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पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति कराह रही- कहती है मैं तकलीफ में हूं. भारत के लिए इसके क्या मायने हैं

पाकिस्तान का नया नीति दस्तावेज़ यही उजागर करता है कि तीन दशकों में पहली बार वह अपने गिरेबान में झांक रहा है, उसे अपनी हैसियत में गिरावट और अमेरिका से दोस्ती टूटने का एहसास हो रहा है.

सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

पाकिस्तानी सत्तातंत्र द्वारा जारी किसी गंभीर-से-गंभीर नीतिगत बयान को भी बकवास या पुरानी बोतल में पुरानी शराब (ओह! लस्सी) कहकर खारिज कर देना कितना सुविधाजनक, सुरक्षित और फायदेमंद लगता है! भारत में यह रवैया लंबे समय से चल रहा है, और पाकिस्तान इसका पूरा और रूखा जवाब देता रहा है. पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा डिवीजन ने शुक्रवार को जो ताजा राष्ट्रीय सुरक्षा नीति दस्तावेज़ जारी किया है उस पर हम इस पुराने रवैये को अपनाने के लालच से बचते हुए नज़र डाल रहे हैं.

इस दस्तावेज़ को गंभीरता से पढ़ने की तीन वजहें हैं. एक तो यह कि यह संक्षिप्त है, मोटे अक्षरों में सिर्फ 48 पेज का. इसमें और भी कुछ है, जो गोपनीय है. इसलिए उनका शुक्रिया! दूसरी वजह यह है कि इसमें ज़्यादातर अपनी खूबियों को अनगढ़ तरीके से प्रस्तुत करने की पुरानी कोशिश की गई है. और तीसरी यह कि इन सबके बावजूद इसमें ऐसे कुछ अंश भी हैं जो भारत को अपने काम के लग सकते हैं और उन पर मनन करना, बहस करना उसे उपयोगी लग सकता है, बशर्ते यह बहस वैसी न हो जैसी हमारे योद्धा चैनलों पर होती है जिनका भाव यह होता है कि उस ‘दुष्ट सत्तातंत्र’ के दस्तावेज़ को पढ़ने की जहमत क्यों करें, उसे गंभीरता से लेता कौन है?

चाणक्य ने इस पर क्या कहा होता, यह बताने की विद्वता हममें तो नहीं है. वैसे भी, उनके या सुन ज़ू और कन्फूशियस के नाम से इतना कुछ कहा गया है कि यह बताना मुश्किल है कि वास्तव में इन विद्वानों ने क्या-क्या कहा है. बहरहाल, हम सुरक्षित रास्ता अपनाते हुए पूर्व आला अफसरशाह और अग्रणी विचारक अनिल स्वरूप से एक विचार उधार लेते हैं. वे हैशटैग #Chanakyadidntsay नाम से तीखे ट्वीट करते रहते हैं. सो, चाणक्य ने निश्चित यह तो नहीं ही कहा होगा या चंद्रगुप्त के कान में भी नहीं फुसफुसाया होगा और न ही अपने किसी ग्रंथ में लिखा होगा कि— अपने दुश्मन से कभी बात मत करो; कभी उसकी मंशा को मत भांपो; और वह जो कुछ लिखित में जारी करता है, खासकर अपनी रणनीतिक दृष्टि के बारे में, उसे तो एकदम मत पढ़ो. बल्कि चाणक्य ने यह कहा होता कि भारत को उसका बारीकी से अध्ययन करना चाहिए, भले ही वह मोटे अक्षरों में मात्र 48 पेज का दस्तावेज़ हो जिसमें कश्मीर का सिर्फ 113 शब्दों में जिक्र किया गया हो.


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इस दस्तावेज़ में जो काम की बातें नहीं हैं, और वे इसमें भरी पड़ी हैं, उन्हें आसानी से खारिज किया जा सकता है. लेकिन अगर हम पाकिस्तानी सत्तातंत्र के प्रति अपनी पुरानी नफरत को अपनी उत्सुकता पर हावी न होने दें तो आपको इसमें पांच ठोस बातें मिलेंगी. हम यहां इन पर एक-एक करके विस्तार से चर्चा करेंगे.

