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मौतों की तादाद को छिपाना बेकार है, कोविड के कहर से यूपी के गांवों को बचाना राष्ट्रीय मिशन होना चाहिए

यूपी के ग्रामीण अंचलों में कोविड कैसा कहर बरपा रहा है, इसका अनुमान सरकारी आंकड़ों से नहीं लगाया जा सकता.

जौनपुर जिला अस्पताल में कोविड पेशेंट बमउ राम कनौजिया 70, से डॉक्टर बात करते हुए/ ज्योति यादव/दिप्रिंट

भारत के गंवई इलाके में रहने वाले किसी भी शख्स से एक सीधा-सा सवाल पूछिए : बीते पचास दिनों में आपके गांव में कितनों की मौत हुई ? मौत की वजह पूछना जरुरी नहीं, बस मौतों की तादाद पूछ लीजिए. ये भी पूछिए कि आपके गांव की आबादी कितनी है? फिर एक छोटा सा गणित लगाइए : वजह चाहे जो भी रही हो, अगर मौतों की कुल संख्या इस अवधि में प्रति हजार लोगों पर 1 से ज्यादा निकले तो समझिए कि बड़ी तादाद में मौतें हो रही हैं. अगर ये संख्या 1.5 से ज्यादा निकलती है तो आप ये बात तयशुदा मानकर चल सकते हैं कि मौतों की तादाद में हुई बढ़ोत्तरी किन्ही जानी-पहचानी वजहों से नहीं बल्कि किसी बड़ी बीमारी के कारण हुई है. अगर ये संख्या 2 यानि आपके सामान्य सोच से दोगुना ज्यादा आती है तो फिर समझ लीजिए कि बड़ी भारी विपदा आयी है.

मैंने यूपी के अपने कुछ दोस्तों से ये सवाल पूछा, अर्ज किया कि आप अपने गांव के किसी परिचित को फोन मिलाकर ये ही सवाल पूछिए. मुझे 14 गावों के बाबत जानकारी मिली जो वाराणसी, रायबरेली, प्रतापगढ़, मेरठ और बुलंदशहर के हैं. ये तो नहीं कह सकते कि सवाल पूछने की इस विधि में जो गांव शामिल माने जा रहे हैं उनका चयन वैज्ञानिक रैंडम सैंम्पलिंग की विधि से किया गया है लेकिन ये भी नहीं कह सकते कि जिन गांवों में मेरे साथियों ने फोन किये वो बुरी तरह से आपदा प्रभावित हैं. फोन पर हासिल जानकारियों पर विचार करने पर ये निष्कर्ष निकला कि पूर्वी तथा मध्यवर्ती यूपी के छोटे तथा अपेक्षाकृत गरीब गांवों मौतों का अनुपात सूबे के पश्चिमी इलाके के समृद्ध गांवों की तुलना में ज्यादा है.

मार्च के आखिरी हफ्ते में शुरु हुई कोविड की दूसरी लहर के बाद से इन गांवों की कुल 33,600 की आबादी में मौतों की तादाद 101 रही. गुणा-गणित करके देखें तो बतायी गई अवधि में प्रति हजार व्यक्तियों में मौतों की संख्या 3.005 आती है यानि आम दिनों में होने वाली मौतों की तुलना में तीन गुणा ज्यादा.

अगर इसी अनुपात को 23.5 करोड़ की आबादी वाले पूरे उत्तरप्रदेश पर लागू करें तो पता चलेगा कि आम दिनों की तुलना में उक्त अवधि में मौतों की तादाद 4.7 लाख ज्यादा है. ये जो मौतों की अतिरिक्त संख्या दिख रही है उसके बारे में हम मान सकते हैं कि वजह कोविड महामारी की दूसरी लहर है. अब जरा इस तादाद की तुलना मौतों के आधिकारिक आंकड़े से कीजिए : पिछले साल महामारी के शुरु होने के वक्त से लेकर अभी तक की अवधि में देश में कुल मौतों की संख्या है 2.5 लाख बतायी जा रही है और यूपी में तो ये आंकड़ा चंद हजार का है.

मौतों की तादाद के बारे में हमने यहां जो अनुमान लगाया है, दरअसल उससे भी ये बात ठीक-ठीक पता नहीं चलती कि आगे और कितनी मौतें होनी हैं. युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंग्टन स्थित एक स्वतंत्र ग्लोबल हेल्थ रिसर्च सेंटर, द इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन(आइएचएमई) का आकलन है कि अगस्त माह के आखिर तक यूपी में कोविड के कारण मौतों की तादाद 1.7 लाख से 2.1 के बीच रह सकती है.

