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उत्तर प्रदेश की राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में एक नई प्रतिद्वंदिता उभर रही है- मायावती बनाम प्रियंका गांधी

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं लेकिन मायावती के प्रियंका गांधी को निशाना बनाने से यही लगता है कि कांग्रेस नेता राजनीतिक तौर पर कुछ तो सही कर रही हैं.

चित्रण: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

दुनिया इस साल अनेक अप्रत्याशित घटनाओं का गवाह बनी है और राजनीति की दुनिया में भी स्थिति कोई अलग नहीं रही है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और मायावती के बीच का सद्भाव– कर्नाटक में तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी कुमारास्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान मई 2018 में दोनों का मंच पर गले मिलना– उत्तर प्रदेश में वर्चस्व साबित करने की प्रतिद्वंदिता में बदल गया, जहां मायावती और प्रियंका गांधी वाड्रा आमने-सामने हैं.

मायावती की नई रणनीति

मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) पहचान के संकट से गुजर रही है लेकिन उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री संघर्ष किए बिना हार मानने वाली नहीं हैं, भले ही पार्टी में नेतृत्व की दूसरी कतार दिखाई नहीं देती हो. अपनी सियासी किस्मत को बदलने के लिए उन्होंने प्रियंका गांधी को अपने रोष का निशाना बनाया है. कांग्रेस के गांधी परिवार के शीर्ष नेतृत्व पर हमले करना एक तरह से उन्हें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का सहयोगी साबित करता है, साथ ही इससे राजनीतिक प्रेक्षकों को भाजपा से उनके पूर्व संबंधों पर रोशनी डालने का मौका भी मिलता है. मायावती ने 1995 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिए सवर्ण हिंदू वोट बैंक वाली पार्टी भाजपा का सहयोग लिया था.

2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद मायावती ने जल्दी ही उत्तर प्रदेश में भाजपा के वर्चस्व को स्वीकार कर लिया. भाजपा ने जब बसपा के 2007 के नारेसर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ‘ को हड़प लिया तो उन्होंने अपनी नाखुशी जाहिर करने की भी ज़रूरत नहीं समझी. बसपा के लिए ये नारा महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि मायावती ने 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण और दलित मतदाताओं को परस्पर साथ लाकर जीत हासिल की थी. प्रियंका गांधी भी मतदाताओं के उन्हीं वर्गों को लुभाने का प्रयास कर रही हैं. मायावती को इस होड़ का असर महसूस हो रहा है और इसलिए वह प्रियंका गांधी पर हमला करने का कोई अवसर नहीं चूकती हैं.

एलएसी पर चीन निर्मित मौजूदा संकट से निपटने के मोदी सरकार के तरीके पर नरम रुख अपनाकर या प्रवासी मजदूरों को वापस लाने के उत्तर प्रदेश सरकार के प्रयासों की प्रशंसा कर मायावती भाजपा के करीब आने की कोशिश कर रही हैं.

बात इतने पर ही खत्म नहीं होती. मायावती ने मई में कोविड-19 की स्थिति पर चर्चा के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में शामिल नहीं होने का फैसला किया था.

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प्रियंका गांधी भी ये सब समझती हैं

भाजपा के साथ भविष्य के गठबंधन के संदर्भ में यह सारी बातें सार्थक नज़र आती हैं. बसपा कांग्रेस को प्रियंका गांधी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पैठ बनाने से रोकने की कोशिश कर रही है.

प्रियंका गांधी भी ये सब अच्छी तरह समझती हैं. पिछले हफ्ते, राज्य के एक बालिका संरक्षण गृह में दो लड़कियों के गर्भवती पाए जाने संबंधी आरोप पर उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का नोटिस मिलने पर प्रतिक्रिया देते हुए प्रियंका गांधी ने ज़ोर देकर कहा कि योगी सरकार के खिलाफ सच बोलने से वह पीछे नहीं हटेंगी क्योंकि वह ‘इंदिरा गांधी की पोती’ हैं ना कि ‘कुछ विपक्षी नेताओं की तरह भाजपा की अघोषित प्रवक्ता.’ यह मायावती पर परोक्ष हमला था.

