नेहरू के पास लाला लाजपत राय के बारे में कहने को बहुत कुछ था, जो बाद के दिनों में सांप्रदायिक राजनीति के कारण मोतीलाल नेहरू के विरोधी हो गए थे. नेहरू ने कहा, ‘मेरा उनके साथ करीबी संबंध नहीं रहा. लेकिन पुरानी पीढ़ी के नेताओं में वह शायद प्रथम थे जिन्होंने दो चीजों पर ज़ोर दिया: किसी कारण से उनका ध्यान श्रम के मुद्दे यानि आर्थिक मुद्दों पर गया था और वह नारी शक्ति को जागृत करने के लिए प्रेरित थे. बाद में कई अन्य लोगों ने इन विषयों को उठाया, पर पिछली पीढ़ी के नेताओं के बीच ऐसा करने वाला कोई और नहीं था.’ (पृष्ठ 55)


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रामनारायण चौधरी ने ये साक्षात्कार आकाशवाणी के लिए किए थे, लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रसिद्ध फिल्मकार श्याम बेनेगल को 1980 के दशक में जवाहरलाल नेहरू पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाते हुए इनके टेप नहीं मिल पाए थे. अधिकारियों द्वारा उन्हें बताया गया था कि इंटरव्यू के टेप ‘कोई ले गया, पर वापस नहीं लौटाया’. (बेनेगल की फिल्म ‘नेहरू’ 1983 में रिलीज़ हुई थी.) अहमदाबाद के नवजीवन प्रकाशन मंदिर ने साक्षात्कारों के चौधरी द्वारा उपलब्ध कराए गए पाठ को 1961 में प्रकाशित किया था. हिंदी की इस पुस्तक का बाद में करीमभाई वोरा ने गुजराती में अनुवाद किया जिसे नवजीवन ट्रस्ट ने 1963 में प्रकाशित किया.

नेहरू के साथ बातचीत पर आधारित कई किताबें हैं. लेकिन साक्षात्कार के पात्र और साक्षात्कारकर्ता के बीच अंतरंगता के कारण चौधरी की पुस्तक सबसे अलग हट कर है. चौधरी ने पुस्तक की प्रस्तावना में स्पष्ट किया है कि वे सार्वजनिक महत्व के तमाम मामलों में नेहरू को अपना नेता मानते हैं – ‘सिर्फ उन विषयों को छोड़कर जिनमें कि उनके (नेहरू के) विचार गांधी से भिन्न हैं.’ (पृष्ठ VI)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक अहमदाबाद स्थित वरिष्ठ स्तंभकार हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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