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राहुल गांधी ने खुद को ‘बलिदानी परिवार’ का वारिस बताया, जुनूनी कांग्रेस-द्वेषियों को आड़े हाथों लिया

भारी गैर-बराबरी और सांप्रदायिक तनाव की क्रूर सच्चाइयों के मद्देनजर भ्रष्टाचार और खानदानशाही के दो फर्जी अफसाने अब और चस्पां नहीं हो सकते. अब तो मुकाबले का मैदान तैयार है.

राहुल गांधी/ फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

यह स्तंभ कांग्रेस पार्टी के बारे में है तो मैं सबसे पहले चेता दूं कि यह इस बारे में नहीं है कि उसे क्या रोग लगा है, न ही पार्टी या उसके नेताओं के खिलाफ आम शिकायतों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त के बारे में है. अगर आप वही उम्मीद कर रहे हैं तो अगले पांच मिनट बस धीरज रखिए और इसे पढना शुरू कीजिए. इसके बदले कांग्रेस पार्टी ने लड़ाकू तेवरों और छवियों के साथ साझा गोलबंदी का हफ्ते भर अच्छा प्रदर्शन किया हैं, जिससे संकेत मिलता है कि वह लड़ाई के लिए कमर कस रही है. क्या यह नई कांग्रेस आकार ले रही है? मैं किसी अटकल का अंदाजा लगाऊं, उसके पहले मैं दो मुख्य भडक़ाऊ बातें आपके सामने रख रही हूं कि कितने भारतीय कांग्रेस से नफरत करते हैं और कई बार जुनून की हद तक.

मेरे दिमाग में खासकर कांग्रेस पार्टी से नफरत करने वाले वे मुखर लोग हैं, जो पढ़े-लिखे, अंग्रेजी बोलने वाले शहरी या महानगरों के एलिट की पुरानी मगर लगातार बढ़ती बिरादरी है. वे पूरी तरह हिंदुत्व के भक्त हो सकते हैं या नहीं भी हो सकते हैं. उनमें कुछ पर अब अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) का जादू चढ़ा हुआ है.

कभी दबदबे वाली पार्टी होने के नाते कांग्रेस के आलोचक और विरोधी हमेशा रहे हैं, लेकिन उठते-बैठते ‘कांग्रेस से नफरत करने’ की यह फितरत दशक-भर पुरानी ही है. इसी दौरान मैंने कांग्रेस पार्टी को पहली बार गंभीरता से देखनी शुरू किया. मेरी दिलचस्पी उनके पुराने और नए दोनों राजनैतिक विचारों, वादों और दिक्कतों में बनी हुई है. फिलहाल भारत और दुनिया भर में जारी विचारधारात्मक लड़ाई पर बहुत कुछ कहा जा सकता है. हालांकि मैं आज राजनीति की मनोदशा और उन भावनाओं पर गौर करना चाहती हूं, जिसे वे हवा दे रहे हैं.

क्रोध काल

लेखक पंकज मिश्रा अपनी मार्के की किताब एज ऑफ एंगर: ए हिस्ट्री ऑफ द प्रेजेंट में राजनैतिक भावनाओं की ताकत की बात करते हैं. क्रोध काल में सबसे प्रमुख भावना द्वेष है. इस भावना को समझने के लिए आपको नित्शे को याद करने की जरूरत नहीं है, जिन्होंने पहली बार इस बारे में लिखा था. यह जहर है, भले शक्तिशाली हो, आप उसे पाने या कुछ होने की ख्वाहिश रखना और उसे छोडऩा दोनों एक साथ चाहते हैं. राजनैतिक और सामाजिक तौर पर यह एक उभरते आभिजात्य वर्ग से जुड़ा घटनाक्रम है. अक्सर इसे पुराने, झूठे, खत्म होती और नए, युवा, साहसी तथा वास्तविकता से घबराने वाली व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की तरह देखा जाता है. या इसे आधुनिकता बनाम स्थानीयता, या महानगरीय बनाम प्रांतीय वगैरह-वगैरह कहा जाता है.

