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मोदी बेशक लोकप्रिय हैं लेकिन सर्वशक्तिशाली नहीं, केंद्र-राज्य के रिश्तों का बेहतर होना जरूरी

मोदी राष्ट्रीय स्तर पर भले बेहद लोकप्रिय हों लेकिन अधिकतम राज्यों में चुनाव जीतने में उनकी अक्षमता, राज्यों में उनके विरोधियों की भारी लोकप्रियता भारतीय राजनीति को एक शक्तिशाली संघीय ढांचे की ओर ले जा रही है.

चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट

क्या भारत में तीखी तकरार भरी राजनीति के चलते केंद्र तथा राज्यों के बीच और राज्यों में आपसी टकराव का दौर शुरू होने वाला है? अगर हम इस केंद्रीय वास्तविकता पर गौर करें कि नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय और ताकतवर नेता प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठा है, तब इस सवाल का जवाब ना में मिल सकता है. लेकिन कुछ ऐसे तथ्य और ऐसी जानकारियां उभरती हैं जो इस जवाब को नकारती हैं.

उदाहरण के लिए ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका के ताजा सर्वे ‘देश का मिज़ाज’ को लीजिए. ऊपर से तो यह घिसा-पिटा नज़र आता है, खासकर इसके पिछले सर्वे से इसकी तुलना करने पर, जिसमें यह बताया गया था कि जनता में असंतोष बढ़ रहा है और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता गिर कर 24% पर पहुंच गई है.

अब, जैसा कि शेयर बाजार के मुहावरे में कहा जाता है, ‘तेजी से सुधार’ आया है जो कि बढ़त की ओर है. यह अपने पुराने, जाने-पहचाने 53 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है और राहुल गांधी उनसे 46 अंक पीछे 7 फीसदी पर हैं. सर्वे में बाकी सब कुछ इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है. जो भी हो, अगस्त 2021 में हुए चुनावों में मोदी और भाजपा को लगे झटकों की अनदेखी कर दें तो कहा जा सकता है कि हमारी राजनीति वापस अपनी सामान्य लीक पर पहुंच गई है.

गहराई में जाएं तो हमें फिर वही पुरानी टेक हाथ लगेगी, जो हमारे लिए यह है कि तमाम मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य में कितने लोकप्रिय हैं. योगी आदित्यनाथ सबसे लोकप्रिय नौ मुख्यमंत्रियों में शामिल नहीं हैं. इस बात की संभावना भी कम है कि वे 10वें नंबर के आसपास होंगे. वरना प्रकाशित सूची नौ नंबर पर ही खत्म नहीं हो जाती. सीधी-सी बात है कि वे इतनी बड़ी हस्ती हैं कि कोई भी प्रकाशन उन्हें अपनी सूची से बहुत कम अंकों के कारण बाहर नहीं कर सकता. पत्रिका का कहना है कि उसने उन्हीं मुख्यमंत्रियों की सूची दी है जिनकी अपने राज्य में लोकप्रियता सर्वे के कुल औसत 43 फीसदी से ज्यादा है.


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सबसे लोकप्रिय नौ मुख्यमंत्रियों में भाजपा के केवल एक मुख्यमंत्री का नाम है. वे हैं असम के हिमंत बिसवा सरमा, जो 56 फीसदी सकारात्मक वोट के साथ सातवें नंबर पर हैं. उनके बरक्स नवीन पटनायक को देखिए जिन्हें 71.1 वोट मिले हैं, ममता बनर्जी को जिन्हें 69.9 फीसदी, एम.के. स्टालिन-उद्धव ठाकरे-पिनराई विजयन को जिन्हें 60 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं. इन सबके बाद अरविंद केजरीवाल हैं जिन्हें 57.9 फीसदी वोट मिले हैं.

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आठवें और नौवें नंबर पर कांग्रेस के भूपेश बघेल और अशोक गहलोत हैं. लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि सरमा वे हैं जो कुछ साल पहले ही कांग्रेस से भाजपा में आए हैं. भाजपा की अपनी ‘सिस्टम’ से उभरा कोई मूल भाजपाई सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों की सूची में नहीं है.

यहां एक विरोधाभास उभरकर सामने आता है. मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है. यह सर्वे उनकी पार्टी को अभी भी लोकसभा की 271 सीटें और एनडीए को 298 सीटें देकर लगभग बहुमत में आता दिखा रहा है. दूसरी ओर, 12 राज्यों में उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री सत्ता में हैं लेकिन एक आयातित मुख्यमंत्री को छोड़कर उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो योग्यता अंक ला सके.

इसका जाहिर निष्कर्ष यही है कि भाजपा को मिलने वाले अधिकांश वोट मोदी के लिए मिले वोट ही हैं. और जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, वे अपनी लोकप्रियता को अपने प्रादेशिक नेताओं के लिए वोट में तब्दील नहीं कर पा रहे हैं.

इसका हमारी राजनीति और शासन व्यवस्था के लिए क्या गंभीर प्रभाव पड़ सकता है यह समझने के लिए और गहराई में जाना होगा. खासकर इस शुक्रवार को जब यह स्तंभ लिखा जा रहा है, दावोस में ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ (डब्ल्यूईएफ) ने 2022 के लिए जारी अपनी सर्वमान्य ‘ग्लोबल रिस्क्स रिपोर्ट’ (वैश्विक जोखिम रिपोर्ट) में नये आंकड़े जारी किए हैं.

