होम मत-विमत नेशनल इंट्रेस्ट वंदे भारत बनाम भारत के बंदे: क्या नरेंद्र मोदी जनता में अपनी...

वंदे भारत बनाम भारत के बंदे: क्या नरेंद्र मोदी जनता में अपनी सियासी पैठ इतनी जल्दी गंवा रहे हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महामारी के दौर में राष्ट्र के नाम जो संदेश दिए हैं वे मुख्यतः मध्य वर्ग या इलीट तबके को संबोधित रहे हैं, उनमें करोड़ों गरीबों के प्रति हमदर्दी ना के बराबर दिखती है, तो क्या मोदी अपना राजनीतिक अंदाज भूल रहे हैं?

सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

राजनीति की ‘सुर्खियां बदलने’ और तेजी से कदम उठाने के मामले में मोदी सरकार का कोई सानी नहीं है. इसकी ताज़ा मिसाल है ‘वंदे भारत मिशन’. जब हवा में घोर उदासी छायी हुई है तब इस मिशन के बहाने एक नया जोश पैदा करने की कोशिश की गई है.

कोरोनावायरस ने दुनियाभर में आर्थिक कारोबार की कमर तोड़ दी है. हरेक देश के नागरिक बड़ी संख्या में रोजगार, पढ़ाई, घूमने-फिरने के लिए दूसरे देशों में फंसे हुए हैं. कई देशों ने अपने नागरिकों को स्वदेश वापस लाने के कदम उठाए हैं.

लेकिन यह भारत ही है जिसने इसे एक ‘इवेंट’, एक आयोजन में तब्दील कर दिया है. जैसा कि मोदी प्लेबुक से उम्मीद की जा सकती है, इस तरह के ‘इवेंट’ को एक सुर्खी, एक हैशटैग देना लाजिमी था. तमाम मंत्रालयों ने अपने हैंडल पर इस ‘समारोह’ के बारे में ट्वीट किया. भाजपा की अपनी आईटी मशीनरी भी इसमें शामिल हो गई. और टीवी चैनलों को तो शामिल होना ही था. दोस्ताना चैनलों ने इस घटना का आंखों देखा सीधा प्रसारण शुरू कर दिया.

इसका एक उदाहरण पेश है. संगीत की स्वर लहरियों पर सवार होकर विमान उड़ता है, 781 भारतीय नागरिक विदेश से अपनी सरजमीं पर कदम रखते हैं. एक उत्सव का माहौल है. ऐसा लगता है मानो वे मुजफ्फराबाद या स्कर्दू को आज़ाद करा के लौटे हों. तमाम मंत्रियों ने इसे एक उपलब्धि बताकर तालियां बजाईं, मानो उन भारतीयों को मौत के पंजे से छुड़ाकर लाया गया हो.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

अगर आपको अब भी नहीं लगता कि यह सब बकवास है, तो दिनभर चलने वाली उन खबरों को देखिए जिनमें बताया जा रहा है कि विदेश से लौटने वाली भारत की इन सम्मानित संतानों के लिए शानदार होटलों में ‘क्वारंटाइन’ करने की कैसी व्यवस्था की गई है. हमें याद दिलाया जाता है कि वे खुद इस वापसी का खर्चा उठाएंगे, क्योंकि वे खर्चा उठाने में सक्षम हैं. आखिर, वे महान ईश्वर की संतान हैं! बाकी हम सब उनकी संतान नहीं हो सकते.


यह भी पढ़ेंः हालात सामान्य हैं पर सबको लॉकडाउन करके रखा है, मोदी सरकार ने कैसे देश को अक्षम बनाने का जोखिम उठाया है


जरा देखिए तो कितने ज्यादा हैं हम लोग, 138 करोड़! लेकिन जरा हमारे गरीब भगवानों के बारे में भी एक पल के लिए तो सोचिए, वे भला इतने सारे लोगों पर मेहरबान कैसे हो सकते हैं? भगवान तो उन्हीं पर प्रसन्न होते हैं, जो काबिल हैं.

