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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार कम क्यों हुए मतदान

नतीजे आएंगे तो जो भी जीतेगा, जनादेश को अपनी करतूत के पक्ष में मानेगा और जो हार जाएगा, दूसरी तरह के सवाल उठाएगा. लोकतांत्रिक चेतनाएं और मूल्य दूषित कर दिये जाएं तो लोकतंत्र के पेड़ों में ऐसे विषफल ही फलते हैं.

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चित्रण: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कहीं अपेक्षा से अनुरूप या उससे ज्यादा तो कहीं बहुत कम मतदान हुआ है. राजनीतिक विश्लेषकों के पास इन दोनों ही स्थितियों की अलग-अलग व्याख्याएं हैं. अपेक्षा से ज्यादा मतदान को आम तौर पर हमारे लोकतंत्र की सेहत, मतदाताओं की जागरूकता और सरकार के खिलाफ गुस्से से जोड़ा और उपलब्धि के तौर पर देखा जाता है, जबकि कम मतदान को सत्ता पक्ष की संभावनाओं के लिहाज से बेहतर.

लेकिन इस बार जिन क्षेत्रों में कम मतदान हुआ है और ऐसा ज्यादातर भाजपा के प्रभाव वाले शहरी क्षेत्रों में हुआ है, उसकी व्याख्याएं भी सत्तापक्ष के अनुकूल नहीं हैं. कहा जा रहा है कि यह विभिन्न कारणों से उसके कार्यकर्ताओं में पैदा हुई उदासीनता या निरुत्साह की प्रतीक है. दावा किया जा रहा है कि पार्टी की रीति-नीति से खफा कार्यकर्ताओं ने उसके रवैये को लेकर अपनी नाराजगी इस रूप में निकाली कि मतदाताओं को उनके घरों से निकालने के जिन प्रयत्नों की उसमें परम्परा है, उन्हें अंजाम ही नहीं दिया.

प्रदेश की जमीनी हकीकतों व सामाजिक जटिलताओं के मद्देनजर स्थितियों की और भी व्याख्याएं हो सकती हैं और अभी इस पचड़े में पड़ना अनुचित भी होगा और जल्दबाजी भी कि उनमें से कौन सही या कौन गलत है. वैसे ही, जैसे जहां मतदान बढ़ा है, वहां कई मतदाता संगठन अनुचित रूप से उसका श्रेय लेने के लिए आगे आकर अपनी पीठ ठोंकने लगे हैं. लेकिन जहां वह कम हो गया है, उसकी जिम्मेदारी लेने से कन्नी काट रहे और विधायकों की वायदाखिलाफियों व प्रायः सारी राजनीतिक पार्टियों के चेहरे एक जैसे जनविरोधी हो जाने से जोड़ना भी गवारा नहीं कर रहे. कई हल्कों में तो यह भी कहा जा रहा है कि अब मतदान को अनिवार्य करने से ही बात बनेगी. जैसे कि केवल जबरिया थोपा गया मतदान ही लोकतंत्र में मतदाताओं के विश्वास को बढ़ाकर उस बिन्दु तक ले जा सकता है जहां मतदान में उनकी भागीदारी सर्वसमावेशी हो जाये.

हां, मतदाता सचमुच जागरूक हुए हैं या नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है. पूछा जा सकता है कि जागरूक हुए होते तो जाति-धर्म के पचड़े में क्यों फंसते या कि दूषित चेतनाओं के आधार पर उनका वह ध्रुवीकरण क्योंकर संभव होता, जो भरपूर होता दिख रहा है.

मतदाता सूची में नहीं वोटर के नाम

लेकिन इस बात का कोई विवाद नहीं है कि अब मतदान प्रतिशत कई बार इसलिए भी बढ़ा दिखता है कि फोटो वाली कम्प्यूटरीकृत व ऑनलाइन मतदाता सूचियों ने फर्जी मतदाताओं को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया है. पहले शातिर राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी इन सूचियों में बड़ी संख्या में फर्जी मतदाताओं के नाम शामिल करा देते और उनका लाभ उठाने के फेर में रहते थे. अब वक्त बदल गया है तो वे मतदाता सूचियों से नाम कटवाकर तो लाभ उठाते हैं लेकिन उनमें फर्जी नाम दर्ज करवाने में सफलता नहीं प्राप्त कर पाते. तो, फर्जी मतदाताओं की ‘अनुपस्थिति’ भी मतदान प्रतिशत को ऊंचा करने में भूमिका निभाती ही है.

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एक और बात है, जब से इलेक्ट्रानिक मशीनों से वोट पड़ने लगे हैं, बूथों पर जबरन कब्जे प्रायः संभव नहीं हो पाते, जबकि गुण्डे व माफिया जो पहले अपने आकाओं के लिए बूथ कब्जा करते थे, अब खुद प्रत्याशी बनकर लोकतंत्र की जय-जयकार करने लगे हैं. बूथ कब्जे न कर पाने की अपनी विवशता का तोड़ उन्होंने वोटर से सीधी डील में निकाल लिया है, जिसमें वे साम-दाम और दण्ड-भेद सब कुछ बरतते हैं.

इस कारण जहां दो या दो से ज्यादा माफियाओं या बाहुबलियों में चुनावी टक्कर होती है और दोनों ही अपनी जीत को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं, मतदान से उदासीन चले आ रहे मतदाताओं को मतदान के दिन घर बैठे रहने में असुरक्षा का अनुभव होता है. वोट न देने पर उनका सारे माफिया या बाहुबली प्रत्याशियों से वैर हो जाता है, जो जल में रहकर मगर से वैर रखने के बराबर होता है. ऐसे में कई मतदाता मतदान को उन सबको भ्रम में रखने के उपादान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. जो मतदाता ‘खरीद’ लिए जाते हैं, उनके लिए तो खैर मतदान करना लााजिमी ही होता है.


