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स्टैच्यू ऑफ यूनिटी सरदार पटेल को एक मात्र बड़ी श्रद्धांजलि नहीं है — एक IAS अधिकारी ने पहले ऐसा किया था

भले ही मैंने उनके साथ उत्तराखंड सरकार में 5 साल से अधिक समय तक काम किया, लेकिन 1973 आईएएस बैच के एसके दास ने कभी भी ज़िक्र नहीं किया कि उन्होंने क्या-क्या किया है.

देहरादून में सरदार पटेल की मूर्ति | सतीश शर्मा, गढ़वाल पोस्ट

गुजरात में सरदार सरोवर बांध के पास अपनी तरह की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा — 182 मीटर ऊंचे स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के लिए जानकारी का कोई आभाव नहीं है. सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती के उपलक्ष्य में 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस के तौर पर मनाया जाता है. तो वहीं, भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय वन सेवा और भारतीय विदेश सेवा सहित 19 केंद्रीय सेवाओं के नए नियुक्त अधिकारियों के लिए सामान्य फाउंडेशन कोर्स ‘आरंभ’ मनाया जाता है.

लेकिन, यह कॉलम पटेल और इन सबसे हटकर एक ऐसी प्रतिमा के बारे में है जो काफी दिनों तक अज्ञात रही, ये हमें 1949 की उस संविधान सभा की याद दिलाता है: “There is no alternative to this administrative system…The Union will go, you will not have a united India if you do not have good All-India Service which has the independence to speak out its mind, which has [the] sense of security that you will stand by your work…If you do not adopt this course, then do not follow the present Constitution. Substitute something else…these people are the instrument. Remove them, and I see nothing but a picture of chaos all over the country.”

यहां जिस आईएएस अधिकारी की बात हो रही है वे 1973 बैच के दिवंगत एसके दास हैं, जिनके साथ भले ही मैंने उत्तराखंड सरकार में 5 साल से अधिक समय तक काम किया, लेकिन उन्होंने कभी भी इसका ज़िक्र नहीं किया, लेकिन 29 सितंबर को देहरादून में दास की स्मृति बैठक में डॉ. द्विजेन सेन मेमोरियल कला केंद्र के सचिव कर्नल वीके दुग्गल (सेवानिवृत्त) ने शहर के एक प्रमुख स्थल — क्लॉक टॉवर और जनरल पोस्ट ऑफिस के बीच स्थित एक स्थान पर पटेल की मूर्ति स्थापित करने में उनकी भूमिका को याद किया, जिसे अब सरदार पटेल पार्क कहा जाता है.

वह मूर्ति जिस पर धूल जमी थी

यहां जिस आईएएस अधिकारी की बात हो रही है वे 1973 बैच के दिवंगत एसके दास हैं, जिनके साथ भले ही मैंने उत्तराखंड सरकार में 5 साल से अधिक समय तक काम किया, लेकिन उन्होंने कभी भी इसका ज़िक्र नहीं किया, लेकिन 29 सितंबर को देहरादून में दास की स्मृति बैठक में डॉ. द्विजेन सेन मेमोरियल कला केंद्र के सचिव कर्नल वीके दुग्गल (सेवानिवृत्त) ने शहर के एक प्रमुख स्थल — क्लॉक टॉवर और जनरल पोस्ट ऑफिस के बीच स्थित एक स्थान पर पटेल की मूर्ति स्थापित करने में उनकी भूमिका को याद किया, जिसे अब सरदार पटेल पार्क कहा जाता है.

थिएटर और कला प्रेमी दास अक्सर टाउन हॉल जाते रहते थे, जो शहर में सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभरा. अपनी एक यात्रा के दौरान, उन्होंने एक धूल भरे बोरे के बारे में पूछा, तो उन्हें बताया गया कि यह सरदार पटेल की मूर्ति थी जिसे नगर पालिका ने बनवाया था, लेकिन इसे कभी स्थापित नहीं किया गया. इसके अलावा, न तो नगर पालिका अध्यक्ष और न ही कोई मंत्री या सांसद प्रतिमा की स्थापना से जुड़ना चाहते थे, जबकि एक मंत्री सहमत हो गए थे, लेकिन आखिरी मिनट में उन्होंने पद ही छोड़ दिया. तब निराश दास ने यह काम खुद करने का फैसला लिया – जो पटेल द्वारा अपने सिविल सेवकों के लिए सोचे गए विवेक के सिद्धांतों के बिल्कुल अनुरूप था. यह शायद सरदार पटेल को सबसे उपयुक्त श्रद्धांजलि थी. कई वर्षों तक केवल देहरादून का जिला प्रशासन ही उन्हें 31 अक्टूबर के दिन याद करता था.

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वह आदमी जिसने भारत को बचाया

पटेल के दो सबसे प्रमुख जीवनी लेखक, राजमोहन गांधी (पटेल, ए लाइफ) और हिंडोल सेनगुप्ता (द मैन हू सेव्ड इंडिया) स्वीकार करते हैं कि 31 अक्टूबर उनकी असल जन्मतिथि नहीं हो सकती, लेकिन मैट्रिक की परीक्षा के समय उन्होंने यही लिखा था. अब, राष्ट्रीय एकता दिवस और सरदार के राजनीतिक पुनरुत्थान की चर्चा के साथ, कई राजनीतिक गणमान्य व्यक्तियों द्वारा पुष्पांजलि अर्पित की जाएगी और उनके कुछ उद्धरण प्रमुख अखबारों में प्रमुखता से छापे जाएंगे.

