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पूर्वोत्तर में सफलता बीजेपी की ही नहीं, भारत की भी कामयाबी की कहानी है

उत्तर-पूर्व के लोग ज्यादा स्मार्ट हैं. वे “दिल्ली” की अच्छी पेशकश के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं. शांति, संपर्क, और भारत की उछाल मारती अर्थव्यवस्था ने राष्ट्रीय भावना और भारतीयता को भी बढ़ावा दिया है 

चित्रणः सोहम सेन । दिप्रिंट

उत्तर-पूर्व के तीन छोटे-छोटे राज्यों (जिनकी कुल आबादी करीब 1 करोड़ होगी और जिनमें कुल पांच लोकसभा सीटें हैं) के चुनाव नतीजों ने भाजपा के पक्ष में एक बार फिर आश्चर्यजनक समर्थन की पुष्टि कर दी है. लेकिन हम कुछ अलग सवाल उठा रहे हैं. चुनाव का ताल्लुक तो राजनीति और दलीय समीकरणों से होता है, तो क्या इन चुनाव नतीजों का विश्लेषण अपेक्षाकृत गैर-राजनीतिक पहलू से किया जा सकता है? 

इसलिए, आगे कुछ कहने से पहले हम चुनावी नतीजे घोषित होने के ठीक बाद उस शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेशक जश्न के मूड में जो कुछ कहा उस पर गौर करते हैं. बगावतों के बारे में उन्होंने कहा, “पहले, उत्तर-पूर्व में होने वाले चुनावों के नतीजे जब आते थे तब दिल्ली और देश के दूसरे भागों में चर्चा इस बात की होती थी कि चुनावों के दौरान वहां हिंसा कितनी हुई.” इसके बाद उन्होंने भाषण देने के अपने खास अंदाज में बताया कि अब कितना बुनियादी अंतर आ गया है, “उत्तर-पूर्व अब न तो दिल्ली से दूर है और न दिल से.” अगर आप अपना राजनीतिक झुकाव और वोट देने की पसंद को परे रखें तो आपको उनकी बात में काफी दम दिखेगा.    

आज अगर हम उत्तर-पूर्व— उसकी कभी की ‘सात बहनों’ और बाद में जुड़े सिक्किम— पर नज़र डालें तो वहां लगभग कोई बगावत नहीं नज़र आएगी. मानना पड़ेगा कि अब दुर्लभ छोटी घेराबंदियां मुठभेड़ें बढ़ गई हैं. लेकिन हथियारबंद पुलिस और बदमाशों के बीच ऐसी मुठभेड़ें हिंदी पट्टी के किसी राज्य में पूरे उत्तर-पूर्व में ऐसी मुठभेड़ों के मुक़ाबले ज्यादा हो रही हैं. इस तरह की हथियारबंद संगठित लूटपाट को अलगाववादी बगावत नहीं कहा जा सकता.   

एकमात्र बागी गुट नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड करीब एक दशक से शांत है और वार्ताओं की अटूट शृंखला में भाग ले रहा है. इस क्षेत्र के बड़े हिस्से में आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) हटा लिया गया है.

बेशक यह प्रक्रिया 2014 के बाद नहीं शुरू हुई जब मोदी सरकार सत्ता में आई. यह पिछली एनडीए सरकार के जमाने से जारी है. तब त्रिपुरा के तत्कालीन माकपाई मुख्यमंत्री माणिक सरकार और केंद्र के तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के बीच तालमेल से एएफएसपीए को राज्य के सभी 70 पुलिस थाना क्षेत्रों से एक-एक करके हटाने की बनी शानदार प्रक्रिया चलाई गई थी. यह सब एक तरह से संयोग से चला, जब तक कि गड़बड़ी से ग्रस्त कोई इलाका अछूता नहीं बचा.      

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इसके बाद सुस्ती-सी आ गई. लेकिन मोदी सरकार ने इसे फिर शुरू किया. बांग्लादेश के साथ रिश्ते सुधारने से भी काफी मदद मिली. वह अपने यहां पाए जाने वाले भारतीय उग्रवादियों को करीब एक दशक से भारत को खुशी-खुशी सौंप रहा है.