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ये आकलन भी मौतों की तादाद में हुई बेतहाशा बढ़ोत्तरी की वास्तविकता से बहुत दूर रह जाता है. अगर हम पिछले पिछले 50 दिनों में प्रति हजार आबादी पर हुई मौतों की संख्या को 2.5 मानें( यानि ऊपर जिस कच्चे से सर्वेक्षण की चर्चा आयी है उससे कम) और उसके आधार पर अगले 50 दिनों में होने जारी मौतों का अनुमान लगायें तो दिखता है कि यूपी में अप्रैल, मई और जून को मिलाकर सामान्य की स्थिति की तुलना में मौतों की संख्या 7 लाख ज्यादा होगी. अगर पूरे एक साल में होने वाली मौतों का गणित लगायें और ये मानकर चलें कि कोविड की तीसरी लहर अभी की लहर की तरह बहुत ज्यादा मारक नहीं होगी तो मौतों का आंकड़ा 10 लाख तक पहुंचा दिखता है. मानकर चलिए कि ये महा-आपदा नहीं है बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के ढांचे के महा-विध्वंस की सूचना है—एक ऐसी घटना जो इस सदी में पहले कभी पेश नहीं आयी.


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महामारी से कराहता यूपी

मेरे साथी-सहकर्मी रवि चोपड़ा, अंकित त्यागी, राजीव ध्यानी, अनमोल और मेरी खुद की भी मीडिया में आ रही रिपोर्टों पर नजर है, हम जानना चाह रहे हैं कि यूपी के ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी क्या स्वरुप अख्तियार करती है. हमारा मकसद इसके बारे में एक पूरी रिपोर्ट निकालने का है लेकिन रिपोर्ट के इस शुरुआती चरण में हमारी धारणा बनी है कि कोविड-19 के हर पहलू यानि बात चाहे टेस्टिंग की हो या फिर शवों की अंतिम क्रिया करने की—यूपी के लोग अपने को हार और हताशा की हालत में पा रहे हैं.

एक बात साफ है. आधिकारिक आंकड़ों से आपको ये नहीं पता चलने वाला कि विध्वंस पर उतारु ये महामारी यूपी के ग्रामीण अंचलों में कैसा विकराल रुप ले चुकी है. इस सूबे से अब प्रतिदिन 20000 लोगों के संक्रमित होने की सूचना आ रही है. साहब ! ये सीधे-सीधे एक क्रूर मजाक है. बीमारी के स्वभाव के बारे में ग्रामीण अंचलों में ज्यादातर लोगों को जानकारी नहीं है, आस-पास उन्हें जांच कराने की भी सुविधा हासिल नहीं. टेस्टिंग की संख्या प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से कम की जा रही है. टेस्ट की रिपोर्ट आने में हद दर्जे की देरी हो रही और इन कारणों से जिस भी गांव में जाइए, आपको पता चलेगा कि वहां बीमारी के लक्षण वाले ज्यादातर लोग जांच नहीं करवा पाये हैं जबकि वे शिकायत कर रहे हैं कि ना जाने कैसे नामुराद बुखार ने देह को आ जकड़ा है. जानते-बूझते और बडी निर्दयता से मौतों के आंकड़ों को कम करके बताया जा रहा है. इसी बीच खबर आयी है कि बड़ी संख्या में लाशें गंगा के किनारे जगह-जगह तैरती मिल रही हैं.

मीडिया की रिपोर्ट बता रही है कि यूपी में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूद स्वास्थ्य ढांचा अप्रैल के मध्य में यानि जब दूसरी लहर ने अपना भयावह रुप लेना शुरु किया तभी चरमरा चुका था. अखबारों में इस आशय की खबरें भरी पड़ी हैं कि रेमडेसिविर जैसी दवाओं और आक्सीमीटर जैसे उपकरणों की बड़े शहरों में कालाबाजारी हो रही है.

मरीज को ले जाने के लिए एम्बुलेंस और मृतक को ढोने के लिए रंथी खोज पाना तक मुहाल हो रहा है. अप्रैल के तीसरे हफ्ते तक अस्पतालों के बेड भर चुके थे. फिर बाकी जगहों की तरह यूपी में भी आक्सीजन की कमी हुई. अमर उजाला के 23 अप्रैल के आगरा संस्करण में ये खबर छप चुकी थी कि आक्सीजन की कमी के कारण इटावा जिला अस्पताल में एक मरीज की 22 अप्रैल को मौत हो गई है. महानगरों में हुई ऑक्सीजन की कमी ने बेशक ध्यान खींचा है लेकिन यूपी के छोटे शहर इस मामले में सौभाग्यशाली नहीं, वहां हालात बदतर हैं. आक्सीजन की कालाबाजारी हो रही है और आक्सीजन के सिलेंडरों की लूट की भी कोशिशें हुई हैं.


