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BJP अपने लिए रेगिस्तान कहे जाने वाले आंबेडकर नगर में बहार लाएगी या SP-BSP अपना गढ़ बचाएंगी

नेताओं के व्यापक पालाबदल ने जिले की सारी विधानसभा सीटों पर चुनावी समीकरणों और मुद्दों को उलझा दिया और स्थिति को बुरी तरह गड्ड-मड्ड कर डाला है.

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वोटिंग के लिए लाइन में लगी महिलाएं, फाइल फोटो | पीटीआई

उत्तर प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में 5वें चरण का सबसे दिलचस्प मुकाबला गन्ना व चावल के उत्पादन, पावरलूम उद्योग और टांडा तापीय विद्युत परियोजना के लिए जाने जाने वाले अम्बेडकर नगर जिले में होता दिखता है, जिसे नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी से पहले तक समाजवादी व बहुजन समाज पार्टी का अभेद्य दुर्ग और भारतीय जनता पार्टी का रेगिस्तान माना जाता था.

दरअसल, तब तक भाजपा इस जिले में लोकसभा चुनाव में कभी कमल नहीं खिला पाई थी. 1991 के लोकसभा चुनाव में राम लहर के बावजूद उसके प्रत्याशी बेचनराम जनता दल के प्रतिद्वंद्वी राम अवध से 156 वोटों से हार गये थे और यही उसका तब तक का बेस्ट परफॉर्मेंस था. 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व नये परिसीमन के फलस्वरूप जिले की अकबरपुर लोकसभा सीट को सुरक्षित से सामान्य घोषित करके उसका नाम अम्बेडकर नगर कर दिया गया तो भी भाजपा उस पर अपनी जीत का आजादी के बाद से ही चला आ सूखा खत्म नहीं कर पाई थी.

इसलिए 2014 में मोदी की आंधी में उसके अनाम से प्रत्याशी हरिओम पांडे ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की कलई मरोड़कर अम्बेडकर नगर लोकसभा सीट उससे छीन ली तो प्रेक्षकों ने इसे उसके बड़े चमत्कार के तौर पर देखा था.

भाजपा विधानसभा तो बसपा ने लोकसभा की सीट जीती

2017 में प्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए तो भी भाजपा के इस चमत्कार की चमक बाकी थी. फलस्वरूप उसने न सिर्फ जिले की टांडा और आलापुर विधानसभा सीट जीत ली थीं बल्कि अकबरपुर, जलालपुर व कटेहरी विधानसभा सीटों पर भी कड़ी चुनौती पेश की थी. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरी बसपा ने इस रेगिस्तान को अपने स्थायी गुलिस्तान में बदलने के उसके प्रयासों को धूल चटाते हुए अम्बेडकरनगर लोकसभा सीट फिर अपने नाम कर ली और उसके 2017 के विधानसभा चुनाव में जलालपुर से चुने गये विधायक रितेश पांडे सांसद बन गये. रितेश द्वारा रिक्त की गई विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो भाजपा उसे भी नहीं जीत पाई और सपा ने बाजी अपने नाम कर ली.


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अब, विधानसभा चुनाव की बदली हुई परिस्थितियों में जहां भाजपा 2017 से आगे निकलने के सपने के साथ पसीना बहा रही है, सपा-बसपा अलग-अलग अपने गढ़ पर कब्जे की लड़ाई में लगी हैं. साथ ही भाजपा को तीसरे नम्बर पर धकेल देने का मन्सूबा पाले हुए हैं. सपा-बसपा का सुभीता यह है कि जिले में दलितों व पिछड़ी जातियों का बाहुल्य है. जिस अकबरपुर कस्बे में जिले का मुख्यालय है, वह समाजवादी चिन्तक डाॅ. राममनोहर लोहिया की जन्मभूमि है और बीती शताब्दी के सातवें दशक में गैरकांग्रेसवाद के उभार के बाद से ही, जब यह तत्कालीन फैजाबाद जिले का हिस्सा हुआ करता था, चैधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल और भारतीय लोक दल के गढ़ में बदलने लगा था. आगे चलकर यह क्षेत्र गैरकांंग्रेसी दलों के जनता पार्टी व जनता दल नामक प्रयोगों के साथ भी जुड़ा. फिर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी और कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनाई तो यह उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का साक्षी बन गया.

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अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन करके मतदाताओं के पास गईं तो इस अंचल ने अपनी सारी सीटें बसपा को देकर उसे निहाल कर डाला. यह और बात है कि बाद में उसने बसपा से खुन्नस में तत्कालीन सपाई मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को अपने राजनीतिक आराध्य डाॅ. लोहिया की जन्मभूमि को उनके नाम से जिला बनाने की मांग की अनसुनी करते भी देखा. मुलायम को लगता था कि उन्होंने लोहिया नगर जिला बनाया भी तो उसका सारा श्रेय बसपा ले जायेगी, क्योंकि सारे विधायक उसी के चुने गये हैं. बाद में दोनों का गठबंधन टूटा और भाजपा के समर्थन से मायावती ने बसपा की सरकार बनाई तो उन्होंने मुलायम से इसी का बदला लेने के लिए 29 दिसम्बर, 1995 को डाॅ. लोहिया की जन्मभूमि को डाॅ. अम्बेडकर नगर नाम से जिला बना डाला.