करीब तीन दशकों से मैं लिखता रहा हूं कि उत्तर-पूर्व हमें भारत में कई दशकों से बगावत विरोधी एक अनूठे सिद्धांत का आश्चर्यजनक स्वरूप प्रस्तुत करता रहा है. इसे ग्राफ के रूप में देखिए. राज्य में अलगाववादी हिंसा जैसे-जैसे बढ़ने लगी, सत्तातंत्र की ओर से उसका जवाब भी बढ़ने लगा. एक समय ऐसा आया जब बागियों को एहसास हुआ कि सत्तातंत्र बहुत सख्त है और वे उससे कभी जीत नहीं पाएंगे, चाहे वे कितना भी नुकसान पहुंचा दें या कितनी भी हत्याएं कर डालें. इस समय तक वे थक चुके थे और सुलह करना चाहने लगे थे. और सरकार ने भी उदारता बरती. जीत का दावा करने या निर्णायक वार करने की जगह उसने राजनीतिक सुलहनामा प्रस्तुत किया. तुम्हें क्या चाहिए? अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपना राज्य चाहिए? कुछ विशेष कानून चाहिए? अपने राज्य में अपनी राजनीतिक ताकत चाहिए? तुम्हें यह सब मिलेगा, बस भारतीय संविधान को कबूल कर लो. 

अगर तुम्हें यह जस का तस पसंद नहीं है तो हम विशेष प्रावधान जोड़ सकते हैं (नगालैंड के लिए अनुच्छेद 371, और शिलांग शांति समझौता,1975). सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि हम तुम्हें राजनीतिक सत्ता भी सौंप देंगे. यहां पर मैं आपको बताना चाहूंगा कि कांग्रेस सरकार ने मिज़ो बागी नेता ललदेंगा की, और 1985-86 में असम के आंदोलनकारियों की बातें किस तरह मान ली थी. उन शांति समझौतों और उनके बाद हुए चुनावों की खबरें मैंने दी थी और ब्रह्मपुत्र घाटी में ये नारे सुने थे— ‘राजीव गांधी जिंदाबाद, कांग्रेस पार्टी मुर्दाबाद’. 

जनता तो हर जगह की स्मार्ट होती है, लेकिन उत्तर-पूर्व की जनता कुछ ज्यादा स्मार्ट है. इसकी वजह शायद यह है कि वह दूरदराज़ के क्षेत्र में काफी कठिन जीवन जीती रही है और तीन पीढ़ियों से राजनीतिक माहौल के खतरों को झेलती रही है. 

‘ग्राफ’ की पहली पुष्टि मुझे तब हुई जब मैं राजीव-ललदेंगा समझौते के बाद मिजोरम में हुए चुनाव को कवर कर रहा था. उस समय मिजोरम के पुलिस प्रमुख, आइजी जी.एस. आर्य की सचिव थीं युवा वानलाज़ारी. 1975 में, मिज़ो बागियों का एक झुंड पुलिस मुख्यालय में घुस गया था और उसने आइजीपी, उनके डिप्टी तथा स्पेशल ब्रांच के प्रमुख को गोली मार दी थी. पूरे देश में तहलका मच गया था. बाद में, उन हत्यारों को मुठभेड़ों में मार डाला गया और इस साजिश के लिए वानलाज़ारी को दोषी ठहराया गया था. जेल में उन्होंने एक दस्तावेज़ लिखा, जो भूमिगत बागियों का प्रेरणास्रोत बना. उसे ‘ज़ारी डायरी’ कहा गया, उसका अंग्रेजी संस्करण आज भी मेरे पास कहीं कागजों में पड़ा है. 

वानलाज़ारी को समझौते के बाद माफी के तहत रिहा कर दिया गया. 1986 में मैंने उन्हें खुद की पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट के मुख्यालय में पोस्टरों और झंडों के बंडल बनाते देखा था. मैंने उनसे पूछा था, “आप तो संप्रभुता के लिए लड़ रही थीं, लेकिन आपने वह लड़ाई छोड़ क्यों दी ?”

उन्होंने मुझे पाठ पढ़ाते हुए जवाब दिया था, “सच है कि हम संप्रभुता के लिए लड़ रहे थे, लेकिन केवल उससे आज़ादी नहीं मिल जाती. पोलैंड संप्रभुता संपन्न है, मगर क्या वह स्वतंत्र है?” उस दौरान लेश वावेशा की ‘सॉलीडरिटी’ के नेतृत्व में पोलैंड में छिड़ा आंदोलन दुनिया भर में सुर्खियों में था. मैं कह नहीं सकता कि भारत के दूसरे भागों के लोग इस तरह का तर्क देते या नहीं.

