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राजनीतिक हिंसा, आंतरिक कलह, ममता की TMC अपने अंदर ही विपक्ष को जन्म दे रही है

राज्य की विपक्षी पार्टियां इतनी कमजोर और पस्त हो चुकी हैं कि वे तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ कोई सार्थक विरोध नहीं खड़ा कर पा रही हैं. लेकिन इसके चलते जो शून्य पैदा हुआ है उसे तृणमूल कांग्रेस ही भर रही है.

22 मार्च 2022 को बीरभूम के रामपुरहाट में कथित तौर पर कई घरों में आग लगने की घटना के बाद फायरमैन आग बुझाते हुए | एएनआई फोटो

पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बोगतुइ गांव में मार्च के अंत में कम-से-कम आठ लोगों को एक कमरे में बंद करके जिस तरह आग लगाकर मार डाला गया. उस तरह की कई हिंसक घटनाएं राज्य में ममता बनर्जी सरकार के राज में पिछले कुछ वर्षों में घट चुकी हैं. ताजा वारदात की शुरुआत तृणमूल कांग्रेस के एक सदस्य, उप-ग्रामप्रधान भादू शेख की हत्या के बाद हुई और इसका अंत पार्टी के समर्थकों के एक गुट पर दूसरे गुट द्वारा हमले में हुआ, जिसने उस गुट पर शेख पर बम से हमला करके मार डालने का आरोप लगाया.

पंचायत से लेकर लोकसभा, विधानसभा और पालिका तक के चुनावों में लगातार हार से राज्य की विपक्षी पार्टियां इतनी कमजोर और पस्त हो चुकी हैं कि वे तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ कोई सार्थक विरोध नहीं खड़ा कर पा रही हैं. लेकिन इसके चलते जो शून्य पैदा हुआ उसे तृणमूल कांग्रेस ही भर रही है. अब इस पार्टी के गुटों के बीच के झगड़े खबर बन रही हैं.

अब सवाल यह है कि तृणमूल कांग्रेस के लोग ही एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा क्यों कर रहे हैं, जबकि उनकी पार्टी चुनाव जीत रही है और 2021 के विधानसभा चुनाव में और फिर 2022 के पालिका चुनावों में जबरदस्त जीत हासिल की?

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक वर्चस्व

तृणमूल कांग्रेस का अंदर की हिंसा को समझने के लिए पश्चिम बंगाल में पिछले एक दशक में स्थापित राजनीतिक वर्चस्व के ढांचे पर गौर करना होगा. राज्य की अर्थव्यवस्था इतनी जीवंत नहीं है कि नियमित तौर पर नये रोजगार पैदा कर सके, और सरकार की बड़ी पहल लोगों को खैरात बांटने तक सीमित रही है. इसलिए इन खैरातों पर निर्भरता बढ़ती ही गई है.

वाम मोर्चे के दौर से ही यहां सत्ता दल लोगों के साथ संरक्षक-ग्राहक वाला रिश्ता बनाने के लिए राज्य के विकास फंड का इस्तेमाल करता रहा है. इसका तरीका यह है कि विपक्षी दलों के समर्थकों को विकास फंड के लाभ से वंचित रखा जाता है और सत्ता दल का साथ देने वालों पुरस्कृत किया जाता है. यह फॉर्मूला आज भी चल रहा है. इसमें फर्क सिर्फ यह आया है कि तृणमूल कांग्रेस के दौर में विपक्ष लगभग शून्य है. इसलिए विपक्ष सत्ता दल के भीतर ही जन्म ले रहा है.

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राज्य में वर्चस्व स्थापित होते ही जिलों के क्षत्रपों ने खुद को ‘सुप्रीमो’ घोषित कर दिया. यानी सभी पंचायतें और पालिकाएं उनकी गिरफ्त में आ गईं और वे अपनी ताकत का प्रयोग करते हुए यह तय करने लगे कि किस मद में कितना फंड दिया जाएगा और किसे लाभ पहुंचेगा. हरेक ग्राम पंचायत को हर साल औसतन 1.5 करोड़ रुपये से ऊपर का निर्बंध कोश और 2 करोड़ का बद्ध कोश मिलता है. इसके अलावा वे अपने स्रोतों से 5-7 लाख रुपये जुटा लेते हैं. तीन स्तरीय पंचायत व्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण होने के कारण सत्ता दल का क्षत्रप और उनके करीबी लोग लालच और धमकी की नीति का प्रयोग करके स्थानीय लोगों को दबाव में रखते हैं.