– दिलचस्प बात यह है कि इस नीति दस्तावेज़ में कश्मीर को केवल 113 शब्द दिए गए हैं, और यह इस दस्तावेज़ के सबसे छोटे हिस्सों में शामिल है. इसमें जो कहा गया है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण वह है, जो नहीं कहा गया है. सबसे पहली बात तो यह कि 5 अगस्त 2019 को भारत ने जम्मू-कश्मीर का दर्जा बदलने का जो फैसला किया था उसे वापस लेने की कोई मांग इसमें नहीं की गई है. क्या इसका मतलब यह है कि इमरान खान सामान्य स्थिति बहाल करने की जिस शर्त को बार-बार दोहराते रहे हैं उसे पाकिस्तान छोड़ रहा है? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि भारत में जो आम मान्यता है उसके मुताबिक इमरान इतने सुस्त हैं कि उन्होंने इस दस्तावेज़ को पढ़ा ही नहीं है? वैसे, बता दें कि उन्होंने इसकी प्रस्तावना लिखी है. पिछले साल उन्होंने अपनी फौज के इस विचार को खारिज कर दिया था कि भारत के साथ व्यापार फिर शुरू किया जाए. उन्होंने कहा था कि भारत पहले कश्मीर पर उनकी शर्तों को कबूल करे. अब, उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने जिस दस्तावेज़ पर दस्तखत किया है वह उस रुख के विपरीत है.

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इसके अलावा, कश्मीर के मामले में वह क्या चाहता है? यहां पर मुझे याद आ रहा है, 1991 में ‘इंडिया टुडे’ के लिए मैंने जो पहला इंटरव्यू लिया था, नवाज़ शरीफ का. वे तभी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे. उन्होंने सभी मसलों पर सवालों का गर्मजोशी से जवाब दिया था. लेकिन जब मैंने कश्मीर के बारे में सवाल किया था तो उन्होंने अपने सूचना सलाहकार मुशाहिद हुसैन (अब सीनेटर हैं) की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए जवाब दिया था, ‘वो, क्या कहते हैं हम, आप ही बताएं.’ मुशाहिद हुसैन ने जो कहा था उसे मैं दोहरा नहीं सकता. लेकिन वह 113 शब्दों में समा सकता था. वे लगभग वे ही शब्द थे जो इस दस्तावेज़ में कहे गए हैं. 2019 के इमरान से 1991 के नवाज़ तक पीछे नज़र डालना महत्वपूर्ण है. कश्मीर के बारे में जो अंश है उसे आप यहां पढ़ सकते हैं.

– अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय सुरक्षा का जिस तरह मुख्य आधार बताया गया है वह काबिले गौर है. हम देख सकते हैं कि आंतरिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय उदासीनता के कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंच रही है. यह दस्तावेज़ उन्हीं सप्ताहों के बीच आया है जब वह स्वीकृत कर्ज को हासिल करने के लिए आईएमएफ से अपमानजनक वार्ता कर रहा था. 1993 के बाद से वह 11वीं बार कर्ज ले रहा था. अब हमें पता चला है कि इमरान ने इसी सप्ताह बयान दिया है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से बेहतर हाल में है, लेकिन यह बात वे आईएमएफ से निश्चित ही नहीं कह रहे हैं. पाकिस्तान को उसकी ‘शर्तें’ बहुत भारी लग रही हैं जिनसे महंगाई बढ़ सकती है और लोगों का असंतोष भी बढ़ेगा. उसने मांग की है कि आईएमएफ बोर्ड की बैठक इस महीने के अंत तक टाली जाए ताकि वह विचार कर सके कि इस राहत से हाथ धो ले या चीजों की कीमतें बढ़ाने, टैक्सों में वृद्धि करने और अपने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता की गारंटी देने का नया कानून बनाने के बारे में फैसला कर सके.

अर्थव्यवस्था, आंतरिक स्थिरता, फिरकावाराना टकरावों के खतरों, आंतरिक अलगाववादी आंदोलनों पर ज़ोर देना इस बात को रेखांकित करता है कि आज का पाकिस्तान 30 साल पहले वाला पाकिस्तान नहीं है, वह आज अपने गिरेबान में ज्यादा झांकने लगा है.

– दुनिया को देखने का पाकिस्तान के मौजूदा सत्तातंत्र का जो नज़रिया है वह दिलचस्प है. आप अफगानिस्तान, चीन, भारत, ईरान के बारे में पढ़ेंगे तो एक क्षण के लिए लगेगा कि यह वर्णमाला के मुताबिक उन देशों की सूची है जिन्हें पाकिस्तान अहम मानता है. लेकिन यह सूची ईरान पर पर खत्म होती है और इसके बाद ‘बाकी देश’ हैं. अमेरिका का नाम इनमें रखा गया है. अमेरिका को बाकी देशों में शुमार किया गया है? वह भी उनकी वजह से जिन्हें वह दिग्गज सहयोगी बताता है— जॉर्ज डब्लू. बुश. क्या आप इसकी कल्पना कर सकते थे? बशर्ते आप यह न सोच रहे हों कि यह कीमत बाइडन को तो चुकानी ही पड़ेगी क्योंकि उन्होंने इमरान खान को अब तक वह फोन नहीं किया है.

