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हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी की वैचारिक-राजनीतिक दृष्टि को समझना जरूरी

गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत के 90 वर्षों बाद भी राष्ट्रीय आंदोलन, हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के इतिहास में उनके महत्वपूर्ण योगदानों की सम्यक विवेचना होना शेष है.

गणेश शंकर विद्यार्थी | फोटो : विकीमीडिया

आज हिंदी ज्ञानोदय के प्रतीक और हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती है. जिनका जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में हुआ था. उनके पिता मुंशी जयनारायण लाल ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के प्रधानाध्यापक थे.

पत्रकारिता के ‘प्रताप’, गांधी के अनुयायी

आज के समय में जब मीडिया के बड़े हिस्से पर ‘गोदी मीडिया’ बन जाने के आरोप लग रहे हैं, तब विद्यार्थी जी को याद करना, उनकी पत्रकारिता के ‘प्रताप’ को याद करना, जनता के प्यारे अखबार ‘प्रताप’ की लोकप्रियता, उसके सिद्धान्तों, मूल्यों और पत्रकारिता के उस मील के पत्थर को याद करना, जरूरी हो जाता है. वह मूर्धन्य पत्रकार थे. वह क्रांतिकारी थे. वह हिंदी जाति के ज्ञानोदय के प्रतीक और हिंदी पत्रकारिता के पितामह कहे जाते रहेंगे. वह एक जीताजागता पत्रकारिता और साहित्य का संस्थान थे, जहां से रामवृक्ष बेनीपुरी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा जैसे साहित्यकारों का विकास हुआ तो वहीं भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की पत्रकारीय प्रतिभा का भी विकास हुआ. वह जितने पत्रकार थे उतने ही बड़े क्रांतिकारी थे. वह किसान आंदोलनकारी थे. वह मजदूरों के नेता थे. वह मूकजन की आवाज़ थे.

वह गांधी के अनुयायी थे, तो वहीं क्रांतिकारियों के सबसे विश्वसनीय साथी थे. उनका ‘प्रताप’ अखबार क्रांतिकारियों का अड्डा था, जहं भेष बदलकर भगत सिंह, आजाद सहित तमाम क्रांतिकारी महीनों रहते थे. वहीं वह कांग्रेस के बड़े नेता थे जो यूनाइटेड प्रोविंस (आज का उत्तर प्रदेश) के कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी थे. रायबरेली में किसान आंदोलन पर जमींदारों -अंग्रेजों ने जब गोली चलवायी, तो वह वहां सबसे पहले पहुंचे, किसानों को संगठित किया, आवाज उठायी और ‘प्रताप’ में लेख लिखा- ‘डायरशाही ओ डायरशाही’, यह दूसरा जलियांवाला कांड है. जमीन पर गिरा लहू इस देश में सामंतशाही और साम्राज्यवाद दोनों की समाधि बनेगा. अंग्रेजों ने उन पर मुकदमा कर दिया. उनके पक्ष में 50 से ज्यादा गवाह पेश हुये जिसमें मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, श्री कृष्ण मेहता जैसे राष्ट्रीय नेता भी थे.

आज के समय में विद्यार्थी जी को याद करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है, जब मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है तब हमें विद्यार्थी जी याद आते हैं जो भगत सिंह की फांसी के तीसरे दिन ही कानपुर में दंगों को रोकने के प्रयास में 25 मार्च 1931 को शहीद हो गए.


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जब कानपुर में दंगे भड़के तो केवल अखबार में लिखकर वह कैसे संतुष्ट हो जाते. दंगों को रोकना उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझी. कई जगह पर वो दंगों को रोकने में कामयाब भी रहे पर कुछ देर में ही वो दंगाइयों की एक ऐसी टुकड़ी में फंस गए जो दंगाई उन्हें पहचानते नहीं थे. फिर विद्यार्थी जी लौटकर वापस न आये. अपने पत्रकारीय मूल्यों और जीवन सिद्धान्तों के प्रति यह उनकी प्रतिबद्धता थी कि उन्होंने उन आदर्शों के लिए अपनी जान की भी बाजी लगा दी. वह धर्म और राजनीति के घालमेल के खिलाफ थे इसीलिए वह धर्म आधारित राष्ट्र की अवधारणा को एक बड़ी भारी भूल मानते थे.

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उन्होंने लिखा था- ‘कुछ लोग हिंदू राष्ट्र चिल्लाते हैं. वह बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और वह अभी तक राष्ट्र के अर्थ को नहीं समझते हैं.’ विद्यार्थी की आधुनिक राष्ट्र/राज्य की अवधारणा पूरी तरह धर्म निरपेक्ष है.

इसका यह भी मतलब नहीं कि वह धर्म के विरोधी थे बल्कि वह खाटी भारतीय परिस्थितियों में भारतीय धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा ‘सर्व धर्म समभाव’ के उपासक थे. तभी उन्होंने लिखा था- ‘हम किसी मजहब के विरोधी नहीं, हम इस बात में पूर्ण विश्वास करते हैं कि प्रत्यके उन्नत राष्ट्र में प्रत्येक पुरूष तथा स्त्री को मज़हबी विचार रखने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिये.’

आज के समय में जो गांधी बनाम भगत सिंह की बाइनरी क्रिएट करने की कोशिश हो रही है वह उस मिथक के सबसे बड़े प्रतिमिथक थे. वह गांधी-भगत सिंह को दो रास्ते मगर एक विचार मानते थे. वह विचार था समतामूलक आजाद भारत का. तभी तो जहां वह गांधी के रास्ते कांग्रेस मुख्यधारा में सक्रिय थे.

