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गलवान संघर्ष एक निर्णायक मोड़ है जब भारतीय सैनिकों ने चीनियों के छक्के छुड़ा दिए

भारतीय लोकतंत्र की अराजक प्रकृति ने 19 जून की सर्वदलीय बैठक में दिए गए भ्रामक संदेशों के बवंडर से प्रधानमंत्री मोदी को बचा लिया, लेकिन गलवान संघर्ष के दो संदेश दुनिया तक पहुंच चुके हैं.

द्रास में जोजिला दर्रे की ओर बढ़ता हुआ सेना का काफिला | एएनआई

ठीक एक सप्ताह बीते हैं जब पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी की सर्द ऊंचाइयों पर चीनी सेना (पीएलए) के साथ लड़ते हुए 16 बिहार रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल संतोष बाबू समेत 20 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए थे.

लेकिन इस एक सप्ताह की अवधि में भारतीय सैनिकों की शोकमय अंत्येष्टियों, जिनमें सैनिक और राजनीतिक प्रतिनिधियों दोनों की ही उपस्थिति रही, के विपरीत किसी चीनी मीडिया प्रकाशन ने ना तो उस झड़प में चीनी हताहतों की संख्या और मृतकों की अंत्येष्टियों की चर्चा की और ना ही इस बात का कोई ब्योरा दिया कि 15 जून की रात आखिर हुआ क्या था.

सवाल ये है कि क्या शी जिनपिंग की सरकार अपने लोगों को सच्चाई बताने से घबरा रही है कि पीएलए के सैनिक क्यों और कैसे मारे गए.


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दूसरी ओर भारत में लोकतंत्र की अराजक प्रकृति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 19 जून की सर्वदलीय बैठक से निकले जानबूझकर भ्रमित करने वाले संदेशों पर मचे बवाल को थाम लिया. मोदी ने कहा था कि कोई भी भारतीय क्षेत्र में नहीं आया, ना ही किसी सीमा चौकी पर कब्जा किया गया.

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सामान्य संघर्ष नहीं

15 जून की झड़प के तीन अनाम विवरणों– यहां, यहां और यहां – में न केवल भयावह विस्तार के साथ ये बताया गया है कि अपने कमांडिंग ऑफिसर पर हुए हमले के बाद चीनी सैनिकों से खाली हाथ ही भिड़ पड़े भारतीय सैनिकों ने कितनी बहादुरी दिखाई, बल्कि उनमें इस बात का भी उल्लेख है कि शत्रुओं को कभी नहीं भुलाया जा सकने वाला सबक सिखाने के लिए वे चीनियों का पीछा करते हुए दो बार एलएसी लांघकर शत्रु सीमा में घुसे.

दूसरे शब्दों में, एक भी गोली दागे बिना भारतीय सैनिकों ने चीन नियंत्रित इलाके में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को अंजाम दिया. वे अपनी गरिमा की अपने कमांडिंग ऑफिसर की प्रतिष्ठा की और अपने 16 बिहार रेजिमेंट के गौरव की रक्षा कर रहे थे. भारत माता की सुरक्षा का देशभक्ति वाला भाव शायद उसके बाद आया होगा.

दुनिया तक इस खूनी और क्रूर संघर्ष के दो संदेश पहुंचे हैं.

पहला संदेश ये कि शोषित लोगों के सहारे पली-बढ़ी एक गैर-पश्चिमी ताकत, जिसे करोड़ों लोगों को दरिद्रता के गर्त से बाहर निकालने के कारण सम्मान मिला है, ने अपने समान ही प्राचीन सभ्यता से जन्मे एक साथी गैर-पश्चिमी राष्ट्र पर धौंस जमाने की कोशिश की है, वो भी महज कुछ वर्ग किलोमीटर के एक विवादित भूखंड के लिए.

अफीम युद्ध को उद्धृत करने और ब्रिटेन जैसी पूर्व औपनिवेशिक ताकतों के साथ किए गए समझौतों, जैसे हांगकांग से जुड़े समझौते, को अवमाननापूर्ण सहजता के साथ दरकिनार करने वाला राष्ट्र चीन अपने साथी एशियाई महाशक्ति के प्रति थोड़ी सी भी संवेदनशीलता नहीं दिखाता है. ये स्पष्ट है कि उसके वैश्विक दृष्टिकोण में दोनों पक्षों की जीत की जगह नहीं है. इसीलिए 1962 में अक्साई चिन हड़पने तथा साथ ही भारत और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अपमानित करने से पहले उसने एक बार भी नहीं सोचा.

अक्साई चिन को खोना

अक्साई चिन मुस्लिम बहुत शिनजियांग और बौद्ध बहुत तिब्बत पर नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण था. आगे चलकर अक्साई चिन होकर एक मार्ग बनाया गया जो दोनों ही प्रांतों को जोड़ता है और भारत इस पर दशकों तक चुप्पी साधे रहा.