– और, अमेरिका के बारे में यह दस्तावेज़ क्या कहता है? यह कि पाकिस्तान उसके साथ रिश्ते का स्वागत करता है मगर वह ‘खेमेबाजी की राजनीति’ को मंजूर नहीं करता. यह इस उपमहादेश के उस एकमात्र देश के लिए कुछ बड़ी ही बात है जो बहुदेशी, सैन्य-सामरिक संधियों में औपचारिक रूप से शामिल है. और ये तमाम ‘सीटो’, ‘सेंटो’ जैसी संधियां अमेरिका के साथ की गई हैं. आज भी वे संधि से बंधे सुरक्षा सहयोगी हैं. लेकिन, क्या यह सब तब बदल जाएगा, जब बाइडन का वह फोन आ जाएगा?

पाकिस्तान का कहना है कि उसे मौजूदा यह स्थिति पसंद नहीं है जिसमें अमेरिका के साथ उसका रिश्ता केवल आतंकवाद-विरोध में सहयोग पर केंद्रित है. इसका मतलब यह है कि क्या उसे केवल दुनिया के लिए सिरदर्द ही माना जाएगा? सबसे पुराने साथी और सरपरस्त की उदासीनता से उपजी हताशा साफ झलकती है. यह तब भी सामने आती है जब दस्तावेज़ में भारत की बात की गई है और शिकायत की गई है कि उस पर परमाणु प्रसार से संबंधित पाबंदियां क्यों उठा ली गई हैं.

– अब हम 5वीं और अंतिम वजह पर आते हैं. भारत में आज जिस विचारधारा का राज है और जो उसे चला रही है उसका कई बार जिक्र किया गया है. ‘हिंदुत्ववादी राजनीति’ का जिक्र किया गया है, और कहा गया है कि भारत की इस घरेलू राजनीति के लिए जरूरी है कि वह पाकिस्तान के साथ दुश्मनी को अपनी धुरी बनाए. यह आशंका भी जाहिर की गई है कि इस विचारधारा के तहत काम करते हुए भारत एकतरफा समाधान भी लागू कर सकता है. या फिर जंग शुरू हो सकती है जो पारंपरिक किस्म की भी हो सकती है या ऐसी भी जिसमें ‘सीधी टक्कर न हो’. इस दस्तावेज़ को तैयार करने वालों की मंशा क्या है, इसे विस्तार से नहीं बताया गया है. यह साइबर युद्ध भी हो सकता है, या दूर से मार करने वाली मिसाइलों आदि के जरिए युद्ध भी हो सकता है जिसमें किसी-न-किसी तरह का ‘संपर्क’ तो होगा ही. या फिर राजनीतिक मुहिमों और दबावों का सहारा लिया जा सकता है, जैसा कि प्रमुख विदेशी राजधानियों और आईएमएफ जैसी बहुद्देशीय संस्थाओं में होता है. अभी निश्चित रूप से कुछ कहना मुश्किल है, सिवा इसके कि आशंकाओं पर गौर किया जाए.

पाकिस्तान आहत है, अपने गिरेबान में झांक रहा है, उसे सांस लेने की मोहलत चाहिए. उसे इस बात का एहसास हो रहा है कि दुनिया में उसकी हैसियत गिरी है और अमेरिका के साथ उसकी दोस्ती टूटी है, जिसका एकआयामी संदेश यह है कि तुम यह गारंटी दो कि तुम्हारी जमीन से हमें परेशान करने वाली कोई बेजा हरकत अब न हो. और तीसरी बात यह कि भारत के साथ व्यापार फिर शुरू करने के फौज के विचार को पिछले साल तीन बार खारिज कर चुके, अमेरिका को अफगानिस्तान में कार्रवाई करने के लिए अपने हवाई मार्ग का इस्तेमाल करने की अनुमति देने से इनकार कर चुके, और नये आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति के लिए मना कर चुके इमरान खान अब इन बातों पर कान दे रहे हैं. फिलहाल तो ऐसा ही लग रहा है, क्योंकि उनकी सियासत और लोकप्रियता कमजोर पड़ रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


 

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