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बाहुबलियों और माफिया राज खत्म

हां, कई बार ऐसा भी होता है माफिया व बाहुबली अपने आतंक से मतदाताओं को बूथों पर जाने से रोक देते हैं और कह देते हैं कि उनका वोट देने न जाना ही उन्हें जिताना हो जायेगा. कई बार उनके झगड़े-फसाद या उनके अंदेशे भी मतदाताओं का वोट देने जाने का साहस छीन लेते हैं. जैसा कि इस बार प्रतापगढ़ जिले की कई विधानसभा सीटों के चुनाव में हुए कम मतदान में देखा जा सकता है.

इन हालात को लोकतंत्र की उपलब्धि नहीं करार दिया जा सकता, न ही इन पर इतराया जा सकता है. इसको लेकर तो उलटे सिर ही धुना जा सकता है कि लोकतंत्र की प्रक्रिया का ही लोकतंत्र के खात्मे के लिए इस्तेमाल इस रूप में विकास की एक सीढ़ी और चढ़ गया है. सिर धुनने का एक और वायस यह है कि जिसे लोकलाज कहते हैं, वह तो इस चक्कर में राजनीति से हवा ही हो गई है.

एक कवि के शब्द उधार लें तो वहां सभी लोग ऊंची उड़ान पर हैं और कोई जलते मकान की ओर देखने को तैयार नहीं है. ऐसे में कौन यह देखने की जहमत उठायेगा कि जो मतदाता इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों का बटन दबाने बूथों पर पहुंच रहे हैं, उनकी आंखों में कोई सपने बचे भी हैं या नहीं और बचे हैं तो वे सार्थक हैं यर मुंगेरीलाल के हंसीन सपनों की तरह? क्यों वे किसी सकारात्मक मुद्दे पर या अपनी नियति में बदलाव के लिए मतदान करने के बजाय वे किसी को जिताने या हराने जैसे छोटे या नकारात्मक मुद्दों पर मतदान को मजबूर हैं?

नकारात्मकता व नाराजगी का असर

क्यों ज्यादातर पार्टियों का स्वरूप कुछ ऐसा अलोकतांत्रिक व परिवर्तनविरोधी हो गया है कि वे रटे हुए जुमले की तरह बदलाव की बात करें भी तो बार-बार सरकारें बदलने के बावजूद सच्चे बदलाव से वंचित मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर पातीं? क्यों वे चालाकी से अपनी ओर से उनका ध्यान हटाए रखती हैं और सभाओं तक में अपनी कम अपने विरोधियों की ज्यादा बात करती हैं. विरोधियों के ऐब को अपना हुनर सिद्ध करना चाहती हैं सो अलग.

दुर्भाग्य से वोट देकर लौट रहे लोगों का मूड पढ़ने में चुनावी आंकड़े कतई मदद नहीं करते. वरना इस मूड पर नाराजगी व नकारात्मकता कितनी हावी है, इसे एक-दो नजीरों से ही समझा जा सकता है. मतदान करके लौट रहे एक वृद्ध का कहना था-दे दिया उनको जनादेश. लूटो खाओ पांच साल और. दूसरे ने कहा-इन नेताओं के राज में जिस भी दफ्तर में जाओ, हर अर्जी पर पैसा लगता है. मेरा तो मन हो रहा था कि इनकी वोट की अर्जी का भी वही हाल कर दूं. सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. एक महिला की मानें तो वोटर की हालत तेज पत्ते जैसी हो गई है. नेता मनपसन्द गोश्त पकाने के लिए इस पत्ते का इस्तेमाल करते और फेंक देते हैं.

ऐसे में इस प्रश्न से तो जूझना ही पड़ेगा कि जो लोग कई हल्कों में वोट बरसने को उम्मीद के तौर पर देख रहे हैं, यह क्यों भूल गए हैं कि वोटों की बारिश तो दंगों में खून की बारिश के बाद भी कम नहीं होती, लेकिन भेड़िए अहिंसक हो जाएं, बगुले भगत और जंगल का राजा लोकतंत्र के गीत गाने लगे तो लोकतंत्र की मस्ती जनता की पस्ती दूर होने का संकेत नहीं रह जाती.

तिस पर जिस युवा पीढ़ी को मतदान बढ़ाने की शाबाशी दी जा रही है, उसकी लोकतांत्रिक दीक्षा तक सवालों के घेरे में है और जो प्रत्याशी संविधान की शपथ लेकर वोट मांगने जा रहे हैं, उनके लिए संवैधानिक मूल्य राजनीतिक सुविधा से ज्यादा कुछ नहीं हैं. दूसरी ओर उनके रोजी-रोजगार और भविष्य मुद्दों पर नेताओं की करतूतें भारी पड़ रही हैं और वे यह देखकर वोट देने को अभिशप्त हैं कि किस पार्टी या प्रत्याशी की करतूत ज्यादा सहने लायक है?

नतीजे आएंगे तो जो भी जीतेगा, जनादेश को अपनी करतूत के पक्ष में मानेगा और जो हार जाएगा, दूसरी तरह के सवाल उठाएगा. लोकतांत्रिक चेतनाएं और मूल्य दूषित कर दिये जाएं तो लोकतंत्र के पेड़ों में ऐसे विषफल ही फलते हैं.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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