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इलाके के ‘दादा’ चीन का ध्यान कहीं और है, पाकिस्तान संकट में है, मोदी के लिए फायदा उठाने का यही मौका है

इस मौके का फायदा उठाकर भारत को खुद को बदलने की शुरुआत करनी है, जो वह रूसी फौजी सप्लाइ पर निर्भरता से उभरने वाले खतरों को दूर करके कर सकता है.

सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

नये साल में भारत की बाहरी सुरक्षा की संभावनाओं का व्यापक जायजा लेते हुए आप दो आसान और परस्पर विरोधी नजरिए में से एक का चुनाव कर सकते हैं. एक तो यह कि, अगर आप आशावादी हैं और/या मोदी सरकार के समर्थक हैं तो आप यह कहेंगे कि हालात इतने शांतिपूर्ण पहले कभी नहीं रहे.

चीन की सीमा पर पुराना मगर मजबूत गतिरोध बना हुआ है, उधर पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तानी फौज मारे गए अपने फ़ौजियों की संख्या गिनने में उलझी है और एक जबर्दस्त लोकप्रिय नेता से अभूतपूर्व चुनौती का सामना कर रही है. इसके अलावा, पश्चिमी और पूर्वी देशों के साथ भारत के गठबंधन चीन से उभरते खतरों के कारण और टिकाऊ होते जा रहे हैं.
इसके विपरीत अगर आप निराशावादी हैं और/या मोदी सरकार के आलोचक हैं तो आपको हालात मुश्किल भरे ही नज़र आएंगे. आप कहेंगे, चीन ने जिन इलाकों पर कब्जा किया है उस पर अपनी पकड़ मजबूत बनाता जा रहा है और मोदी सरकार तो सैन्य या कूटनीतिक लिहाजों से उसे पीछे हटने को मजबूर करने में विफल रही है. पाकिस्तान भी अंततः अपने आंतरिक मसले सुलझा ही लेगा और फिर अपने पुराने ढर्रे पर लौट आएगा. वैसे भी, चीन और पाकिस्तान में साठ-गांठ तो है ही.

चीन जब भारत को अपना सैन्य रुख बदलने और उसे अपना फौजी जमावड़ा पश्चिमी सीमा से उत्तर की ओर बढ़ाने को मजबूर कर रहा है तब पाकिस्तान राहत की सांस ले सकता है. और भारत के पश्चिमी समर्थक देश यूक्रेन में ही इतने उलझे रहेंगे कि उन्हें दूसरी बातों के लिए समय नहीं रहेगा.

उपरोक्त दोनों तरह के विचार तथ्यों पर आधारित हैं. अब इसमें आप किस तरह की राजनीतिक ‘छौंक’ लगाते हैं यह आपके ऊपर है. लेकिन हालात का जायजा लेने में जैसा कि आमतौर पर होता है, एक तीसरा विचार भी हो सकता है.
भारत और चीन ने अपने गतिरोध को स्थिर कर दिए हैं. यह तवांग में तकरार के बाद सुलह के आपसी प्रयासों से साफ दिखता है. वहां स्थानीय कमांडरों के बीच तुरंत फ्लैग मीटिंग भी हुई. ऐसा 2020 में पूर्वी लद्दाख में बर्फ पिघलने के बाद शुरू हुए संकट के बाद से अब तक नहीं हुआ था.

दोनों देशों ने अपना-अपना पूरा फौजी जमावड़ा कर लिया है और अब छोटी-मोटी फौजी कार्रवाई से तुरंत कोई लाभ हासिल कर पाने की गुंजाइश नहीं रह गई है. दोनों को यह भी मालूम है कि अब और कोई नई झड़प हुई तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितनी दुर्गंध फैल सकती है. वैसे भी भारत के लिए कुछ करना पहले भी फायदेमंद नहीं रहा. और शी जिनपिंग भी नासमझ नहीं हुए तो उन्हें भी पता होगा कि भारत के साथ उनकी सीमा से जुड़ी किसी बुरी खबर का नुकसान क्या हो सकता है. खासकर तब जबकि उनके सबसे अहम रणनीतिक सहयोगी और सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार रूस और अमेरिका वियतनाम युद्ध के बाद सबसे बड़े अप्रत्यक्ष युद्ध में उलझे हैं (हालांकि इस बार वे दो स्वतंत्र देशों की आड़ में लड़ रहे हैं).