डब्ल्यूईएफ की यह वाक वार्षिक रिपोर्ट दुनियाभर में तमाम क्षेत्रों की करीब एक हजार अग्रणी हस्तियों के बीच किए गए सर्वे पर आधारित होती है. इसके मुताबिक भारत के लिए किस तरह के जोखिम किस अनुपात में हैं उन पर गौर कीजिए. इसके मुताबिक भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है- ‘राज्यों के आपसी खंडित संबंध’. इसमें हम केंद्र-राज्य संबंध को भी शामिल कर सकते हैं. किसी बड़े देश के लिए ऐसा खतरा नहीं दिखता, न ही इस खतरे को किसी और देश के लिए सबसे बड़ा बताया गया है.

इसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता के जो आंकड़े ‘इंडिया टुडे’ के सर्वे में दिए गए हैं उनके साथ जोड़ कर देखें. मोदी राष्ट्रीय स्तर पर भले बेहद लोकप्रिय हों, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि उनके क्षेत्रीय विरोधी अपने-अपने राज्य में कहीं ज्यादा लोकप्रिय हैं. मोदी के अपने मुख्यमंत्रियों में एक को छोड़ बाकी सारे तो सूची में शामिल किए जाने लायक योग्यता आंकड़ा भी नहीं हासिल कर पाए हैं. और तो और, ताकतवर योगी भी सूची में शामिल नहीं हो पाए हैं. मोदी और उनकी पार्टी सूची में शामिल लगभग सभी लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों से छत्तीस का रिश्ता रखती है. कई के तो व्यक्तिगत संबंध भी खराब हैं. भाजपा और इन मुख्यमंत्रियों की पार्टियों के बीच निरंतर तकरार चलती रहती है.


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इंदिरा-राजीव युग के अनुच्छेद 356 की ताकत से लंबे समय से वंचित केंद्र सरकार केंद्रीय एजेंसियों की ताकत का मनमाना प्रयोग करती रही है. इनका इतना ज्यादा इस्तेमाल किया गया है कि इनकी दहशत अब फीकी पड़ने लगी है. कम-से-कम दो मुख्यमंत्रियों, ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे ने दिखा दिया है कि राज्य अपनी पुलिस और ‘एजेंसियों’ का इस्तेमाल करके जैसे-को-तैसा जवाब दे सकते हैं. स्टालिन की तमिलनाडु पुलिस का ‘एंटी करप्शन ब्यूरो’ ने भाजपा की सहयोगी अन्नाद्रमुक के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है. अब पंजाब के आगामी चुनाव में ‘आप’ की संभावित जीत के बाद वहां की स्थिति पर नज़र रखने की जरूरत होगी.

दो पीढ़ियों में उभरे सबसे लोकप्रिय राष्ट्रीय नेता ने शासन की जो शैली चुनी है वह दिन-ब-दिन राष्ट्रपति शासन प्रणाली का रूप धरती जा रही है. दूसरी ओर, अधिकतम राज्यों में चुनाव जीतने में उनकी अक्षमता, राज्यों में उनके विरोधियों की भारी लोकप्रियता भारतीय राजनीति को एक शक्तिशाली संघीय ढांचे की ओर ले जा रही है. यह शासन व्यवस्था और राजनीति के बीच विरोधाभास को उजागर करती है.

इससे जनकल्याण योजनाओं का पूर्णतः केंद्रीकरण करके उन्हें आगे बढ़ाने की उनकी क्षमता पर ही केवल असर नहीं पड़ेगा. इसने शासन के उनके स्तर को प्रभावित करना शुरू तो कर ही दिया है, नयी संस्थाओं को झटका भी दिया है.

आईएएस अधिकारियों को पूरी तरह केंद्र के अधीन लाने के मनमाने अधिकार हासिल करने के उनके ताजा प्रस्ताव का राज्यों ने जिस तरह विरोध किया है वह इसका ताजा सबूत है. कुछ सीमावर्ती राज्यों ने इसी तरह बीएसएफ के दायरे को बढ़ाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है. कई राज्य कोविड महामारी के मामले में केंद्र के आदेशों के खिलाफ संघर्ष कर चुके हैं.

इस सब से मोदी के लिए सीधी-सी चुनौती यह उभरती है कि उनकी भारी लोकप्रियता उनके लिए संपूर्ण सत्ता में नहीं तब्दील होती. इसलिए, राष्ट्रपति शासन व्यवस्था वाली उनकी शैली को चुनौती दी जा रही है. जब उन्होंने इस ओर रुख किया था तब जमीनी हकीकत अलग थी.

उदाहरण के लिए मार्च 2018 तक, जब उनका पहला कार्यकाल ही चल रहा था, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक खबर के मुताबिक उनकी पार्टी 21 राज्यों में सत्ता में थी, जिनमें देश की 71 फीसदी आबादी बसती है. आज वह (एनडीए, केवल भाजपा नहीं) घटकर 17 राज्यों में सत्ता में है, जिनमें केवल 49 फीसदी आबादी बसती है. आंकड़ों की यह हकीकत आज राजनीतिक हकीकत को भी स्वरूप प्रदान कर रही है.

विरोधी प्रादेशिक नेताओं की ओर हाथ बढ़ाना मोदी की फितरत में नहीं है. यह उनकी राजनीति के खिलाफ होगा. फिर भी आगामी चुनावों में भाजपा शानदार प्रदर्शन से यही कर सकती है कि अपने राज्यों को अपने कब्जे में बनाए रखे. कोई अतिरिक्त राज्य तो वह जीत नहीं सकती. भाजपा जब निरंतर तकरार की मुद्रा में रहेगी, केंद्र से टूटने के दबाव बढ़ेंगे.

केंद्र और राज्यों के बीच खंडित संबंध, जैसे कि भाजपा शासित और गैर-भाजपा शासित राज्यों के बीच हैं, आगे बड़ा जोखिम बन सकते हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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