कभी सपा तो कभा बसपा का पलड़ा भारी

फिर तो सपा व बसपा अपनी दुश्मनी को उस मुकाम तक ले गयीं, जहां वह कई बार डाॅ. लोहिया और डाॅ. अम्बेडकर के शातिर दुश्मन होने का आभास देती थीं. इस दुश्मनी के बीच हुए चुनावों में जिले में कभी सपा तो कभी बसपा का पलड़ा भारी होता रहा और बसपा की पैठ गहरी करने के लिए खुद मायावती ने यहां से लोकसभा व विधानसभा के कई चुनाव लड़े. लेकिन जैसा कि पहले बता आये हैं, 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सपा-बसपा दोनों को हाशिये पर धकेलना शुरू कर दिया और 2017 के विधानसभा चुनाव में भी अपनी बढ़त बरकरार रखी, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा फिर से गठबंधन करके उसके मुकाबिल हुईं.

उन्हें उसका लाभ भी मिला, लेकिन इस विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा फिर अलग-अलग हैं, जबकि मोदी लहर अब अस्तित्व में नहीं है और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के सुप्रीमो ओमप्रकाश राजभर व पिछडों के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के विरोध से निर्मित मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दलित-पिछड़ा विरोधी छवि भाजपा की राह का रोड़ा बनी हुई है, इसलिए वह कम से कम इस जिले में कोई बड़ा सपना नहीं देख पा रही.

सपा-बसपा की बात करें तो उनमें सपा का मनोबल इसलिए ऊंचा है क्योंकि उसे भाजपा का स्वाभाविक विकल्प माना जाने लगा है और जिले में जिन दलित व पिछड़े नेताओं रामअचल राजभर व लालजी वर्मा पर बसपा का तकिया था, मायावती के ‘कोप’ के शिकार होने के बाद वे पाला बदल कर सपा के प्रत्याशी बन गये हैं. इनमें रामअचल राजभर को बसपा का शिल्पकार कहा जाता रहा हैं और वे प्रदेश में मायावती की प्रायः सारी सरकारों में मंत्री पद संभालने के साथ बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे हैं. इसी तरह लालजी वर्मा बसपा के राष्ट्रीय महासचिव, मायावती सरकार में मंत्री और बसपा विधानमंडल दल के नेता रहे हैं.

लेकिन ऐसा नहीं कि पालाबदल इन्हीं दो नेताओं ने किया हो. दलित बहुल अकबरपुर विधानसभा सीट से रामअचल राजभर के सपा प्रत्याशी बनते ही सपा के पूर्व विधायक धर्मराज निषाद ने भाजपा में जाकर उनके खिलाफ ताल ठोंक दी है, तो बसपा से उनके पुराने साथी चन्द्र प्रकाश वर्मा भी उन्हें चुनौती दे रहे हैं.

ब्राह्मण बहुल कटेहरी विधानसभा क्षेत्र में बसपा ने लाल जी वर्मा की साइकिल के सामने बाहुबली पवन पांडे के बेटे प्रतीक पांडे को अपने हाथी पर सवार किया है तो भाजपा के अवधेश तिवारी उनके ब्राह्मण वोटों में बंटवारा करके लाल जी वर्मा की राह ही आसान करते दिखते हैं.

भाजपा ने 2017 में सपा प्रत्याशी को हराया

अल्पसंख्यकों के वर्चस्व वाली टांडा विधानसभा सीट पर भाजपा ने 2017 में 200 वोटों से सपा के दिग्गज विधायक अजीमुलहक पहलवान को शिकस्त देने वाली संजू देवी का टिकट काटकर कपिलदेव वर्मा को प्रत्याशी बनाया है तो सपा ने अपने बड़े नेता राममूर्ति वर्मा और बसपा ने अल्पसंख्यक समुदाय की सबीना खातून को. 2017 में भाजपा ने यह सीट एक हत्याकांड को लेकर अपनी प्रत्याशी के प्रति उमड़ी सहानुभूति की बिना पर जीती थी और इस बार उसके प्रत्याशी कपिलदेव वर्मा वह करिश्मा दोहरा सकेंगे, इसमें उनके समर्थकों को भी कई संदेह हैं.

आलापुर विधानसभा क्षेत्र में बसपा के पूर्व सांसद त्रिभुवन दत्त इस बार साइकिल पर सवार होकर मतदाताओं के सामने हैं तो बसपा की केसरा देवी गौतम उनका रास्ता रोक रही हैं. भाजपा ने अपनी चुनौती बरकरार रखने के लिए अपनी 2017 की विधायक अनीता कंवल का टिकट काटकर त्रिवेणी राम को मैदान में उतारा है, जो मुकाबले को तिकोना बनाने के लिए जमीन तोड़ रहे हैं.

जलालपुर विधानसभा क्षेत्र से सपा के वर्तमान विधायक सुभाष राय अपना टिकट कटने के बाद भाजपाई हो गये हैं तो बसपा के पूर्व सांसद राकेश पांडे सपाई बनकर उनके सामने हैं. बसपा ने क्षेत्र के दिवंगत विधायक शेरबहादुर सिंह के, जो अपनी लोकप्रियता के बूते किसी चुनाव में सपा तो किसी में भाजपा और किसी में बसपा के टिकट पर चुने जाते रहे, बेटे राजेश कुमार सिंह को आगे किया है.

नेताओं के व्यापक पालाबदल ने जिले की सारी विधानसभा सीटों पर चुनावी समीकरणों और मुद्दों को उलझा दिया और स्थिति को बुरी तरह गड्ड-मड्ड कर डाला है. इस कारण कोई भी प्रेक्षक नतीजों की भविष्यवाणी का जोखिम नहीं उठाना चाह रहा. जहां तक कांग्रेस के प्रत्याशियों की बात है, उन्हें किसी भी सीट पर दौड़ में कौन कहे, दूसरे नम्बर पर भी नहीं माना जा रहा.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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