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यह सब तो ठीक है, लेकिन यूक्रेन में किसी तरह की सुलह हो गई तो हालात नाटकीय रूप से बदल सकते हैं. तब चीन फिर पड़ोस का ‘दादा’ बन सकता है.

पाकिस्तान की घरेलू राजनीति और उसके इस्लामी बागियों में उसकी फौज के मौजूदा उलझाव को छोड़ दें तो भारत के प्रति उसके नजरिए में कोई स्थायी बदलाव के सबूत नहीं हैं. लेकिन उसकी सबसे बड़ी कमजोरी न तो उसके पाले-पोसे आतंकवादी हैं और न इमरान खान हैं. उसकी सबसे बड़ी कमजोरी उसकी अर्थव्यवस्था है.

इस क्षेत्र में श्रीलंका के बाद पाकिस्तान ही है जो आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा दिवालिया है. श्रीलंका के विपरीत, उसे एक बड़ी फौज को खिलाने-पिलाने और हथियारों से लैस रखने के अलावा, बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के बीच आंतरिक स्थिरता बनाए रखते हुए उस भारत से प्रतिद्वंद्विता के लिए तैयार रहना है जो कि मजबूत होता जा रहा है. यही नहीं, उसे अपने परमाणु हथियारों के लिए ज़िम्मेदारी भरे आचरण करने की भी उम्मीद की जाती है.

आर्थिक मोर्चे पर निराशा सुपर लोकप्रिय इमरान के प्रति समर्थन को बढ़ा सकता है. अगर निष्पक्ष चुनाव कराए जाएं तो इमरान की जीत की संभावना ज्यादा है. अगर पाकिस्तानी फौज ने कसीनों के नियम से काम करने का फैसला किया जिसमें कि दूसरे के चाहे जो भी पत्ते हों जीत हमेशा ‘हाउस’ की होगी, तो वह अप्रत्याशित सख्ती बरत सकती है.

उसने अब तक कभी किसी लोकप्रिय राजनीतिक नेता से सड़कों पर चुनौती का सामना नहीं किया. बांग्लादेश युद्ध के बाद जब ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो सत्ता में आए थे उस दौर के विपरीत आज पाकिस्तानी फौज कोई हारी हुई फौज भी नहीं है. नये आर्मी चीफ के सामने लगभग असंभव चुनौतियां हैं. ऐसी स्थिति में उनके लिए सबसे लुभावना विकल्प क्या यह नहीं हो सकता है कि लोकप्रिय जनमत को फौज के पक्ष में करने के लिए भारत के साथ उलझकर उसका ध्यान भटकाया जाए?

ये सारे तथ्य मिलकर एक तीसरे नजरिए के निर्माण में मदद कर सकते हैं. यह कि भारत को लेकर जो रणनीतिक स्थिति है वह न तो सुधरी है और न बदतर हुई है. वह दुर्लभ, दीर्घकालिक और उपयोगी गतिरोध में बदल चुकी है. इसके बाद दो चीजें हो सकती हैं. एक यह कि यह स्थिति जल्दी ही समाप्त हो सकती है. यह स्थिति इतनी अच्छी है कि ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकती. दूसरी यह कि यह भारत को रणनीति के मामले में दम मारने का कुछ दुर्लभ समय दे सकती है. अगर हम इस मौके को गंवाते हैं तो अपना ही नुकसान करेंगे.