इसलिए मैंने कहा कि हम सब स्मार्ट हैं मगर उत्तर-पूर्व के लोग ज्यादा स्मार्ट हैं. वे “दिल्ली” की अच्छी पेशकश के प्रति सकारात्मक तथा रचनात्मक प्रतिक्रिया देते हैं. आप इन खबरों को ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका के पुराने अंकों में पढ़ सकते हैं. मुझे विश्वास है कि एनएससीएन का मसला भी इसी तरह जल्दी ही सुलझ जाएगा.  

तब और अब के बीच, इस क्षेत्र में काफी कुछ बदल चुका है. अगर हम छलांग मार कर मोदी के दौर में आ जाएं, तो सबसे बड़ा फर्क यह दिखेगा कि इस क्षेत्र के अंदर और गलती से ‘मेनलैंड’ कहे जाने वाले क्षेत्र के बीच आवाजाही की सुविधा अविश्वसनीय रूप से सुधर गई है. किसी भी क्षेत्र तक पहुंचने की असुविधा ही इस क्षेत्र और “दिल्ली” के बीच एक बड़ी मानसिक बाधा थी.  

पिछले नौ वर्षों में हाइवे की संख्या में नाटकीय वृद्धि हुई है, रेल कई और इलाकों तक पहुंच रही है, और हवाई यात्रा में चमत्कारी सुधार हुआ है, किसी बड़े महानगर से किसी राज्य में जाकर अगली सुबह लौट आया जा सकता है. या इसका उलटा भी हो सकता है. 

मगर क्या यह सब केवल पिछले नौ सालों, मोदी युग में ही हुआ है? बेशक, सुधार के काम वर्षों से चल रहे हैं, लेकिन सुस्त गति से. 

इसके उदाहरण : 2104 तक, असम होकर बहती ब्रह्मपुत्र नदी पर केवल एक संकरा-सा पुल था. यह सरायघाट पुल 1960 वाले दशक में बना था. इसके बगल में चौड़ा पुल बनाने की मंजूरी वाजपेयी सरकार ने उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम कॉरिडोर बनाने की योजना के तहत दी थी. एक दशक से ज्यादा बीतने के बाद भी इस पुल का निर्माण पूरा नहीं हो पाया था. आज इस नदी के ऊपर छह पुल बन चुके हैं और सातवें का निर्माण जारी है. इससे आपको बदलाव की रफ्तार का अंदाजा लग गया होगा.

शांति, संपर्क, और भारत की उछाल मारती अर्थव्यवस्था ने उत्तर-पूर्व के सुपर प्रतिभाशाली युवाओं को रोजगार के लिए देश भर में फैलने का मौका प्रदान किया है. इसने मानसिक तथा भावनात्मक जुड़ाव के साथ राष्ट्रीय भावना और भारतीयता को भी बढ़ावा दिया है.

इस बीच, मोदी सरकार ने अपना राजनीतिक, राष्ट्रवादी अभियान भी चलाया है. उसने इस क्षेत्र में 19वीं-20वीं सदी में अंग्रेजी हुकूमत से लड़ने वाले नायकों-नायिकाओं के योगदान को प्रचारित किया है, मसलन— रानी गाइडिंलिउ (नगा), कनकलता बरुआ (असम), यू तिरोट सिंग (ख़ासी), बीर टिकेंद्रजीत सिंह (मेतेई, मणिपुर), आदि. बेशक, मुग़ल हमलावरों को परास्त करने वाले लचित बरफुकन को राष्ट्रीय नायक का दर्जा दिया गया है.    

लेकिन भाजपा ने कुछ बड़ी गलतियां भी की और उनसे जल्दी ही सबक लेते हुए कदम पीछे भी खींचे. इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण नये नागरिकता कानून सीएए और एनआरसी की खिचड़ी है. उसने जल्दी ही अपनी गलती पहचानी, जिसका नतीजा यह है कि हिंदू-मुस्लिम वाला फॉर्मूला उत्तर-पूर्व में उस तरह नहीं चल रहा जिस तरह हिंदी पट्टी या पश्चिम बंगाल में चलता है. 

इसकी वजह यह है कि उत्तर-पूर्व पर भाजपा के दांव इतने ऊंचे हैं कि वह सीएए/एनआरसी की बात फिर से उठाने से पहले तीन बार सोचेगी. उत्तर-पूर्व मोदी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से और भाजपा के लिए चुनावी तौर पर अच्छी-ख़ासी सफलता की कहानी कहता है. अगर वे ध्रुवीकरण वाले अपने मूल एजेंडा को कभी भी तरजीह देकर इस कामयाबी को गंवाने का फैसला करते हैं तो यह एक अप्रिय आश्चर्य ही होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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