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मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए न तो कांग्रेस और न ही BJP ज़िम्मेदार, वे खुद इसके दोषी हैं

आज बुद्धिजीवी लगातार हिंदू प्रधान भारत में हाशिये पर पड़े मुसलमानों की मार्मिक कहानियों की खोज में लगे हुए हैं. एक पसमांदा मुस्लिम के रूप में मेरा नज़रिया प्रमुख कहानी से काफी अलग है.

प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

पिछले हफ्ते विधानसभा चुनाव के नतीजे आते ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने तीन प्रमुख हिंदी बैल्ट राज्यों में जोरदार वापसी की. कांग्रेस में आत्मनिरीक्षण की कमी थी, जिसे उसके वैचारिक विरोधियों और पत्रकारों ने तुरंत उजागर किया. हालांकि, ज्यादातर आलोचकों ने प्रमुख मुस्लिम हस्तियों की आत्मनिरीक्षण में विफलता पर ध्यान नहीं दिया — वो “गलत हिंदुओं” को कोसने में व्यस्त थे जिन्होंने “सांप्रदायिक भाजपा” को वोट दिया था. इस तरह की नफरत से भारतीय मुसलमानों पर कोई एहसान नहीं होगा. वो अपनी सभी शिकायतों के लिए बीजेपी को दोषी ठहराते रह सकते हैं, लेकिन तथ्य कुछ और ही बताते हैं. देश में 20 करोड़ मुसलमानों की बेहद खराब सामाजिक-आर्थिक दुर्दशा के लिए न तो भाजपा जिम्मेदार है और न ही कांग्रेस. हमारी अधिकांश समस्याएं घेटोआइजेशन (जहां, मुख्य रूप से एक ही समुदाय के लोग रहते हैं) की हमारी अपनी मानसिकता की उपज हैं.

आज बुद्धिजीवी लगातार हिंदू प्रधान भारत में हाशिये पर पड़े मुसलमानों की मार्मिक कहानियों की खोज में लगे हुए हैं. एक पसमांदा मुस्लिम के रूप में मेरा नज़रिया प्रमुख कहानी से काफी अलग है.

हम एक पत्थर का खंभा नहीं

एक बड़ी गलती जो अधिकांश टिप्पणीकार करते हैं वो है — मुस्लिम समुदाय को एक अखंड के रूप में देखना और बारीकियों की उपेक्षा करना. मंडल आयोग की रिपोर्ट से एक सजातीय मुस्लिम आबादी की धारणा टूट गई, जिसने भारत के इतिहास में पहली बार समुदाय के भीतर जाति पदानुक्रम पर प्रकाश डाला. इसने मुसलमानों के बीच जाति-आधारित भेदभाव की ज़मीनी हकीकत को सामने ला दिया, जिससे अधिकांश भारतीय अनभिज्ञ थे.

हमारा समुदाय एक अद्वितीय सांस्कृतिक वास्तविकता को आश्रय देता है, जो अक्सर कुफू सिद्धांत द्वारा ढका हुआ है जो अशरफ वर्चस्व को कायम रखता है. ‘कुफू’ शब्द का सामान्य अर्थ सामाजिक स्थिति की ‘समानता’ है और इसका उपयोग वैवाहिक अनुकूलता निर्धारित करने के लिए किया जाता है. इस तरह के मानदंड ने पसमांदा मुसलमानों को सत्ता, प्रतिष्ठा और विशेषाधिकार के पदों से बाहर करने के एक बड़े पैटर्न को जन्म दिया है. इसके अलावा, यह एक प्रकार का दोहरा हाशिए परीकरण है – एक समूह को उस समुदाय से अलग कर दिया गया है जो खुद भारत में अल्पसंख्यक है.

परिणामस्वरूप, मुसलमानों के लिए समानता की बड़ी लड़ाई में पसमांदाओं के अधिकारों की उपेक्षा की जाती है और यह एक ऐसा समूह है जो देश में मुस्लिम आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा है.

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इसका एक उदाहरण मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्थानों में शिक्षा के अधिकार का असमान अनुप्रयोग है, जो वंचित पसमांदा स्टूडेंट्स को अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के अवसर से वंचित करता है. इसके अलावा, निचली जातियों के लिए आरक्षण का लाभ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) जैसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों में अनुपस्थित है, जहां अशरफों का प्रतिनिधित्व अधिक है और पसमांदाओं की संख्या केवल कुछ ही है. पसमांदाओं का यह प्रणालीगत बहिष्कार व्यापक मुस्लिम समुदाय में चिंताजनक सामाजिक-आर्थिक असमानताओं में योगदान देता है.


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वर्षों से पिछड़ा हुआ

देखिए हकीकत कितनी कड़वी है.

