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गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ के जरिए कैसे प्रतिरोध की परंपरा स्थापित की

प्रताप की पत्रकारिता दृष्टि आदर्श थी. प्रताप ने पत्रकारिता का जो आदर्श गढ़ा वह सदियों तक पत्रकारिता को दिशा देता रहेगा.

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गणेश शंकर विद्यार्थी का चित्र । विकीमीडिया

भारत में हिंदी पत्रकारिता का जन्म प्रतिरोध की परंपरा स्वरूप हुआ. अखबार और पत्रिकाएं केवल समाचार और सूचना का माध्यम भर नहीं थे बल्कि वह राष्ट्रवाद और जन जागरण के संवाहक थे. पत्रकारिता एक मिशन थी, अपने देश-राष्ट्र को मुक्त कराने और समृद्ध बनाने की. देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम से 3 साल पहले ही 1854 में श्यामसुंदर सेन द्वारा प्रकाशित/संपादित हिंदी के पहले दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण ‘ से ही इसकी नींव रख दी गई थी.

मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने एक फरमान निकाला जिसमें देशवासियों से अपील की गई कि वह अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल दें. इस फरमान को ‘समाचार सुधावर्षण ‘ में ज्यों का त्यों छाप दिया गया. उत्तेजना रोकने के लिए लॉर्ड कैनिंग ने 13 जून 1857 को प्रेस एक्ट पारित किया और लेखन मुद्रण की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दिया. इस कानून के अंतर्गत 17 जून 1857 को ‘समाचार सुधावर्षण ‘ के संपादक श्यामसुंदर सेन पर पहला मुकदमा चला.

इसी परंपरा में दिन प्रतिदिन अलग-अलग समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने मोर्चा संभाला, प्रतिरोध की परंपरा को आगे बढ़ाया. लेकिन ‘प्रताप ‘ इस परंपरा का- 19वीं सदी का सबसे लोकप्रिय और प्रसार संख्या वाला अखबार बनकर उभरा. उस जमाने में प्रताप की प्रसार संख्या 9 हजार से 15 हजार के बीच थी.

प्रताप हिंदी का ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की सबसे मुखर आवाज बन गया. प्रताप ने न सिर्फ अंग्रेजों के बल्कि देश की सामंती ताकतों के खिलाफ भी बिगुल फूंक दिया. जिससे अंग्रेजों के साथ ही देशी सामंत रियासतदार भी उसके शत्रु बन गए लेकिन ‘प्रताप’ अपने उसूलों पर टिका रहा, न रुका और न झुका.


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‘प्रताप’ का सफर और इसकी परंपरा

गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने तीन साथी शिव नारायण मिश्र, नारायण प्रसाद अरोड़ा और यशोदानंदन के साथ मिलकर 9 नवंबर 1913 को उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में प्रताप की नींव डाली थी. जन्म काल से ही प्रताप  का दफ्तर क्रांतिकारियों की शरण स्थली था तो युवाओं के लिए पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र.

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विद्यार्थी ने महज पाठकों के लिए ही नहीं लिखा बल्कि नए लेखक, पत्रकार तैयार करने और पत्रकारिता को मिशन बनाने की दिशा में भी काम किया. प्रताप के माध्यम से जन जागरण का अभियान चलाया गया. जनांदोलनों को आगे बढ़ाने के पुरस्कार स्वरूप प्रताप के संपादकों-प्रकाशकों को बार-बार जेल तक जाना पड़ा.

विद्यार्थी ने प्रताप के पहले अंक में ‘प्रताप की नीति’ शीर्षक में जो लिखा वह भारतीय पत्रकारिता का प्रतिमान बन गया. उन्होंने लिखा, ‘आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने आदर्शों पर पूर्ण विश्वास रखकर प्रताप कर्म क्षेत्र में आता है. समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति कर एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति समझते हैं.’

इसी लेख में उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया, ‘हम न्याय में राजा का साथ देंगे परंतु अन्याय में दोनों में से किसी का नहीं. हमारे यहां हार्दिक अभिलाषा है कि देश की विभिन्न जातियों और संप्रदायों और वर्णों में परस्पर मेल मिलाप बढ़े.’

उन्होंने लिखा, ‘जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जाएं, जानबूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भी, वह दिन हमारा जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का अंत हो जाए.’

लेकिन ऐसा क्षण उनके जीवन में कभी नहीं आया, प्रताप अपने कर्तव्य पथ पर अटल रहा और उसी पथ पर चलते-चलते भगत सिंह की शहादत के तीसरे दिन कानपुर में दंगों को रोकते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने शहादत का वरण किया.