बहरहाल, हम सारे भारतीयों को खुश होना चाहिए कि सरकार इतने सारे अच्छे भारतीयों को अपने विमानों में बैठाकर ला रही है, उनके लिए ‘क्वारंटाइन सेंटर’ तैयार कर रही है ताकि वे अपने-अपने परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों के पास अपने घरों में लौट सकें. भारत ने इस तरह का कारनामा पहली बार 1991 में तब किया था जब कब्जे में फंसे कुवैत से लाखों भारतीयों को अक्षय कुमार अकेले अपने दम पर स्वदेश लौटा लाए थे.

यह आधुनिक, जाग्रत, विश्वगुरू भारत का जज्बा है. सो, आप सब सावधान की मुद्रा में खड़े होकर ‘वंदे भारत मिशन’ के जज्बे को सलाम ठोकिए. और इन मामूली बातों पर ध्यान मत दीजिए कि इनसे सैकड़ों गुना ज्यादा संख्या में दूसरे भारतीय फफोले पड़े अपने पांवों, भूख से सिकुड़े पेट के साथ हजारों मील दूर अपने घरों के लिए पैदल चल रहे हैं; और उनके लिए ना तो कोई स्वागत समिति है, ना स्वागत में ट्वीट संदेश हैं, ना क्वारंटाइन सेंटर हैं, 45 दिनों तक जिनके लिए ना तो किसी ट्रेन या बस का इंतजाम किया गया जबकि वे इसका भाड़ा चुकाने को तैयार थे.


 

यह भी पढे़ंः कोरोनावायरस ने सर्वशक्तिमान केंद्र की वापसी की है और मोदी कमान को हाथ से छोड़ना नहीं चाहेंगे


आखिर, वे वैसे तो हैं नहीं. अगर वे स्मार्ट, पढ़े-लिखे, बेहतर जन्मकुंडली के साथ ज्यादा कामयाब माता-पिता की औलादें होते तो निर्माणाधीन इमारतों के लिए ईंट-गारा क्यों ढो रहे होते? वे विदेश में पढ़ाई या नौकरी कर रहे होते. भगवान ने सभी भारतीय को एक समान नहीं बनाया, तो जाइए भगवान से लड़िए. तब तक के लिए इस महान राष्ट्रीय मिशन के लिए तालियां बजाइए. इसीलिए हम इस सप्ताह ‘वंदे भारत बनाम भारत के बंदे’ का सवाल उठा रहे हैं.

यहां पर आकर हमें यह सवाल उठाना चाहिए, जिसे उठाने के बारे में हमने पहले नहीं सोचा होगा, वह भी इस सरकार के दूसरे कार्यकाल में इतनी जल्दी, कि क्या नरेंद्र मोदी अपना अंदाज भूलते जा रहे हैं?

वे स्मार्ट ना होते तो यहां तक न पहुंचते, दो-दो बार स्पष्ट बहुमत न हासिल करते, विपक्ष को नेस्तनाबूद ना कर पाते. भारत में इंदिरा गांधी के बाद वे सबसे स्मार्ट नेता हैं. और उनके विपरीत मोदी किसी विरासत को साथ लेकर नहीं आए, और शायद आज़ाद भारत के अब तक के इतिहास में वे अकेले ऐसे नेता हुए हैं जो पूरी तरह अपने दम पर यहां तक पहुंचे हैं.

उनका राजनीतिक ब्रांड तीन मुख्य आधारों पर टिका हुआ है. इन्हें मैं महत्व के हिसाब से नीचे से ऊपर के क्रम में गिना रहा हूं—1. भाषण और संदेश देने की कला में महारत; 2. व्यक्तिगत ताकत और निर्णय क्षमता से बना आभामंडल; और सबसे महत्वपूर्ण, 3. आम भारतीय के साथ अपनी पहचान गहराई से जोड़ने की क्षमता, जिसके चलते गरीब भारतीय—देश के अधिकांश मतदाता—उन्हें अपना मानते हैं. वे उन्हें इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि उनमें वे वह सब कुछ देखते हैं जो उन्हें गांधी परिवार में नहीं दिखता— अपने दम पर सफल होना, आम, कामकाजी तबके (चायवाला) का होना, किसी तरह के विशेषाधिकार या विदेशी शिक्षा से दूर, सादी-मितव्ययी जीवनशैली, गरीबों से हमदर्दी. ‘हमदर्दी’ शब्द पर ध्यान दीजिए, जल्दी ही हम इस पर आएंगे.

