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समाजवादी विचारों वाली जेसिंडा आर्डन जिसने न्यूजीलैंड को दुनिया में सबसे पहले कोरोना मुक्त कराया

न्यूजीलैंड ने कोरोना संक्रमण के खिलाफ पहले दौर की लड़ाई जीत ली है. ये उपलब्धि उसने एक ऐसी नेता के नेतृत्व में हासिल की है जो मानवीय संवेदना और कुशल प्रशासन के लिए जानी जाती हैं.

जेसिंडा आर्डन | कॉमन्स

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डन ने देश को कोरोना मुक्त घोषित कर दिया है. अब वहां कोरोना संक्रमण का एक भी मामला नहीं है और पिछले 19 दिनों से कोई नया मामला भी नहीं मिला है. कोरोनावायरस से जुड़ी तमाम पाबंदियां अब हटा ली गई हैं.

न्यूजीलैंड कोरोना महामारी से बेहतर तरीके से निपटा है. इसके लिए उसे आर्थिक सुपरपॉवर होने की कोई ज़रूरत नहीं हुई. सही समय पर सही कदम और उस कदम का ईमानदारी से अनुपालन ही उनकी ताकत बन गया. जानते हैं कि क्या ख़ास है जेसिंडा आर्डन के व्यक्तित्व में, उनकी नेतृत्व क्षमता में, जिसे अपनी ताकत बनाकर न्यूजीलैंड ने कोराना संकट का मुकाबला किया.

जेसिंडा आर्डन की कामयाबी पर चर्चा करते समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि भारत जैसे बड़े देशों से न्यूजीलैंड की तुलना नहीं की जानी चाहिए. एक तो भारत की तुलना में न्यूजीलैंड की आबादी नाम मात्र (50 लाख से कम, यानि दिल्ली से एक चौथाई के आसपास) की है और भारत से विपरीत न्यूजीलैंड की गिनती विकसित देशों में होती है. खासकर मानव विकास के पैमाने पर न्यूजीलैंड का स्थान काफी ऊंचा (विश्व में 14वां) है. इसके बावजूद न्यूजीलैंड की कोरोना कहानी में सीखने को काफी कुछ है.

न्यूजीलैंड का कोराना अनुभव

जब न्यूजीलैंड में मात्र 6 कोरोना मामले पाए गए थे तभी जेसिंडा ने 16 मार्च को देश में बाहर से आने वाले सभी यात्रियों के लिए सेल्फ आइसोलेशन अनिवार्य कर दिया. साथ ही लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगा दी. 25 मार्च से देश में पूर्ण लॉकडाउन लगा दिया. ध्यान रहे 25 मार्च को भारत और न्यूजीलैंड दोनों देशों में लॉकडाउन शुरू हुआ. लेकिन एक देश ने कोरोना महामारी को समाप्त कर दिया. जबकि भारत में अभी कोरोना संक्रमण का शिखर आना बाकी है और नए संक्रमण की संख्या लगातार बढ़ रही है.

लॉकडाउन तो अधिकांश देशों ने अपनाया लेकिन लापरवाही, देरी और अनियोजित अनुपालन ने अधिकांश बड़े देशों के लॉकडाउन को असफल साबित कर दिया. जिन देशों ने लॉकडाउन के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत किया और साथ ही आर्थिक पैकेज में देश की जनता, खासकर अपने गरीब और वंचित लोगों का जितना बेहतर ध्यान रखा, वो उतने ही सफल रहे. पूरे न्यूजीलैंड ने अपने प्रधानमंत्री के इस कड़े फैसले का भरोसा किया और तय सीमा से पहले ही कोरोना को ख़त्म कर दिया.

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जेसिंडा ने जब भी बोला टू द पॉइंट बोला. देश के सभी वर्ग के लोगों को भरोसा देते हुए बोला और साथ ही भरोसे को आर्थिक आधार भी प्रदान किया. वे ढकोसलों, दिखावों, पब्लिसिटी स्टंट से दूर रहीं, इसलिए न्यूजीलैंड की जनता ने जेसिंडा के नेतृत्व में भरोसा जताया. वो भी तब जबकि वहां साझा सरकार के साथ एक मजबूत विपक्ष भी है.

मस्जिद शूटआउट के समय दिखी थी नेतृत्व क्षमता

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डन की संजीदगी उस समय भी दिखी थी जब पिछले साल न्यूजीलैंड के क्राइस्ट चर्च शहर की मस्जिद में हुई फायरिंग में 51 मुस्लिम मारे गए थे. तब जेसिंडा ने गोली चलाने वाले को सीधे आतंकवादी कहा था, भटका हुआ अतिवादी नहीं. हमलावरों के खिलाफ आतंकवाद की धाराओं में ही मुकदमा चला. उस संकट के समय जेसिंडा को जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा कि अमेरिका तुम्हारी क्या मदद कर सकता है तो जेसिंडा ने कहा, ‘अगर कर सको तो पूरे मुस्लिम समुदाय के प्रति सहानुभूति और प्यार करो.’ इतनी आत्मीयता के साथ शायद ही किसी देश का प्रमुख किसी अल्पसंख्यक समुदाय के साथ खड़ा हुआ हो.