पिछले दस साल से भारत की यही कहानी है. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और कांग्रेस की टकराहट को शुरू में पुराने और नए के बीच संघर्ष की तरह पेश किया गया. 2014 के पहले के वर्षों में इसे प्रमुख रूप से हिंदुत्व और उदार-समाजवाद के बीच संघर्ष के रूप में नहीं पेश किया गया. द्वेष एक-दूसरे के खिलाफ भावनात्मक नारों के उबाल से राजनैतिक विचारों के संघर्षों को पीछे धकेल देती है.

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सो, आश्चर्य नहीं कि भ्रष्टाचार तथाकथित नए दौर का प्रमुख नारा बना, क्योंकि उसमें पुराने दौर की सड़ांध और आधुनिक वित्तीय घोटालों दोनों की बू आती है. जैसी कि व्यापक मान्यता है, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज शास्त्रीय अराजनैतिक मकसद है, क्योंकि पार्टी तो छोडि़ए, कोई व्यक्ति भी उसके पक्ष में दलील नहीं देगा. आखिर में यह कोई मायने नहीं रखता कि उस अभियान का केंद्रीय तत्व या बदनाम 2जी ‘घोटाले’ की आंकड़े सही भी थे या नहीं. यह उतना ही असली था, जितना उन्होंने सोचा. भ्रष्टाचार क्षोभ और विरोध दोनों के नाराज भाव पैदा करता है, और उससे लोगों के दिमाग में फौरन कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के खिलाफ द्वेष पैदा हो गई.

मैं यह नहीं कह रही हूं कि कोई वित्तीय अनियमितता नहीं हुई थी. अलबत्ता, भ्रष्टाचार के आरोप से हिंदुत्व ने लोकप्रियता का मुखौटा ओढ़ लिया. इससे कांग्रेस तो शर्तिया अपने राजकाज, खासकर अर्थव्यवस्था, सांप्रदायिक एकता, या बुनियादी अधिकारों के मामले में कोई दावा नहीं कर सकी, जिसमें उसने बढ़ोतरी की थी.

द्वेष को हवा देकर भ्रष्टाचार के मुद्दे ने नवगठित आप को खासकर तब बेहद शक्तिशाली और पूरी तरह समर्थक मीडिया के बिना शर्त प्यार से बड़े आराम से जमीन मुहैया करा दी. (हालांकि मैंने 2013 में पहला ऑप-एड खुलकर आलोचना में लिखा था, जो तब कुछेक आलोचनाओं में ही था).


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खानदानशाही या दूसरों पर डालने का दौर

‘कांग्रेस से नफरत’ सिंड्रोम में पार्टी नेतृत्व पर लगभग जुनूनी फोकस इसलिए है क्योंकि उससे एक बड़ी दुखती रग पर मरहम लगता है. खानदानशाही का ढोल पीटने से अपराध-बोध से छुटकारे या दूसरों पर डालने में मदद मिलती है. यह खासकर ‘मध्यम वर्गों’ के लिए एकदम सही है, जिसमें भारत में मोटे तौर पर निम्न वेतन वालों से लेकर मध्यम और उच्च आय वर्ग और निहायत बुरे धनी-मानी तक आते हैं. ऐतिहासिक तौर पर किसी भी तरह की जमीन या आमदनी के बंटवारे और सकारात्मक कार्रवाई या आरक्षण के विरुद्ध मोटे तौर पर ‘ऊंची’ जातियों का यह तबका इस सुविधाजनक तरीके से अपनी जिम्मेदारी से खुलकर मुक्त हो पाया. कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी के खिलाफ लगभग रोजाना आक्रामक तंज और टिप्पणियों में यह खुलकर दिखता है.

भारतीय सामाजिक संरचना, जाति तो छोडि़ए, परिवार से बंधी है. दूर जाने की जरूरत नहीं, अपने पड़ोस के किराने की दुकान, या किसी वकील या डेनटिस्ट के चैंबर, छोटा-मोटा या महंगा, झांक आइए, या फिल्म, मीडिया, अकादमिक जगत, किसी भी पेशे या कारोबार का नाम लीजिए, हर जगह परिवार ही काबिज है. असहमति की सख्त रेखाओं में विरासत और प्रतिष्ठा, पैसे तथा सामाजिक नेटवर्क का प्रवाह प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर दिखता है. परिवारों के इस ढांचे में सामाजिक सक्रियताएं साथ लेने और दूर हटाने की प्रक्रिया होती हैं और सामाजिक मेलजोल भीतरी और बाहरी के सख्त नियमों से तय होती है. लेकिन राहुल गांधी को चुनकर उन पर दनादन वार करने से आपको अपराध में अपनी मिलीभगत को भूलने में मदद मिलती है, भले प्रायश्चित का भाव न आए. और उसी के साथ आपको अपनी ‘मेरिट’ और स्पर्धा को जाहिर करने में मदद मिलती है.