नियंत्रण केवल कोश पर नहीं किया जाता. जमीन की खरीद-बिक्री, उस जमीन पर निर्माण, अवैध तरीके से चलाए जा रहे स्थानीय ट्रांसपोर्ट जैसे आर्थिक कारोबारों, कोयले या रेत की अवैध खुदाई, मवेशी की तस्करी आदि तभी चलने दी जाती है जब पार्टी के बड़े नेताओं को ‘लेवी’ का भुगतान नहीं किया जाता है. जिलों में इन वैध-अवैध कामों के एवज में ‘रेंट या टैक्स’ वसूलने के लिए उनमें पार्टी का दबदबा होना जरूरी है.


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पंचायतों पर कब्जे की होड़

तृणमूल कांग्रेस की बीरभूम इकाई के अध्यक्ष अनुब्रत मंडल एक ताकतवर नेता हैं, जिनके खिलाफ सीबीआई गायों की तस्करी के मामले में कथित भागीदारी के आरोपों की जांच कर रही है. मंडल की पकड़ तब कमजोर पड़ने लगी जब रामपुरहाट के विधायक और राज्य के मंत्री आशीष बनर्जी अपना अलग काम करने लगे. बीरभूम जिले का रामपुरहाट पत्थर के खदानों के पास है जहां क्रशर उद्योग खूब चलता है. इसके अलावा, पास के देउचा पचमी कोयला ब्लॉक में राज्य सरकार द्वारा विशाल कोयला भंडार खोले जाने की संभावना ने राजनीतिक जमात में ज्यादा ‘कमाई’ की उम्मीदें जगा दी है. ऊपर से, कोयले की अवैध खुदाई यहां का पारंपरिक धंधा रहा है.

यही स्थिति आसनसोल-रानीगंज औद्योगिक क्षेत्र में भी दिखती है, जहां कोयले और रेत की अवैध खुदाई ने घनघोर खूनखराबे को जन्म दिया है. इसलिए दांव बहुत ऊंचे हैं कि अपने-अपने इलाके में कौन इन ‘धंधों’ को अपने कब्जे में करता है. जिले के नेताओं को पार्टी के दूसरे ताकतवर नेताओं से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. आज जो हिंसा फैल रही है वह इसी होड़ का नतीजा है. इसकी वजह यह है कि पूरा नियंत्रण हासिल करने के लिए संस्थागत व्यवस्था पर भी नियंत्रण चाहिए, इसलिए पंचायत और स्थानीय निकायों को काबू में लेना जरूरी हो जाता है. इसलिए पश्चिम बंगाल में विधानसभा या लोकसभा चुनावों से ज्यादा पंचायत चुनावों के दौरान हम इतनी हिंसा देखते हैं.

पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों में हिंसा का पुराना इतिहास रहा है. 2018 के पंचायत चुनाव में करीब 25 लोग मारे गए थे हालांकि राज्य के डीजीपी ने मृतकों की संख्या 18 ही बताई थी. 2013 के पंचायत चुनाव में मृतकों की संख्या 13 थी, 2003 में यह 61 थी. 2018 में पंचायत चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस वालों ने कथित रूप से विपक्षी उम्मीदवारों को पर्चा भरने से रोका था. नतीजतन, 34 फीसदी यानी 20,000 सीटों पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस निर्विरोध जीत गई थी. बाकी सीटों पर भी बाहुबलियों का दबदबा देखा गया था.

स्थानीय निकायों पर पूर्ण कब्जा करने के पीछे मकसद फंड पर और उसके जरिए स्थानीय लोगों पर पूरा नियंत्रण हासिल करना है. वर्चस्व की यह लड़ाई अब केवल पार्टी के अंदर सीमित नहीं रह गई है. हाल की घटनाएं इस नयी प्रवृत्ति को उजागर कर रही हैं कि पुलिस सत्ता दल की मदद करने में सक्रिय भूमिका निभा रही है. सीबीआई ने अनीस खान की हत्या में राज्य पुलिस की भूमिका की जांच शुरू कर दी है.

हाल में पुरुलिया के झालदा में नवनिर्वाचित कांग्रेसी पार्षद तपन कांदू की हत्या भी एक उदाहरण है. कांदू की पत्नी ने आरोप लगाया है कि स्थानीय पुलिस थाने में सर्कल इंस्पेक्टर उनके पति पर दबाव डाल रहा था कि वे तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो जाएं, और वह उन्हें पालिका बोर्ड में उपाध्यक्ष बना देने की पेशकश भी कर रहा था. झालदा उन चार पालिकाओं में एक है जहां पंचायत चुनाव में नतीजे बराबरी पर आए थे. पुरुलिया के एसपी एस. सेल्वामुरुगन का कहना है कि यह हत्या पारिवारिक झगड़े के कारण हुई है.

इस तरह हासिल किए गए राजनीतिक दबदबे के साथ एक कुत्सित तर्क जुड़ा है कि यह वर्चस्व के अंदर वर्चस्व को जन्म देता है, जो पश्चिम बंगाल में अंततः वर्चस्व को जन्म दे रहा है.

(लेखक एक पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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