जेसिंडा का उस घटना के बाद मुस्लिम पीड़ितों से जाकर गले लगना, उन्हें अस्सलाम वालेकुम से संबोधित करना और उस घटना के बाद देश में गन लाइसेंस कानून को और कड़ा कर दिए जाने की प्रशंसा पूरी दुनिया में हुई. बुर्ज खलीफ़ा से जेसिंडा की एक पीड़ित मुस्लिम महिला को गले लगाते हुए एक तस्वीर भी प्रदर्शित की गई. इस घटना के बाद टाइम मैगज़ीन ने उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार तक मिलने की संभावना व्यक्त की. इस घटना ने उनकी पार्टी की लोकप्रियता न्यूजीलैंड में काफी बढ़ा दी.

समाजवादी विचार वाली नारीवादी नेता

वो कम उम्र (17 साल) में ही राजनीति में प्रवेश कर चुकी थीं. विद्यार्थी रहने के दौरान वो वर्कर्स राइट कैंपेन में भाग लिया करती थीं. 2008 में लंदन में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ सोशलिस्ट यूथ की वो प्रेसिडेंट बनीं और उसी साल न्यूजीलैंड की पार्लियामेंट में सबसे कम उम्र की सांसद भी बनीं.

इराक पर अमेरिकी आक्रमण को लेकर 2011 में वो टोनी ब्लेयर से भी सवाल पूछ चुकी हैं. व्यक्तिगत तौर पर वो फ़िलिस्तीन मुद्दे पर अमेरिका और इजरायल से अलग राय रखती हैं. जेसिंडा घोषित ट्रम्प विरोधी मानी जाती हैं. 2017 के ट्रम्प विरोधी वीमेंस मार्च में वे शामिल थीं. जेसिंडा ने चीन द्वारा उईघुर में और म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे दमन की खुलकर आलोचना की है.

राजनैतिक विचारधारा के लिहाज से वे ख़ुद को सोशलिस्ट मानती हैं. वे फेमिनिस्ट हैं. न्यूजीलैंड में बाल गरीबी, हाउसिंग प्रॉब्लम और सामाजिक विषमता के लिए वो खुले तौर पर पूंजीवादी आर्थिक नीतियों को ज़िम्मेदार मानती हैं. 2017 से पहले वो अपनी सांसदी का चुनाव कभी जीत तो सकीं थीं लेकिन पार्टी में उनकी पॉपुलैरिटी इतनी थी कि उनकी रैंकिंग शीर्ष नेताओं के बराबर थी और इसीलिए पार्टी सीट पर वो लगातार एमपी बनी रहीं. उनकी पॉपुलैरिटी इतनी थी कि जब उनके नेतृत्व में 2017 का आम चुनाव हुआ तो वहां के न्यूज़ चैनलों ने इसे ‘जेसिंडामैनिया’ और ‘जेसिंडा इफ़ेक्ट’ कहा.


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उनके नेतृत्व में लेबर पार्टी ने 2017 में 9 साल बाद सबसे बेहतर प्रदर्शन किया. कोरोना से बेतरीन ढंग से निपटने के बाद पिछले हफ्ते आये सर्वे में वो 59.5% पॉपुलैरिटी के साथ न्यूजीलैंड की सबसे पसंदीदा प्रधानमंत्री बतायी गयीं. फोर्ब्स मैगज़ीन ने 2019 में जेसिंडा को दुनिया का 38वां सबसे प्रभावशाली व्यक्ति माना और टाइम मैगज़ीन ने उन्हें टाइम परसन ऑफ द इयर के लिए शॉर्टलिस्ट किया.

2005 में गे राइट्स पर चर्च को लेकर मतभेद के चलते वो चर्च से हमेशा के लिए अलग हो गयीं. 2017 में उन्होंने ख़ुद को धर्म से पूरी तरह अलग करते हुए नास्तिक यानि कोई भी धर्म न मानने वाला घोषित कर लिया. उनकी परवरिश ईसाई परिवार में हुई. वो न्यूजीलैंड की पहली प्रधानमंत्री हैं जो प्राइड परेड में शामिल हुईं. एबॉर्शन लॉ को उन्होंने महिलाओं के पक्ष में बदला और इसे अपराध की श्रेणी से बाहर किया.

जेसिंडा दुनिया के किसी देश की सबसे युवा (37 साल) प्रमुख बनी थीं. बेनज़ीर भुट्टो के बाद वो दूसरी ऐसी महिला हैं जो देश की मुखिया के तौर पर कार्यकाल के दौरान मां बनीं. उन्होंने अपने पहले कार्यकाल के ख़त्म होने तक चाइल्ड पोवर्टी को आधा कर दिए जाने की ठानी है. उनके जनहित के कुछ निर्णयों के कारण उन्हें विपक्ष कटाक्ष के तौर पर कम्युनिस्ट कहता है.

(लेखक दिल्ली के भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं. उन्होंने जेएनयू से भूगोल विषय में पीएचडी की है)

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