दूसरे पर डालने की इस फितरत का शायद मीडिया सबसे ज्यादा दोषी है. सीधे कहें तो मुख्यधारा के साथ-साथ लगभग पूरा क्षेत्रीय मीडिया अब राहुल गांधी के खिलाफ उसी पुराने थके-मांदे मुहावरों के सहारे आक्रामक ढंग से मोर्चा खोले हुए है, खासकर इसलिए क्योंकि उसे अपनी आलोचना की ताकत को कहीं तो लगाना ही है. सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान की शह से भारतीय मीडिया इस तरह सिर्फ इसलिए आग उगलता है क्योंकि वह कांग्रेस के लिए जो कह सकता है, वह किसी और के लिए नहीं कह सकता. हिंदुत्व ने लोकप्रियतावाद का मुखौटा ओढ़ लिया तो खानदानशाही का ढोल पीटने से सत्ता के असली काम छुप जाते हैं. कांग्रेस राजनैतिक पार्टी है, कोई सोशल मीडिया पर असर डालने वाला संगठन नहीं, इसलिए वह इस मंत्र से काम नहीं चला सकती कि ‘भौंकने वालों को भौंकने दो’ या चुपचाप रहकर आगे बढ़ते नहीं रह सकती!

पिछले हफ्ते कांग्रेस पार्टी के सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन से लगता है कि वह चुपचाप अपना काम करने की पुरानी आदर्श सीख पर चलने की कोशिश नहीं कर रही है. अब उसकी नई राजनैतिक सक्रियता में तीखी शब्दावली और रणनीतिक कार्रवाई है. यकीनन, यह आप की आंदोलनवादी हरकतों जैसी नहीं है. पहचान के जुनूनी तेवरों के बरक्स अर्थव्यवस्था की कड़वी सच्चाई को खड़ा करके राहुल गांधी नई राजनैतिक पहचान बनाना चाहते हैं. नफरत की विभाजनकारी राजनीति, चाहे वह ताकतवर ही क्यों न हो, के खिलाफ बेखौफ खड़े होकर और कड़वी अर्थव्यवस्था में कमजोर और वंचितों की आवाज उठाकर, लगता है, कांगे्रस अपने बुनियादी सिद्धांतों की ओर लौट रही है. पार्टी को अब अपने बुनियादी राजनैतिक सिद्धांतों और मूल्यों को लोगों से जुडऩे की नई भावनाओं की ताकत से जोडऩे की जरूरत होगी.

भ्रष्टाचार और खानदानशाही के दो फर्जी अफसाने, जो उसे बयां करने वालों की पूरी तरह अपनी कहानी ही कहती हैं, अब बेहिसाब गैर-बराबरी और सांप्रदायिक तनाव की कड़वी सच्चाइयों को ढंक नहीं सकते. पिछली शताब्दी की बी-ग्रेड हिंदी फिल्मों जैसी समुदायिक नफरत के हिंसक प्रदर्शन अब नई वैश्विक अर्थव्यवस्था में भूख के खेल की बराबरी नहीं कर सकते. अपनी विरासत या खानदानशाही को बलिदानी परिवार की तरह अपनाकर राहुल गांधी ने हमारे मौजूदा समय का सही विचारधारात्मक मोर्चा खोल दिया है. दो-दो हाथ की तैयारी हो चुकी है! आखिरकार अपराध-बोध की नाटकीयता और द्वेष को राजनीति में बहुप्रतिक्षित जोड़ मिल गया है.

श्रुति कपिला यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में आधुनिक भारतीय इतिहास और वैश्विक राजनीति पढ़ाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @shrutikapila. विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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