मोदी ने बड़ी कुशलता से अपनी छवि एक ‘इलीट’ विरोधी (वंश विरोधी) नेता की बनाई है, जिसने अपने देश को घूम-घूम कर और हर जिले में समय बिताकर (जिस पर उन्हें खास तौर से गर्व है) समझा है, न कि इलीट कैंपसों या लुटियन के पार्लरों के चक्कर लगाकर. वे हमें याद दिलाते रहे हैं कि वे सत्ता से हटा भी दिए गए तो उन्हें बहुत फर्क नहीं पड़ेगा, कि वे झोला उठाएंगे और घर की ओर चल देंगे. ‘फकीर’ भला क्या हारेगा?

इस वृत्ति ने उन्हें तब हिला कर रख दिया था जब उन पर ‘सूट-बूट’ वाला जुमला उछाला गया था. यही वजह है कि उन्होंने राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर अपना नज़रिया बिलकुल उलट दिया. ‘बिजनेस फ्रेंडली’ गुजरात मॉडल को खारिज कर दिया गया. ‘मनरेगा’ जैसे कार्यक्रमों की खिल्ली उड़ाना बंद कर दिया गया, बल्कि उन्हें और मजबूत किया गया. उन्हें मालूम था कि जिस भारतीय नेता को सिर्फ खुद चुनाव नहीं जीतना है बल्कि 300 और लोगों को लोकसभा में लाना है, उसके जीवन में सबसे बड़ा वीआईपी गरीब, कामगार वर्ग का मतदाता है, न कि शहरी इलीट तबका या मध्य वर्ग.

ऐसे में सवाल उठता है कि कोरोनावायरस के इस दौर में अब तक के उनके सारे संदेश केवल इस मध्य वर्ग या इलीट तबके को ध्यान में रखकर क्यों आए हैं? उनके भाषणों और ‘मन की बातों’ को सुन लीजिए, वे केवल इन्हीं तबकों को संबोधित हैं, चाहे वे सलाह दे रहे हों या उपदेश दे रहे हों.

वे कहते हैं, हमारी अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी होगी. शहरों में कोई शाह या शर्मा या अग्रवाल इस पर तब जरूर ध्यान देगा जब शेयर बाज़ार उसकी तकदीर बिगाड़ देंगे. अचानक जो बेरोजगार होकर सड़क पर आ पहुंचा हो, भूख से परेशान होकर दर-दर भटक रहा हो, और अपने गांव-घर के लिए लंबी पैदल यात्रा पर निकलने तक पुलिस के डंडे खा रहा हो तो उस दिहाड़ी मजदूर को इससे क्या मतलब है?

मोदी के तमाम निर्देशों—ताली, थाली, टॉर्च, दीया—पर गौर कीजिए. वे कह रहे हैं—यह सब लेकर अपनी बालकनी या बरामदे पर आ जाइए. लगता है, अपने छठे साल में मोदी की राजनीति इतनी आत्मतुष्ट हो चुकी है कि ‘बालकनी वाले तबके’ को असली भारत समझने की भूल कर रही है. ऐसे में, ‘रेजिडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन’ (आरडब्लूए) शहरी भारत की नयी तानाशाही के प्रतीक बनकर अपनी आक्रामकता दिखा रहे हैं तो क्या आश्चर्य.