प्रताप ने पत्रकारिता की नई परंपराएं शुरू कीं. प्रताप ने अपना सालाना विशेषांक निकालने के साथ ही पुस्तिका प्रकाशन की अनोखी परंपरा डाली. एक पीड़ित की प्रार्थना नामक उसकी पहली पुस्तिका चंपारण में नील के खेतों के मालिकों के अत्याचारों का आंखों देखा हाल थी, जिसे जिला प्रशासन ने जब्त कर ली थी.

जब खोजी पत्रकारिता का हल्ला नहीं था तब प्रताप के माध्यम से गणेश शंकर विद्यार्थी ने आम आदमी की छोटी-छोटी समस्याओं और देशी रियासतों के पापाचार को उजागर किया था. शोषक वर्ग के विरुद्ध देश के आम आदमी के संघर्ष की रहनुमाई की. चंपारण के किसानों के दुःख दर्द की जमीनी रिपोर्टिंग की. उसके बाद रायबरेली हत्याकांड में किसानों पर जमींदार द्वारा गोलियां चलवाने की भी तथ्यपरक रिपोर्टिंग की.


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किसानों, मजदूरों के प्रति प्रतिबद्धता

12 अगस्त 1926 से 17 नवंबर 1926 जब शिकोहाबाद थानेदार की रिश्वतखोरी की खबर छापने पर उल्टे अखबार पर ही मानहानि केस कर दिया गया, तब मजिस्ट्रेट ने दोनों अभियुक्तों पर ₹400 जुर्माना और 6 महीने जेल की सजा सुनाई तो विद्यार्थी और सुरेंद्र ने जुर्माना न देकर जेल जाना चुना लेकिन पाठकों को उनका जेल जाना मंजूर नहीं था, ऐसी हालत में पाठकों ने जुर्माने की रकम अदा कर संपादक, प्रकाशक को 24 घंटे में ही जेल से छुड़ा लिया, जब निचली अदालत से न्याय न मिला तो जनता ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जहां से दोनों लोग निर्दोष सिद्ध हुए.

इसी तरह प्रताप की विज्ञापन नीति भी स्पष्ट थी, ‘प्रताप के संचालकों ने प्रताप निकालने के कुछ ही वर्षों बाद इस बात को महसूस किया कि प्रताप में हर तरह के विज्ञापन न छापे जाएं. हर तरह के विज्ञापन छापने से पैसे तो मिलते हैं परंतु उनसे कुरुचि का भी प्रचार होता है, लोगों की नैतिक तथा आर्थिक हानि होती है. इसलिए प्रताप में ऐसे विज्ञापनों को स्थान देना बंद कर दिया गया. जब प्रताप ने शुरू में इस नीति का अवलंबन किया तो उसके बहुत से विज्ञापनदाता उससे नाराज हो गए. बहुतों ने प्रताप में अपना विज्ञापन देना बंद कर दिया. कईयों ने अपने रुपए वापस मंगाए. परंतु प्रताप यह क्षति उठाकर भी अपने मार्ग से तनिक विचलित न हुआ.’

अखबारों में अलग से साहित्यिक पृष्ठ देने की परंपरा की शुरुआत प्रताप से ही हुयी. शिकायती पत्रों या संपादक के नाम पत्र का सिलसिला भी प्रताप से ही शुरू हुआ. प्रताप का साहित्यिक अवदान भी महत्वपूर्ण रहा.

प्रताप की नीति सर्वधर्म समभाव की नीति थी. प्रताप हिंदू-मुस्लिम सहित सभी कौमों की एकता के लिए काम करता था.

राष्ट्र की आशा नामक लेख में विद्यार्थी लिखते हैं, ‘हम किसी मजहब के विरोधी नहीं. हम इस बात में पूर्ण विश्वास करते हैं कि प्रत्येक उन्नत राष्ट्र में प्रत्येक पुरुष तथा स्त्री को मजहबी विचार रखने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए किंतु हमारे दुखित हृदय से यह आवाज उठे बिना नहीं रह सकती कि आज शताब्दियों से मजहबी झगड़े हमारे देश की अधोगति का मुख्य कारण है. देशभक्त हिंदू और देशभक्त मुसलमानों दोनों को अपने मजहब पर दृढ़ रहते हुए भी स्मरण रखना चाहिए कि मजहबी कर्मकांड और रस्मो रिवाज की रक्षा करने के स्थान पर देश तथा राष्ट्र की रक्षा करना अपनी तथा मनुष्य जाति की उन्नत के लिए कहीं अधिक आवश्यक है.’