पिछले साल जम्मू कश्मीर के भारतीय संघ में पूर्ण एकीकरण के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर चीनियों को ये बताने के लिए बीजिंग गए थे कि भारतीय मानचित्र का पुनर्गठन मात्र घरेलू उद्देश्यों के लिए किया गया है– मतलब, भारत अक्साई चिन पर चीनी नियंत्रण को चुनौती नहीं देने जा रहा.

सच तो ये है कि नेहरू के बाद के सभी प्रधानमंत्री जानते थे कि भारत अक्साई चिन कभी वापस नहीं ले पाएगा. अब तक प्रधानमंत्री मोदी भी इस बात को जान चुके हैं– शायद उन्हें लगा, नेहरू की ही तरह कि दोनों एशियाई ताकतें दुनिया के समक्ष अपनी समानताओं को प्रदर्शित करेंगी, न कि मतभेदों को.


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केवल मनमोहन सिंह समझ पाए कि कोई दूसरा रास्ता निकालना होगा – सिर्फ वही एक प्रधानमंत्री थे जो ड्रैगन की मांद में हाथ डालने के लिए तैयार था. इसलिए 2005 में जब सीमा विवाद के निपटारे के लिए दिल्ली और बीजिंग ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए तो उसके ‘मार्गदर्शक सिद्धांत’ में अनिवार्यत: प्रतिदान की बात थी– चीन पश्चिमी सेक्टर, यानि अक्साई चिन, पर अपना नियंत्रण रखेगा और भारत का पूर्वी सेक्टर, यानि तवांग समेत अरुणाचल प्रदेश, पर नियंत्रण रहेगा.

लेकिन फिर चीन निरंतर अधिक मज़बूत और शक्तिशाली बनता गया और उसने इस समझौते का ज़िक्र करना बंद कर दिया और अनिवार्यत: इससे हट गया.

चीन को चिंतित करने वाली मित्रता

तो आखिर चीन उस समझौते पर सहमत ही क्यों हुआ था? क्योंकि मनमोहन सिंह ने अमेरिका से घनिष्ठता– अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा आरंभ प्रक्रिया- बढ़ाने का फैसला किया था और चीन समझ गया कि साथ मिलकर भारत और अमेरिका उसकी बढ़ती ताकत के लिए असल चुनौती हैं.

चीन जब समझौते से हटा, तब तक शीर्ष की तरफ बढ़ते शक्तिशाली राष्ट्र की उसकी छवि– जब अमेरिका का प्रभाव घटने लगा था और भी पक्की हो चुकी थी, जहां तक भारत की बात है, तो वह तटस्थ रहकर राष्ट्रों के पदानुक्रम में चीन के नीचे एक छोटी ताकत नहीं कहलाना चाहेगा.

चीन का बार-बार एलएसी का अतिक्रमण करना तथा भारत के साथ सीमा विवाद के समाधान से बारंबार इनकार करना, उसके अहंकार की एक और अभिव्यक्ति है, भारत को उसकी औकात बताई जानी चाहिए. उसे आगाह कर दिया जाना चाहिए कि अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाने के लिए वह अमेरिकी सहयोग के भरोसे नहीं रह सकता है.

गलवान संघर्ष का अनपेक्षित परिणाम

गलवान संघर्ष का दूसरा संदेश वास्तव में एक परिणाम है. डरने के विपरीत भारतीय सैनिकों में अब अपना हक़ जताने को लेकर अधिक आत्मविश्वास है. उन्होंने दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्र को सबक सिखा दिया है, परमाणु हथियारों या बंदूकों से नहीं, बल्कि विशुद्ध पराक्रम से.

ये कारगिल 2.0 नहीं, बल्कि उसका 21वीं सदी का संस्करण है और पाकिस्तान की जगह सामने चीन है.

गौरतलब ये है कि 15 जून के संघर्ष का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को ही जाएगा. भारत इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं करता कि उनकी सर्वदलीय बैठक के प्रेस बयान भ्रामक थे या नहीं– सीधी सी बात ये है कि भारतीय सैनिकों ने चीनियों के छक्के छुड़ा दिए और ये मोदी के कार्यकाल में हुआ.

इसका मतलब ये भी है कि मोदी अब उन राष्ट्रों का रुख करेंगे जोकि चीन के खिलाफ भारत की रक्षा में मददगार साबित हो सकते हैं- और आज इस तरह के ज़ोर वाला एक ही देश है, अमेरिका.

इसीलिए गलवान संघर्ष एक निर्णायक मोड़ है. उस रात को ही भारत को आखिरकार अहसास हुआ कि उसे नए मित्रों की ज़रूरत है.

(व्यक्त विचार लेखिका के निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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