जरा सोचिए कि भारत में कितने मतदाताओं के पास बालकनी होगी? कितनों के अपने ढंग के घर होंगे? कितनों की छ्त ऐसी होगी जो टपकती न होगी? कितने करोड़ लोग अपने परिवार से सैकड़ों मील दूर रहते होंगे? माचिस के डिब्बेनुमा कमरे में 14-14 लोग किस तरह रहते होंगे? ऐसे में गृह मंत्रालय फरमान जारी करता है—शाम 7 बजे के बाद कोई अपने घर से बाहर ना निकले!

जरा सोचिए, कितने प्रतिशत भारतीय ऐसे होंगे, जो यह फर्क कर पाते होंगे कि उनके घर का बाहर किसे कहें और भीतर किसे? यह पलायन 45 दिनों से चल रहा है लेकिन कोई भी गणमान्य हस्ती सहानुभूति की बाहें फैलाकर इन लाखों लोगों तक नहीं पहुंची है. मानो उनका कोई वजूद ही ना हो.


यह भी पढ़ेंः आप ताली, थाली, दीया और मोमबत्ती का चाहे जितना मजाक बना लें, मोदी को इससे फर्क नहीं पड़ता


उन्हें तो उनके राज्य की सरकार का सिरदर्द मान लिया गया है. बड़े शहरों को, जहां सबसे मूल्यवान भारतीय रहते हैं, तो चलो छुटकारा मिला. और अगर वे वायरस लेकर अपने गांवों में पहुंचते हैं तो हम भला क्या कर सकते हैं? बेशक, राज्य सरकारें उन्हें अमानवीय हालात वाले अस्थायी क्वारंटाइन सेंटरों में पुलिस की मदद से कैद करके रखेंगी. अपने घरों तक का आधा रास्ता पैदल तय कर पाए इन लोगों के लिए छह हफ्ते बाद जाकर चंद ट्रेनें चलाई गईं तब केंद्र सरकार उनके टिकट का खर्च राज्य सरकारों के मत्थे थोपने लगी. और फिर इस घालमेल के लिए तू-तू-मैं-मैं शुरू हो गई.

आप गरीबों को रातोरात अमीर नहीं बना सकते, न ही लाखों लोगों को विमान से पहुंचा सकते हैं लेकिन उस शब्द को याद कीजिए जिसके बारे में हमने पहले कहा था कि इस पर वापस लौटेंगे. वह शब्द है—हमदर्दी. भाजपा में कौन है जो इन लाखो लोगों के लिए इस भाषा में बात कर रहा है? कौन है जो उनकी ओर समझदारी, सौहार्द, सुकून का हाथ बढ़ा रहा है? केवल उत्तर प्रदेश, झारखंड, छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री उनके लिए कुछ करते दिख रहे हैं. उन्होंने अपनी राजनीतिक समझ नहीं खोयी है और वे जमीन से जुड़े हैं. अब यह यकीन करना मुश्किल लग रहा है कि नरेंद्र मोदी भी ऐसा ही कर रहे हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

5 टिप्पणी

  1. Sir aap modi sarkar ki gariobo ke liy karodo rs ki yozna ko bhul gay….or mp me cm b acha Kam Kar rahe hai……mazdoor ki halat achi nahi hai yah bat Puri tarah scah hai…..isle liy sabhi ko kosis karna hoga..unko kuch fayada mile

  2. Print bekar cheez Hain use para hi nahi Hain Desh me kya honraha Hain. PM Narendra Modi Corona aur Bharatiya me bich see at ban Kar kahade Hain Bharatiya ki Jaan bachane me liye.

  3. Really well said. This goverment said sabka sath sabka vikas and in 2019 bjp added sabka vishwas . These all are jumlas .
    We want educated intalegent prime minester not fakir .

  4. Well the analysis is interesting and intriguing however it ignores the PMKY 2000 amount credited in farmers account. It is right that his image damaged to an extent among unorganised workers but I believe he has time to improve it coming years. UP and MP labour reforms can be seen as step in that directon because when workers get employment in their own state they may support him.

Comments are closed.

Exit mobile version