वहीं क्रांतिकारियों की विद्यार्थी द्वारा हरकदम पर सहायता एक स्थापित तथ्य है. इस तरह हम कह सकते हैं वह भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन की दृष्टि है, जो आम भारतीय जनमानस की दृष्टि है. जो विचार के दो छोर पर खड़े नायकों को बनाम नहीं साथी के रूप में देखती है.

विद्यार्थी ने अपने तीन साथी शिव नारायण मिश्र, नारायण प्रसाद अरोड़ा और यशोदानंदन के साथ मिलकर 9 नवंबर 1913 को उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में ‘प्रताप’ की नींव डाली थी. जन्म काल से ही प्रताप का दफ्तर क्रांतिकारियों की शरण स्थली था तो युवाओं के लिए पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र. विद्यार्थी ने महज पाठकों के लिए ना ही लिखा बल्कि नए लेखक पत्रकार तैयार करने और पत्रकारिता को मिशन बनाने की दिशा में भी काम किया. प्रताप के माध्यम से जन जागरण का अभियान चलाया गया.

जनआंदोलनों को आगे बढ़ाने के पुरस्कार स्वरूप बार-बार प्रताप संपादकों-प्रकाशकों को बार बार जेल तक जाना पड़ा, परंतु प्रताप अपने मूल्यों-सिद्धांतों से नहीं डिगा इसीलिए आप कल्पना करें जब परिवहन के साधन सीमित थे, हर गांव में गिने चुने लोग पढ़े लिखे साक्षर होते थे. उस दौर में ‘प्रताप’ का सर्कुलेशन 10-15 हजार था. यही नही ‘प्रताप’ की लोकप्रियता का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते है जब 19 जून 1916 को ‘प्रताप’ में ‘दासता’ नामक कविता छापने के आरोप में राजद्रोह का आरोप लगाया गया और अखबार पर एक हजार रूपए का जुर्माना लगा दिया गया. विद्यार्थी ने जुर्माना भरा लेकिन कलम की रफ्तार और धार तेज हो गयी.

 वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता 

अब बात पत्रकारिता के सिद्धांतों की- गणेश शंकर विद्यार्थी ने तथाकथित वस्तुपरकता के नाम पर लेखकीय तटस्थता की दुहाई कभी नहीं दी. उनकी वैचारिक राजनीतिक पक्षधरता स्पष्ट थी. साम्राज्यवादी अंग्रेजी हुकूमत ही नहीं बल्कि सामंती जमींदारों-राजाओं के अत्याचार के खिलाफ भी प्रताप मुखर रहता था. न केवल अपने निर्भीक लेखन के चलते बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन और किसान आंदोलन में भागीदारी के चलते भी विद्यार्थी को सत्ता के कोप और प्रताड़ना का सामना करना पड़ा. कई बार जेल जाना पड़ा, जुर्माना भरना पड़ा और प्रताप पर जब्ती और बंदी की तलवार लटकती ही रहती थी लेकिन वह अपने आदर्श से कभी विचलित न हुए. विद्यार्थी ने प्रताप के पहले अंक में ‘प्रताप’ की नीति’  शीर्षक प्रताप की व्यापक पत्रकारिता दृष्टि को रखा जो भारतीय पत्रकारिता का प्रतिमान बन गया.


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जब खोजी पत्रकारिता का हल्ला नहीं था. उस दौर में विद्यार्थी ने आम-आदमी की छोटी-छोटी समस्याओं, देशी रियासतों के अत्याचार अंग्रेजों के शोषण, दमन और लूट पर ढेरों जमीनी रिर्पोटिंग की. चंपारण के किसानों के शोषण पर रिपोर्टिंग कर एक पुस्तिका का प्रकाशन किया. जिसे अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया. 1921 रायबरेली में किसान हत्याकांड पर ‘डायरशाही, ओ डायरशाही’ के नाम से जमींदारो और अंग्रेजों की मिलीभगत में किसानों की हत्या का पर्दाफ़ाश किया तो उन्हें मानहानि केस में 3 महीना सजा काटनी पड़ी मगर वह रुके नहीं, थके नहीं, न ही अपने सिद्धान्तों और मूल्यों से समझौता किया.

प्रताप ने विज्ञापन को लेकर जो नीति बनायी थी वो पत्रकारिता का आदर्श हो गयी. उन्होंने उन विज्ञापनों को प्रकाशित करने से इनकार कर दिया, जिनसे समाज में कुरीति का, बुराइयों का, अनैतिकिता का प्रचार होता है. जिसके चलते उन्हें घाटा भी उठाना पड़ा मगर वह अडिग रहे. वह किसी राजा, किसी उद्योगपति और अंग्रेजों से विज्ञापन नहीं लेते थे. वह जनता का अखबार था, जनता के पैसों से चलता था. जनता की आवाज को उठाता था.

मगर अफसोस की बात है आज लगभग उनकी शहादत के 90 वर्षों बाद भी राष्ट्रीय आंदोलन, हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के इतिहास में उनके महत्वपूर्ण योगदानों की सम्यक विवेचना होना शेष है.

(लेखक सुधांशु बाजपेयी, दिल्ली विश्वविद्यालय के पीएचडी के छात्र है, वह गणेश शंकर पर रिसर्च कर रहे हैं. इस लेख में उनके निजी विचार हैं)

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