2011 की जनगणना में उल्लेख किया गया है कि मुसलमानों के बीच साक्षरता दर 68.54 प्रतिशत है – जो ईसाई, जैन, सिख और बौद्ध जैसे अन्य अल्पसंख्यक समूहों की तुलना में कम है. भारत की आबादी का 14 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद, केवल 4.6 प्रतिशत मुस्लिम छात्र उच्च शिक्षा संस्थानों में हैं. हालांकि, कोई कल्याणकारी योजनाओं और राज्य द्वारा प्रदत्त लाभों की ओर इशारा कर सकता है, वास्तविकता यह है कि अन्य समुदाय समान संसाधनों के साथ बेहतर परिणाम प्राप्त कर रहे हैं.

अधिक सूक्ष्म स्तर पर मदरसा प्रणाली मुसलमानों की आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा तक पहुंच को प्रतिबंधित करती है. कुरान की पहली आयत ‘इकरा’ जिसका अनुवाद ‘पढ़ना’ है, के बावजूद, हम शायद ही कभी मौलवियों को शुक्रवार के उपदेशों में शिक्षा को प्रोत्साहित करते हुए सुनते हैं. वो यह प्रचार करके महिलाओं की शिक्षा को भी हतोत्साहित करते हैं कि यह मुसलमानों के लिए विनाश लाएगा. उनका सारा ध्यान अधिकतर राजनीति पर है — न कि समग्र समुदाय की भलाई पर.

एक वर्ग द्वारा प्रतिगामी और पितृसत्तात्मक व्याख्याओं द्वारा बंधक बनाए गए समाज में प्रगति के लिए अनुकूल मानसिकता को बढ़ावा देने की संभावना नहीं है. ऐसा समुदाय विकासात्मक मापदंडों पर पिछड़ने के लिए तैयार है, जो एक प्रतिबंधात्मक विश्वदृष्टि से बाधित है जो इनोवेशन और समावेशिता को रोकता है. अधिक प्रगतिशील और दूरदर्शी समाज का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ऐसी व्याख्याओं की पकड़ से मुक्त होना आवश्यक है.

मुसलमानों के बीच उच्च शिक्षा की कमी भी नौकरियों में उनकी कम भागीदारी में तब्दील हो जाती है. पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों से पता चलता है कि केवल 5 प्रतिशत मुसलमान ही यूपीएससी परीक्षाओं के लिए उत्तीर्ण होते हैं. उच्च संस्थानों में मुसलमानों के नामांकन का डेटा भी एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है.


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मुस्लिम महिलाओं की हालत अधिक खराब

मुस्लिम समुदाय की प्रगति में पिछड़ने में योगदान देने वाला एक महत्वपूर्ण कारक लैंगिक असमानता है. जब आधी आबादी को समान अधिकार, उचित व्यवहार और शिक्षा तक पहुंच से वंचित कर दिया जाता है, तो समाज पिछड़ जाता है और पिछड़ा ही रह जाता है. मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जो उन्हें समान अधिकारों से वंचित करता है, खासकर विरासत के मामले में. पूर्वकल्पित लैंगिक भूमिकाएं महिलाओं की शिक्षा को दिए जाने वाले महत्व को सीमित करती हैं और परिवार में उनके आर्थिक योगदान में बाधा डालती हैं.

इसके अलावा, मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले नेताओं में अक्सर प्रतिबद्धता की कमी होती है. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी मुसलमानों के अधिकारों के बारे में जोर-जोर से रोते हैं, लेकिन उनका निर्वाचन क्षेत्र – हैदराबाद, 43 प्रतिशत मुसलमानों के साथ – भारत में दूसरी सबसे बड़ी शहरी गरीब आबादी है. एनजीओ हेल्पिंग हैंड के 2020 के सर्वेक्षण में खुलासा हुआ कि हैदराबाद के 63 फीसदी मुस्लिम परिवार गरीब हैं, लेकिन इस खराब प्रदर्शन के लिए ओवेसी को न्यूनतम आलोचना का सामना करना पड़ा. जब युवा यह सवाल कर रहे थे कि उन्हें उन्हें वोट क्यों देना चाहिए, तो उनके पास कोई जवाब नहीं था.

ओवैसी ने आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के लिए आरक्षण का भी विरोध किया है. विडंबना यह है कि एक नेता जो मुसलमानों के सामने आने वाली चुनौतियों के लिए अक्सर हिंदू बहुसंख्यकों को दोषी ठहराता है, वह उन नीतियों में बाधा डाल रहा है जो समुदाय के भीतर आर्थिक रूप से वंचित वर्गों का उत्थान कर सकती हैं.

ऐसे में ऐसे नेताओं की ईमानदारी संदेह के घेरे में आ जाती है. ऐसे परिदृश्य में जहां नेता जवाबदेही से बचते हैं और भय फैलाकर या सांप्रदायिक रणनीति के माध्यम से वोट सुरक्षित करते हैं, सामाजिक सुधार की संभावनाएं अनिश्चित रहती हैं. समुदाय को अपने वोटों को निर्देशित करने वाले मानदंडों और नेताओं की पसंद को प्रभावित करने वाले कारकों पर विचार करना चाहिए.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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