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सरकार से क्या उम्मीद लगायें

सरकार की प्रतिक्रिया क्या रही ? ईमानदारी से कहें तो ऐसी विकराल महामारी किसी भी सरकार के लिए चुनौती है. चिकित्सा सुविधा के अभाव वाले राज्य यूपी में तो ये चुनौती और भी ज्यादा मुश्किल रुप ले लेती है. इन तमाम हदों को ध्यान में रखने के बावजूद ये बात बेखटके कही जा सकती है कि यूपी की सरकार की प्रतिक्रिया हैरतअंगेज और निराशानजनक रही, ऐसी निराशानजनक प्रतिक्रिया देश के किसी भी सूबे की सरकार ने नहीं दिखायी. सरकार ने कई उपायों की घोषणा की जिसमें अस्पताल में बेड और आईसीयू सुविधाओं की संख्या बढ़ाना, आक्सीजन और कंसन्ट्रेटर की आपूर्ति, दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना और निजी अस्पतालों में निशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था करना शामिल है. लेकिन ये घोषणा कागज पर ही रहीं. इलाहाबाद हाईकोर्ट को आगे आकर कड़े शब्दों में कहना पड़ा कि: ‘ हम अब हालात से निपटने की आपकी कागजी तैयारियों को बर्दाश्त नहीं करेंगे. अब आप वही कीजिए तो हमारा आदेश है.’

जमीनी हालात बिगड़ते रहे. हाईकोर्ट को एक बार फिर से आगे आना पड़ा. यूपी उन राज्यों में एक है जहां टीकाकरण की दर सबसे कम है.

हालात को संभालने की जगह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी छवि और सरकार के बारे में लोगों में कायम धारणा को बिगड़ने से बचाने की जुगत में लगे रहे. चुनिन्दा पत्रकारों के साथ 24 अप्रैल को हुई वीडियो-कान्फ्रेंस में योगी आदित्यनाथ ने कहा कि किसी भी कोविड-19 अस्पताल में आक्सीजन की कमी नहीं है, असली समस्या जमाखोरी और कालाबाजारी की है. खबरों के मुताबिक उन्होंने अधिकारियों से कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई कीजिए, उन लोगों की संपत्ति जब्त कीजिए जो सोशल मीडिया पर अफवाह फैला रहे हैं, दुष्प्रचार के जरिए माहौल बिगाड़ रहे हैं. कोविड की सच्चाई से इनकार की हद तो ये हुई कि राज्य सरकार ने स्कूल के शिक्षकों को पंचायत चुनाव कराने में लगा दिया. खबरों में आया है कि पंचायत चुनाव में लगे 577 शिक्षकों की मौत हुई है.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि जो लोग स्थिति के बारे में आगाह कर रहे हैं, चेतावनी की घंटी बजा रहे हैं और आलोचना कर रहे हैं उन्हें तंग ना किया जाये. लेकिन, यूपी सरकार ने अपने कदम नहीं खींचे, आगे बढ़कर उसने हालात की गंभीरता की चेतावनी देने वालों पर मुकदमे दर्ज करवाये. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो नजर आएगा कि यूपी में मीडिया ने अपना ध्यान स्थानीय समस्याओं की रिपोर्टिंग पर केंद्रित कर रखा है, उसमें राज्य सरकार और मुख्यमंत्री की आलोचना गायब है.

उत्तरप्रदेश की ये कथा अपने आप में अनूठी नहीं है. अब हम जान गये हैं कि कोविड की दूसरी लहर देश के ग्रामीण अंचलों में फैल चुकी है. बहुत से गरीब राज्यों से खबरें आ रही हैं कि वहां स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा चरमरा उठा है. संक्रमितों की संख्या और मौतों की तादाद को ढंकने-छिपाने की खबरें कई राज्यों से आ रही हैं. ऐसे राज्यों में दिल्ली भी शामिल है और गुजरात भी.

अकेले योगी आदित्यनाथ ही नहीं हैं जो इस घड़ी में आत्ममुग्ध बनकर मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन हैं. तो भी ये बात कही जा सकती है कि – ग्रामीण अंचलों में कोविड के संक्रमण के विस्तार, सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे की बदहाली और निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं के ढ़हने, योजना और समुचित उपाय के अभाव तथा ठेठ सियासी निर्दयता के मिले-जुले कारणों से आज यूपी भारत और शायद पूरे विश्व में कोविड महामारी का मूल केंद्र बनकर उभरा हुआ है जबकि 21वीं सदी की इस महामारी को रोका जा सकता था.

यूपी के ग्रामीण अंचलों की हिफाजत अभी राष्ट्रीय मिशन होना चाहिए. वक्त रहते कदम उठाने की घड़ी तो कब की निकल गई लेकिन अभी भी लाखों की जिन्दगी बचा लेने का समय बाकी है. ये वक्त कदम उठाने का है.

(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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