इसी तरह प्रताप की किसानों, मजदूरों और उनके संघर्षों के लिए प्रतिबद्धता सर्वविदित थी. प्रताप किसानों, मजदूरों के संघर्षों और पीड़ाओं का मुखपत्र बन गया. प्रताप के सभी अंकों में किसानों की समस्याओं का उल्लेख अवश्य मिलता है. यही वह दौर था जब अंग्रेजों के संरक्षण में सामंत/जमींदार किसानों का शोषण और अत्याचार कर रहे थे. वहीं आजादी के आंदोलन से उपजी राजनीतिक चेतना के चलते किसान भी उनके खिलाफ गोलबंद हो रहे थे.

एक बार रायबरेली में एकजुट किसानों ने जमींदार के खिलाफ विद्रोह कर दिया. जमींदार ने किसानों पर गोली चलवा दी, इसमें कई किसान मारे गए और बहुत से जख्मी हुए. किसानों की गिरफ्तारियां होने लगीं. सरकार और जमींदारों के दमन के इस प्रवाह में विद्यार्थी ने भी मोर्चा संभाल लिया. उन्होंने किसानों पर हुए अत्याचार को दूसरा जलियांवाला हत्याकांड ठहराया.

दैनिक प्रताप के 13 जनवरी 1921 के अंक में उन्होंने ‘डायर शाही ओ डायरशाही ‘ नामक लेख लिखा. किसानों का साथ देने से जहां प्रताप  पर सरकार की कुदृष्टि पड़ी वहीं स्थानीय जमींदार भी उससे खफा हो गए. अखबार में प्रकाशित सामग्री को अपने लिए अपमानजनक मानकर जमींदार वीरपाल सिंह ने प्रताप के संपादक पर मानहानि का मुकदमा कर दिया. इस मुकदमे ने बड़ा राजनैतिक रूप धारण कर लिया. बचाव पक्ष में 50 गवाह प्रस्तुत हुए. जिसमें पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, श्रीकृष्ण मेहता और डॉ. अवंतिका प्रसाद जैसे राष्ट्रीय नेता भी शामिल थे. सेशन अदालत तक मामला गया लेकिन फैसला प्रताप के विरुद्ध रहा. संपादक गणेश शंकर और प्रकाशक नारायण मिश्र को तीन-तीन माह की कैद तथा ₹500-500 जुर्माने का दंड मिला.


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सामंतों के खिलाफ खोला मोर्चा

जनहित को ही प्रस्थान बिंदु मानने के चलते प्रताप ने अंग्रेजों की तरह जनता पर अत्याचार करने वाले देशी राजाओं-सामंतों के खिलाफ मोर्चा खोले रखा. ग्वालियर, इंदौर, उदयपुर, मेवाड़, जोधपुर सहित सभी राज्य प्रताप की आलोचना का विषय बने. आलोचनाओं से घबराकर इन नरेशों ने अपने राज्य में प्रताप का आना बंद कर दिया. प्रताप ने देशी राज्यों में जनता पर अत्याचारों का विरोध अवश्य किया किंतु जब उन राज्यों पर अंग्रेजी सरकार ने अत्याचार किए तो उसने उसका भी विरोध किया.

एक बार राजपूताना से एक पत्र आया. लेखक ने वहां की कुछ रियासतों का बड़ा ही दर्दनाक चित्र खींचा था और गणेश से अनुरोध किया कि वह इस आंदोलन को अपने हाथ में ले लें. लेखक ने अपना नाम और पता नहीं दिया था, न ही वह अपना नाम बताने को तैयार थे लेकिन लेखक ने अपने पत्र में गणेश को विश्वास दिलाया कि उनकी लिखी बातें सच हैं. बस इसी विश्वास पर पथिक नाम से उनके पत्र प्रताप में छपने लगे. पथिक  खुद विजय सिंह कहकर प्रकट हुए तब विद्यार्थी ने उनका पूरा नाम जाना. देशी रियासतों के खिलाफ इस आंदोलन में प्रताप को जबकि भारी क्षति उठानी पड़ी लेकिन प्रताप हमेशा की ही तरह अडिग रहा.

इस तरह हम कह सकते हैं कि प्रताप की पत्रकारिता दृष्टि आदर्श थी. प्रताप ने पत्रकारिता का जो आदर्श गढ़ा वह सदियों तक पत्रकारिता को दिशा देता रहेगा. जीवन में जिस तरह मानवीय मूल्यों की सार्थकता हर काल और स्थान में बनी रहती है, वैसी ही तकनीक बदलने के बावजूद प्रताप द्वारा रचे गए पत्रकारिता के मूल्य चिरस्थायी और सार्थक हैं. भले ही उन मूल्यों को जीने, लागू करने का जोखिम सब में न हो लेकिन उनको मानने वाले कुछ दुर्लभ लोग हमेशा बने रहेंगे.

(सुधांशु वाजपेयी, दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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