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1962 की चीन से लड़ाई में अटल ने नेहरू को घेरा था तो लद्दाख मामले में विपक्ष क्यों ना करे मोदी से सवाल

स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी आज हमारे बीच होते तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार, पार्टी और समर्थकों के इस रवैये को लेकर क्या सोचते? इस पर भी सोचिये जरा.

अटल बिहारी वाजपेयी, जवाहरलाल नेहरू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी | फाइल तस्वीरें

देश के दुर्भाग्य से जहां एक ओर कोरोनावायरस की जाई समस्याओं के साथ अर्थव्यवस्था की हालत व सीमाओं की सुरक्षा से जुड़ी दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं, असुविधाजनक सवालों का सामना करने की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार, पार्टी और समर्थकों की अक्षमता भी कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है.

इसलिए जब भी जटिल सवालों से भिड़ंत होती है, वे उन्हें हल करने में समय और श्रम ‘जाया’ नहीं करते, दबाने की कोशिशों में खीझने व झुंझलाने लग जाते हैं. सवाल उठाने वालों से बेवजह की दुश्मनी ठानने, उन्हें आंखें दिखाने और देशद्रोही वगैरह ठहराने का उनका शगल तो खैर अब पुराना पड़ गया है.

अफसोस की बात है कि पूर्वी लद्दाख स्थित गलवान घाटी में चीनी सेना से भिड़ंत में देश के 20 जवानों की शहादत के बाद के चुनौतीपूर्ण हालात को भी वे अपने इस शगल का अपवाद नहीं बनने दे रहे.

सोचिये जरा, जब इस चुनौती के सामने सारे देश के एकजुट और मजबूत होकर खड़े होने की सख्त जरूरत है, उससे जुड़े सारे सवालों की अनसुनी करती आ रही नरेन्द्र मोदी सरकार को विपक्ष को विश्वास में लेने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाने का खयाल भी बहुत देर से आया, जबकि उसे मालूम था कि घरेलू राजनीति को दरकिनार करते हुए यह बैठक कुछ दिनों पहले बुला लेना बेहतर होता. खासकर जब चीन सीमा पर तनाव की उम्र डेढ़ महीने हो गई है.


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इसका फायदा यह होता कि वह उससे पार पाने के सर्वसम्मत फैसले से लैस होती और उसके सामने ‘क्या करें और क्या ना करें’ का वह असमंजस ना होता, जिससे दो चार होती दिख रही है.

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इस देश को जिस तरह हर संकट की घड़ी में एकजुट रहने का अभ्यास है, उसके मद्देनजर यह मानने के कारण हैं कि विश्वास में लिये जाने पर विपक्ष उसको फ्री हैंड देने और आलोचनाओं से निर्भय करने में कोताही नहीं ही करता लेकिन इस सरकार की मुश्किल यह है कि वह अब तक यही जताती रही है कि उसे चीन से ज्यादा तकलीफ विपक्ष से है, जो ‘अनावश्यक’ तौर पर उससे सवाल पर सवाल पूछे जा रहा है.

उसके समर्थक तो विपक्ष पर यह तोहमत भी मढ़ते रहे हैं कि उसके सवाल सरकार और सेना का आत्मविश्वास व मनोबल कमजोर कर रहे हैं. यह और बात है कि अब उनमें से कई सरकार का बचाव करने के लिए खुद सेना की कार्रवाई पर सवाल उठा रहे हैं और उसके मनोबल पर विपरीत असर की कतई चिंता नहीं कर रहे.

वैसे ही जैसे सवालिया विपक्ष पर हजार-हजार लानतें भेजने के फेर में यह याद नहीं रख रहे कि 1962 में चीन से युद्ध के वक्त विपक्षी सांसद के तौर पर भाजपा के पूर्वावतार जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी तक ने यह नहीं माना था कि संकट काल में सरकार और सेना पर सवाल उठाना देशद्रोह होता है, इसलिए नेहरू सरकार को सवालों के सामने लाने के बजाय बख्श देना चाहिए.

अटल ने पूछे थे नेहरू से सवाल

तब अटल द्वारा सरकार की तीखी आलोचना के बावजूद प्रधानमंत्री नेहरू या उनकी कैबिनेट के किसी मंत्री ने उनको देशद्रोही नहीं ठहराया था. ना ही संकट की दुहाई देकर लोकतंत्र को स्थगित करने की कोई कवायद की थी. उलटे उनकी मांग पर राज्यसभा की बैठक भी बुलायी गयी थी और उसमें व्यापक बहस-मुबाहिसा हुआ था.