यह समय है— भविष्य की ओर देखने, कार्यशैली में बदलाव को तेज करने, रोज-रोज के ऑपरेशन संबंधी खतरों और चुनौतियों के कारण बाधित होने वाले सुधारों को तेजी से लागू करने का. आपने ज्यादा इंतजार किया तो आप खुद को फिर उसी पुरानी ‘सामान्य’ स्थिति में पा सकते हैं, जब आप फौरी सैन्य खतरों का सामना कर रहे होते हैं और आपके पास आज के संकट से आगे देखने का समय नहीं होता.

2014 से मोदी सरकार ने रणनीतिक दृष्टि से भारत को अहम स्थिति में पेश करने की कोशिश की है. कोई यू-टर्न नहीं लिया गया है और न कोई सतही कदम उठाया गया है, भारत अब किसी गठबंधन में दिखने को लेकर कोई संकोच नहीं महसूस कर रहा है.

बेशक, पुरानी संवेदनशीलताएं कायम हैं. क्वाड के सभी सदस्यों में केवल भारत ही ऐसा है जो इस संगठन के सैन्य पहलुओं के बारे में बात करने से हिचक रहा है. अमेरिका के साथ बढ़ते रणनीतिक मेलजोल के मामले में कुछ कदम झिझकते हुए उठाए जा रहे हैं. रूस के साथ रिश्ते को संवेदनशीलता के साथ निभाया जा रहा है, जैसा कि किसी दूसरी सरकार ने भी किया होता. लेकिन इससे भारत का रणनीतिक स्थिति सिकुड़ती और फैलती दोनों है.

उदाहरण के लिए हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के सहयोगियों को लें. भारत और उनके बीच बड़ा अंतर यह है कि बाकी सबने सार्वजनिक, राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की रणनीति साफ-साफ बता डाली है.

हमें मालूम है कि इन दस्तावेजों में सामान्य किस्म की बातें भरी रहती हैं और कई वाक्यों में ‘मुमकिन है’, ‘होना चाहिए’, ‘प्रयास’ जैसे शब्द भरे रहते हैं. लेकिन ये दस्तावेज़ इरादों का खुलासा करते हैं. फिलहाल, हिंद-प्रशांत क्षेत्र संबंधी अपनी रणनीति का खुलासा करने वाला नया देश है दक्षिण कोरिया. भारत इस समूह के देशों में एकमात्र ऐसी ताकत है जिसकी कोई रणनीति नहीं सामने आई है, चाहे यह राष्ट्रीय हो या हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए. यह तब है जबकि वह आज रणनीतिक दृष्टि से दुनिया के सबसे अहम क्षेत्र में स्थित है.

बहाना जायज है, लेकिन इसकी भी समय सीमा है. भारत की भौगोलिक स्थिति और इसकी अपनी संकटग्रस्त सीमाओं के कारण ही वह उत्तर-उत्तर-पूर्व या अपने दक्षिण में समुद्री क्षेत्र को लेकर वह कोई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नहीं बना पा रहा है. उसके सामने नौसैनिक ताकत बढ़ाने के लिए साधन हासिल करने की भी चुनौती है. इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के रणनीतिकार और सेना एक जाल में उलझ गए हैं.

हमने इस लेख के शुरू में तीन नजरिए की बात की थी. आप चाहे किसी नजरिए को चुनें, आप मानेंगे कि वह अस्थायी रहेगी. बेशक, मैं तीसरे नजरिए को चुनूंगा, जो कहता है कि भारत को क्षण भर के लिए दम मारने का दुर्लभ मौका मिला है. मेरे हिसाब से यह मौका करीब डेढ़ साल के लिए है. वर्तमान रणनीतिक आत्म संशय के लिए समय सीमा तय है.
आज भारत के दुश्मनों का ध्यान कहीं और उलझा हुआ है. उसके सहयोगियों का ध्यान जब रूस से लड़ने और चीन को ‘संभालने’ पर टिका हुआ है तब वे भारत को अपवाद मानने को तैयार हैं. भारत को खुद को बदलने की शुरुआत करनी है, जो वह रूसी फौजी सप्लाई पर निर्भरता से उभरने वाले खतरों को सजगता से दूर करके कर सकता है.

(संपादन : इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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