जब पहली बार 2014 में राष्ट्रीय एकता दिवस की घोषणा की गई थी, तो आधिकारिक बयान में कहा गया था: ‘‘यह हमारी देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए वास्तविक और संभावित खतरों का सामना करने के लिए हमारे राष्ट्र की अंतर्निहित ताकत और लचीलेपन की फिर से पुष्टि करने का अवसर प्रदान करेगा.’’ दरअसल, 1947 में जब भारत को आज़ादी मिली, तो बहुत गंभीर खतरे थे. विभाजन से संबंधित हिंसा के परिणाम, साथ ही 500 से अधिक रियासतों को एकीकृत करने की अनिवार्यता, जो स्वतंत्रता-पूर्व भारत के 40 प्रतिशत से अधिक भूभाग को कवर करती थी, साथ ही पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित बड़े पैमाने पर जम्मू और कश्मीर में घुसपैठ ने एक नए राष्ट्र की नींव को हिलाकर रख दिया था.

भले ही 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में परिकल्पना की गई थी कि रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकती हैं, जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद और त्रावणकोर जैसे कुछ बड़े राज्यों ने स्वतंत्रता के विचार के साथ खिलवाड़ किया. कई लोग इस बात को लेकर दुविधा में थे कि वे किस डोमिनियन में शामिल हों. डेथ्रोन्ड: पटेल, मेनन एंड द इंटीग्रेशन ऑफ प्रिंसली इंडिया, जॉन जुब्रज़ीकी की एक किताब में भारतीय डोमिनियन में रियासतों को मिलाना सुनिश्चित करके भारत के विघटन को रोकने में पटेल द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका की जांच की गई है.

ज़ुब्रज़ीकी इस ऐतिहासिक उपलब्धि का श्रेय पटेल की मनाने की योग्यता, विशेषाधिकारों और प्रिवी पर्स के वादे और सेना की ‘ताकत’ के इस्तेमाल की धमकी को देते हैं. इन राज्यों के प्रति नेहरू की खुली शत्रुता, जो ऐसे बयानों कि रियासतें “प्रतिक्रिया और अक्षमता व अनियंत्रित निरंकुश शक्ति का भंडार हैं, जिसका प्रयोग कभी-कभी दुष्ट और अपमानित व्यक्तियों द्वारा किया जाता है,” में व्यक्त हुई जो कि संभावित रूप से परिवर्तन को बाधित कर सकता था. कई राजाओं ने इसे एक संकेत के रूप में लिया कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले भारत में उनका कोई भविष्य नहीं है. इस आशंका का मुहम्मद अली जिन्ना ने भरपूर फायदा उठाया, जिन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों शासकों को ब्लैंक चेक की पेशकश शुरू की. कुछ राजा अपने प्रशासन को ‘लोकतांत्रिक’ बनाने के बजाय अपनी पूर्ण शक्ति बनाए रखने में अधिक रुचि रखते थे.

भारत का लौह पुरुष

पटेल ने राजकुमारों के गौरवशाली अतीत की बात करते हुए एक कूटनीतिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया, जहां उनके पूर्वजों ने “अपने परिवार के सम्मान और अपनी भूमि की स्वतंत्रता की रक्षा में अत्यधिक देशभक्तिपूर्ण भूमिका निभाई थी.” लेकिन उन्होंने निर्णायक और दृढ़ कार्रवाई तब की जब इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी.

उदाहरण के लिए, जब जूनागढ़ के एकांतप्रिय और जुनूनी शासक, महाबत खान III ने अपने राज्य की पाकिस्तान में एकतरफा विलय की घोषणा की, तो पटेल ने ऐसा न होने देने के लिए कदम उठाया. ऐसा न करने से हैदराबाद का हौसला बढ़ता, साथ ही पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका मिलता. आज़ादी से कुछ समय पहले जब जोधपुर के नवनियुक्त राजा जिन्ना से मिले तो पटेल ने भी निर्णायक कार्रवाई की. उन्होंने उन्हें स्पष्ट रूप से बताया कि अगर उन्होंने पाकिस्तान का विकल्प चुना, तो यदि उनकी हिंदू बहुसंख्यक आबादी और सेना विद्रोह करती है तो भारत उनकी रक्षा नहीं करेगा. जोधपुर के शासक ने कागज़ात पर चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए.

प्रशासनिक व्यवस्था और प्रशासकों की रक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी. वह अपने प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट सहयोगियों की तुलना में अधिक स्पष्टता से समझते थे कि आंदोलन चलाना राज्य के मामलों के प्रबंधन से अलग था. यह काफी हद तक उनका आग्रह था कि अनुच्छेद 311 को बरकरार रखा गया. संविधान सभा के कई सदस्यों ने महसूस किया कि सिविल सेवक राज के उपकरण थे जो अक्सर कई सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में दूसरी ओर से थे. सिविल सेवकों को “बिना किसी डर या पक्षपात के” अपने मन की बात कहने की अनिवार्य आवश्यकता पर उनका बयान वास्तव में एक गंभीर वादा है जिसे स्टील फ्रेम में शामिल होने वाले युवाओं को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के नीचे ‘राष्ट्रीय एकता की प्रतिज्ञा’ लेते समय कायम रखने का संकल्प लेना चाहिए. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें भारतीय सिविल सेवाओं का भीष्म ‘पितामह’ माना जाता है.

जबकि हम स्टैच्यू ऑफ यूनिटी की शान का आनंद ले रहे हैं, भारत को बचाने वाले व्यक्ति को समर्पित अन्य मूर्तियों और स्थलों को देखना महत्वपूर्ण है. दास जैसे सिविल सेवकों के योगदान को रिकॉर्ड पर रखना महत्वपूर्ण है, जिन्होंने तब भी सही काम किया जब राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह से अनुकूल नहीं थीं. तभी, और केवल तभी, भारत की एकता टेरा फ़रमा पर टिकी होगी.

(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक, वह लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा और शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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