प्रसंगवश, चीन से वह युद्ध 20 अक्टूबर, 1962 से 21 नवंबर, 1962 तक यानी एक महीना एक दिन चला था. हालांकि पहली झड़प इससे पहले 5 सितंबर को ही हो गयी थी, जो अटल के अनुसार चीन के इरादों का पता देने के लिए पर्याप्त थी.

उन्होंने इस बीच नेहरू सरकार द्वारा प्रतिरक्षा की कोई तैयारी ना करने को राज्यसभा में अपने भाषण का बड़ा मुद्दा बनाया था. एक ओर सीमा पर युद्ध जारी था और दूसरी ओर वे नेहरू सरकार को घेर रहे थे.

उन्होंने पूछा था: क्या पं. नेहरू को पता था कि सेना अरुणाचल नेफा (अब अरुणाचल) में चीनी हमले का सामना करने के लिए कितनी तैयार है? चीन ने 5 सितंबर और 20 अक्टूबर को हमला किया. भारत ने बीच के इतने दिनों में तैयारी क्यों नहीं की?

नेफा में सरहद की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सैनिकों को क्यों नहीं लगाया गया और जो थे, वे जरूरी हथियारों और अन्य चीजों से लैस क्यों नहीं थे? विदेश से लौटने के बाद प. नेहरू ने चीन से बढ़ते तनाव को लेकर सरकार के फैसलों के बारे में सबको जानकारी क्यों नहीं दी..?

उनके सवालों के परिप्रक्ष्य में देखें तो आज के हालात में जब चीन से पहला टकराव 5 मई को हुआ और 20 सैनिकों की शहादत 16 जून को, मोदी सरकार को नेहरू सरकार जैसे सवालों के सामने क्यों नहीं खड़ा किया जाना चाहिए? लोकतंत्र का तो अर्थ ही है जवाबदेही.

लेकिन मोदी समर्थकों का मोह है कि उन्हें अटल की याद से ही नहीं लोकतंत्र के उस बुनियादी स्वरूप की समझ से भी महरूम कर दे रहा है, जो किसी को भी सवालों से परे नहीं मानता.

तभी तो वे किसी पत्रकार द्वारा यह याद दिलाने भर से भी चिढ़ जाते हैं कि नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो एक अवसर पर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह से पूछा था कि वे चीन को लाल आंख कब दिखायेंगे?

वे किसी पत्रकार का यह पूछना भी गवारा नहीं करते कि अब तो मनमोहन सिंह की जगह वे खुद प्रधानमंत्री हैं, फिर चीन को लाल आंख क्यों नहीं दिखाते, क्यों उलटे चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग को कभी साबरमती में झूला झुलाते हैं तो कभी चेन्नई के महाबलीपुरम में सैर-सपाटा कराते हैं और क्यों नहीं बताते कि इसके बावजूद चीन से हमारे संबंधों का हाल इतना बुरा है तो उनकी खुद की कई बार की चीन यात्राओं का हासिल क्या है? चीन तो ना भारत की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का समर्थन करता है, ना न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता का.

संसद, पठानकोट और पुलवामा हमलों के ‘मास्टरमाइंड’ मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकी घोषित करने में भी उसने जहां तक संभव हुआ अड़ंगा ही लगाया.


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शायद इसीलिए अब ज्यादातर पत्रकार उनकी आंख की किरकिरी बनने से परहेज करते हैं. फिर भी कोई ना माने और असुविधा का कारण बन जाये तो कभी उसे संभल जाने को कहकर धमकाया जाता है और कभी उसके खिलाफ अलानाहक एफआईआर दर्ज करा दी जाती है. ट्विटर वीर यह कहने तक चले जाते हैं कि सरकार को चीन को लाल आंख दिखाने से पहले देश में बैठे इन देशद्रोहियों का ही सफाया करना चाहिए.

पिछले दिनों उनमें से एक ने तो एक पत्रकार से यह भी ‘पूछ’ लिया कि वह नमक भारत का खाता है या चीन से लाता है? इतना ही नहीं, एक न्यूज चैनल के एंकर ने भाजपा के एक प्रवक्ता से ऐसा सवाल पूछ लिया, जिसका प्रवक्ता के पास जवाब नहीं था, तो उसने एंकर को चीन का चीयरलीडर ही बता डाला.

स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी आज हमारे बीच होते तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार, पार्टी और समर्थकों के इस रवैये को लेकर क्या सोचते? इस पर भी सोचिये जरा.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

1 टिप्पणी

  1. Both situations are totally different, In 1962 India lost everything, the country’s image, the morale of armed forces & masses, and about 38000 sq.km.ofAksaichin area, a blot on Nehru’s international image and ultimately Nehru had to beg with folded hands in front of USA. if opposition parties have any complaint against Modi on intrusion by China, they have enough time and technology. No one can hide anything in India, it is only possible in China.

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