महिला नेता होने के नाते भी प्रियंका गांधी की अच्छी उपस्थिति दिख रही है. पुरुषवादी नज़रिए के लिए बदनाम उत्तर प्रदेश में हाल फिलहाल तक इकलौती ताकतवर महिला नेता होने के नाते मायावती का बड़ा प्रभाव होता था. लेकिन अब मैदान में प्रियंका गांधी भी हैं जिन्हें विरोध में सड़कों पर उतरने और घर-घर जाकर लोगों से मिलने के अलावा पुलिस को चकमा देते हुए अपनी निडरता दिखाने के कारण भी वाहवाही मिल रही है. गत वर्ष दिसंबर में प्रियंका ने नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के कारण लखनऊ में गिरफ्तार पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी के परिजनों से मुलाकात कर उत्तर प्रदेश पुलिस को खासा सिरदर्द दिया था.

पिछले साल ही अगस्त में सोनभद्र नरसंहार कांड के पीड़ित परिवारों से मिलने से रोके जाने पर प्रियंका ने धरना दिया था. वह अपनी आक्रामकता नहीं छोड़ती हैं और प्रतिद्वंदियों को चुनौती देने में पूरा आत्मविश्वास दिखाती हैं. ये पूछे जाने पर कि क्या उनकी ज़मीनी राजनीति से योगी सरकार खतरा महसूस करती है, उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि उनसे ‘हरेक की राजनीति को खतरा है.’ उनके ‘हरेक’ में मायावती शामिल हैं.

गड़े मुर्दे उखाड़ना

प्रियंका गांधी के कोई कदम उठाते ही मायावती पूरी ताकत से उन पर टूट पड़ती हैं. जनवरी में बसपा नेता ने प्रियंका पर ‘घड़ियाली आंसू’ बहाने का आरोप लगते हुए कहा था कि वह उत्तर प्रदेश में तो हर जगह जाती हैं लेकिन कांग्रेस शासित राजस्थान के हाल का जायजा लेने के लिए उनके पास समय नहीं है. वह कोटा के एक सरकारी अस्पताल में 110 शिशुओं की मौत के मामले का उल्लेख कर रही थीं.

फरवरी में मायावती ने एक बार फिर प्रियंका पर हमला करते हुए उनके वाराणसी के रविदास मंदिर जाने के कदम को ‘नौटंकी’ बताया. बसपा नेता ने आरोप लगाया कि उत्तर प्रदेश में अपने शासन के दौरान कांग्रेस ने रविदास को कभी सम्मान नहीं दिया था.

दोनों के बीच हाल में शुरू ये प्रतिद्वंदिता कोविड महामारी के दौरान भी जारी रही. जब फंसे पड़े प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश सरकार को 1,000 बसें उपलब्ध कराने की पेशकश की तो मायावती ने प्रवासियों के संकट के लिए कांग्रेस पर दोष मढ़ने में कोई देरी नहीं की. मायावती का कहना था कि राज्य की पूर्व कांग्रेसी सरकारों द्वारा ग्रामीण इलाकों में विकास कार्य नहीं किए जाने के कारण ही किसानों, दलितों और आदिवासियों को रोज़ी-रोटी के लिए बड़े शहरों का रुख करना पड़ा था.


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भाजपा के बयानों के बरक्स देखने पर मायवाती के राजनीतिक संदेशों को डिकोड करना मुश्किल नहीं है क्योंकि भाजपा भी अतीत की विफलताओं के लिए कांग्रेस पर हमले करती रही है.

राजनीतिक वर्चस्व की इस होड़ ने प्रवासी श्रमिकों के कष्ट को बढ़ाने का ही काम किया क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने कांग्रेस द्वारा उपलब्ध कराई गई अधिकतर बसों को यात्रा के लिए अनुपयुक्त करार देकर उनके इस्तेमाल से इनकार कर दिया. ऐसा उस दौर में किया गया जब मजदूर ट्रकों और सीमेंट मिक्सरों में भरकर घरों के लिए रवाना हो रहे थे.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं और इस अवधि में राजनीतिक घटनाक्रमों का अनुमान लगाना संभव नहीं है. लेकिन मायावती के प्रियंका गांधी को विशेष तौर पर निशाना बनाने से यही लगता है कि कांग्रेस नेता राजनीतिक तौर पर कुछ तो सही कर रही हैं.

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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