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भारत में ‘मानवाधिकार’ पर अमेरिका की धौंस-पट्टी हाथ मिलाने पर हुई खत्म, दिल्ली को क्या मिला इशारा

अमेरिका की जो बाइडन सरकार को बदले जमीनी हालात को स्वीकार करना होगा और भारत जैसे लोकतंत्र के साथ बहुपक्षीय ढांचें में काम करना होगा, यही दोनों के हित में बेहतर है.

अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकन और भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के बीच वर्चुअल शिखर बैठक और 2+2 वार्ता आम मेल-मुलाकातों से कुछ ज्यादा ही अहम थी. दुनिया भर की नजरें उस ओर उठीं, खासकर उनकी जो रूस-यूक्रेन जंग और उसके संभावित नतीजों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हैं.

भारत के लिए, यह अमेरिका और बाकी दुनिया में संदेश देने के लिए अहम था कि नई दिल्ली अपनी विदेश या व्यापार नीति में देशों की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता को सबसे अधिक महत्व देती है. भारत की विकासशील देशों में परियोजनाएं और विकास संबंधी मदद इन्हीं दायरों में निहित है. स्वाभाविक रूप से नई दिल्ली उम्मीद करती है कि भारत से रिश्तों में महाशक्तियां इन्हीं दायरों का ख्याल रखें.

बाइडन के साथ वर्चुअल बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत बुचा में अंधाधुंध बम गिराने से आम लोगों की हत्याओं की निंदा करता है और स्वतंत्र जांच की मांग करता है.

जहां तक जंग की बात है तो भारत और अमेरिका का रुख एक जैसा लगा और दोनों बातचीत के जरिए शांतिपूर्ण समाधान और संघर्ष-विराम चाहते हैं. लेकिन जमीन पर हालात कुछ अलग दिखते हैं. दुर्भाग्य से जंग के बीच फंस गए आम लोगों को मानवीय राहत पहुंचाना बेहद जरूरी है. भारत यूक्रेन को मानवीय मदद पहुंचाने के अग्रिम मोर्चे पर है और वह ऐसा करना जारी रखेगा.

जहां तक अमेरिका का सवाल है तो उसकी प्रतिबद्धताएं और कार्रवाइयां जंग खत्म करने की नहीं, बल्कि लंबा खींचने की लगती है. मीडिया से मुखातिब पेंटागन के प्रेस सचिव जॉन एफ. किर्बी ने बुधवार को कहा, ‘हम शुरू से ही, बल्कि आक्रमण से पहले से ही यूक्रेन को मदद करने को प्रतिबद्ध हैं, ताकि वह अपना बचाव करने के काबिल हो पाए.’

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खबरों के मुताबिक, राष्ट्रपति बाइडन ने मार्च में ऐलान किया था कि अमेरिका 80 करोड़ डॉलर की सुरक्षा मदद पैकेज यूक्रेन को भेज रहा है, जिसमें सैन्य हथियार प्रणाली, वाहन और गोला-बारूद की अतिरिक्त खेप शामिल है. कहा जाता है कि सबसे ताजा हथियार हस्तांतरण में 11 एमआई-17 हेलिकॉप्टर, 18 155मिमी हॉवित्जर तोपें, 300 स्विचब्लेड ड्रोन, 200 एम113 बख्तरबंद गाड़ियां और 100 बख्तरबंद तेज चलने वाली बहुपयोगी गाड़ियां शामिल हैं.

एमआई-17 हेलिकॉप्टर तो अमेरिकी प्रशासन ने मूल रूप से अफगानिस्तान के लिए रखा था. शांति का यह कोई रास्ता नहीं है और नई दिल्ली ह्वाइट हाउस के इस ‘जंग में इजाफे की पहल’ से साफ-साफ अलग राय रखती है.


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बाइडन के तहत अमेरिकी रणनीति में बदलाव

बराक ओबामा प्रशासन ने एक स्थायी और विविधतापूर्ण सुरक्षा व्यवस्था की नींव रखी थी, ‘जिसमें देश अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों पर शांतिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ेंगे और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान सहित सब कुछ अंतरराष्ट्रीय कानूनों और साझा कायदों तथा सिद्धांतों के आधार पर करेंगे.’

डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने ‘अमेरिका पहले’ की नीति पर जोर दिया और चीन से ‘व्यापार युद्ध’ शुरू किया. वही वह वक्त था जब नई दिल्ली ने भारत-प्रशांत क्षेत्र में शांति और प्रगति को प्रशस्त करने और स्वतंत्र, खुले तथा समावेशी नौवहन व्यवस्था के महत्व पर जोर दिया.

यह अजीब पहेली है कि बाइडन प्रशासन ने रूस को ‘दुश्मन नंबर एक’ करार देकर और चीन के ‘कुछ कोलाहल भरे’ उदय को पीछे ढकेल कर शीत युद्ध का माहौल फिर जगा दिया. ह्वाइट हाउस का यह रवैया साफ-साफ बाइडन प्रशासन के बदले रुख का संकेत देता है. लगता है, अमेरिका ने आतंक के खिलाफ जंग, आतंकवाद विरोधी व्यवस्था में भारत-अमेरिका साझेदारी, नौवहन सुरक्षा पर रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करने और लोकतंत्रों के बीच सहयोग को गहरा करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को त्याग कर दिया है, जिससे नियम-कानून पर आधारित क्षेत्रीय और विश्व व्यवस्था कायम करने के लिए सहमना देशों का नेटवर्क बनाने की क्षमता को शह मिले.

अमेरिका को बदले जमीनी हालात को स्वीकार करना होगा और भारत जैसे लोकतंत्रों के साथ बहुपक्षीय ढांचे में काम करने को तैयार रहना होगा. वैश्विक संस्थाओं ने बदलाव और नई चुनौतियों से आंख मूंद ली है या वे बेमानी साबित हो रही हैं.


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दिल्ली को अपना फोकस कहां रखने की दरकार

ऐसे हालात में नई दिल्ली को अपनी प्राथमिकताएं नए सिरे से तय करनी है और इस क्षेत्र में खासकर अपने एकदम पड़ोस की उथल-पुथल से निपटना है. उधर, अमेरिका ने भारत और क्वाड के साथ रिश्ते मजबूत करने के बदले नई दिल्ली को प्रतिबंधों की ‘धमकी’ दी, तथाकथित मानवाधिकार के मुद्दे उठाए और ‘बांह मरोड़ने’ जैसे तेवर दिखाए. वह भूल गया कि नई दिल्ली में एक मजबूत सरकार है. भारत की सुनी-सुनाई बातों और खास मकसद से प्रेरित दुष्प्रचारों का जवाब देने की कोई जवाबदेही नहीं है.

विदेश मंत्री एस. जयशंकर अनुभवी राजनयिक हैं और उनसे यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वे दुनिया में कहीं के मेहमानों के साथ वाक-युद्ध में उलझे, खासकर जब वे अपनी राय रख रहे हों. लेकिन सहने की सीमा लांघ ली जाए तो विदेश मंत्री ने दिखाया है कि वे अमेरिका को मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं.

बड़ा मुद्दा यह नहीं है कि अमेरिकी अधिकारी भारत में मानवाधिकार उल्लंघन के संबंध में अपनी राय को कैसे जाहिर करते हैं. फिलहाल मुद्दा तो है रूस-यूक्रेन युद्ध, चीन के कब्जे वाले तिब्बत और जिनपिंग प्रांत में मानवाधिकार उल्लंघन, सीपीईसी परियोजना पूरी करने के लिए बीजिंग के दबाव में पाकिस्तानी फौज के बलूचिस्तान में अत्याचार, आम लोगों पर हमले वगैरह और सबसे बढ़कर रूस पर अंकुश लगाना.

शुक्र है कि धौंस दिखाने की शुरुआत के बाद हाथ मिलाने के दौर के साथ वार्ता खत्म हुई. शिखर वार्ता का आखिरी नतीजा यह रहा कि क्षेत्रीय और विश्व व्यवस्था के बेहतर हित में भारत-अमेरिका के बीच साझेदारी को और मजबूत की जाएगी.

(लेखक ‘आर्गेनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @seshadrichari. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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