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तवांग झड़प और एम्स साइबर अटैक बताते हैं कि चीन हमारी जमीन नहीं बल्कि हमारे दिमाग पर कब्जा करना चाहता है

चीन की किसी कार्रवाई, उसके बाद तनाव कम करने के उसके तरीके, किसी से यह संकेत नहीं मिलता कि वह जमीन कब्जा करने के फेर में है. दरअसल वह जिस जमीन कर कब्जा करना चाहता है वह है हमारे सोच की जमीन

चित्रणः सोहम सेन । दिप्रिंट

चीन किस फेर मैं है? ऐसा क्यों है कि वह 3,488 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर उथल-पुथल पैदा करके भारतीय सैनिकों को और भारतीय जनमत को भी उकसा रहा है लेकिन तनाव को आपस में गोलीबारी की हद तक पहुंचने से रोकता रहा है?

वह क्या संदेश देना चाहता है, और उसका लक्ष्य क्या है? और आखिरी सवाल यह कि हम उसे क्या जवाब दे रहे हैं?
सैन्य जवाब नहीं. अभी यह सवाल नहीं है. भारत की सेना जमीन पर इस मामले में अच्छा मुक़ाबला कर रही है. इसे अधिकतर वीरान सीमा क्षेत्र पर मनमानी हाथापाई या धक्कामुक्की के सिलसिले के रूप में नहीं देखा जा सकता.
हमें समझना होगा कि चीन किस फेर में है. अगर वह जमीन कब्जाने के फेर में होता तो उसकी सेना ने तोप-गोली के इस्तेमाल से परहेज न किया होता. उसने मौतों को न्यूनतम रखते हुए जमीन कब्जाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए दूर से मार करने वाले हथियारों का इस्तेमाल करने की कोशिश की होती.

क्या उसने ऐसा केवल इसलिए किया होता ताकि एलएसी के इर्द-गिर्द जमीन के स्वरूप और ‘बफ़र ज़ोनों’ के निर्माण को, जो लद्दाख में किया गया है, ‘तार्किक’ साबित किया जा सके? वह इतना नादान नहीं है कि सिर्फ इसके लिए करीब तीन डिवीजन सेना और भारी साजो-सामान को 15 हजार फुट की बेहद दुर्गम ऊंचाई पर तैनात करे. इससे उसकी सुरक्षा में कोई इजाफा नहीं होने वाला है, न ही संसाधनों तक पहुंच बढ़ने वाली है, और न भारत अपनी जमीन की रक्षा करने के लिए गोली चलाने की नौबत पड़े तो उसमें कमजोर पड़ने वाला है.

इसके बावजूद, चीन की गतिविधियों पर भारत में अब तक जो बहस होती रही है वह जमीन के कब्जे पर केंद्रित रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो चीन का नाम तक न लेने की पूरी सावधानी बरतते हैं, इस मसले पर केवल एक बार 2020 में ही बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि ‘कोई नहीं आया…’ (कोई भी सीमा के अंदर नहीं आया , कोई भी हमारी जमीन पर कब्जा करके नहीं बैठा है, हमारी किसी चौकी पर कब्जा नहीं किया गया है). उनके इस बयान का खूब हवाला दिया गया है.

रणनीतिकार, और विपक्ष भी जमीन के कब्जे को लेकर ही आलोचना करते रहे हैं. इस शुक्रवार को जब यह स्तंभ लिखा जा रहा है तब भी मैं खबरों की सुर्खियों में देख रहा हूं कि राहुल गांधी मोदी पर यह कहते हुए निशाना साध रहे हैं कि चीन ‘हमारी जमीन पर कब्जा’ कर रहा है और प्रधानमंत्री खामोश हैं. तृणमूल कांग्रेस से लेकर असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम तक तमाम दूसरे विपक्षी दल भी जमीन की ही बात कर रहे हैं.

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लेकिन तथ्य यह है कि चीन की किसी कार्रवाई, उसके बाद तनाव कम करने के उसके तरीके, किसी से यह संकेत नहीं मिलता कि वह जमीन कब्जा करने के फेर में है. दरअसल वह जिस जमीन कर कब्जा करना चाहता है वह है हमारे सोच की जमीन. वह अपनी सेना की तैनातियों, और शीतयुद्ध के बाद के तीन दशकों से रणनीतिक संतुलन साधने की कोशिशों को लेकर भारत को असंतुलित करने के फेर में है. यह कोशिश वह अमेरिका के साथ भारत की परमाणु संधि के बाद से कर रहा है, और मोदी के पदार्पण के बाद से यह कोशिश तेज हो गई है.


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चीन भारत को विविध, पेचीदा रणनीतिक और राजनीतिक संदेश दे रहा है. इसके बदले हम जमीन और सैन्य व सामरिक मसलों पर ही ज़ोर देकर अपना भला नहीं कर रहे हैं. यह हमारी राजनीतिक तथा रणनीतिक संस्कृति की बुरी छवि प्रस्तुत करता है. हमें इस पर गहराई से विचार करना होगा.

जो पक्ष युद्ध हारता है वह उसी युद्ध को पीढ़ियों तक बार-बार लड़ता रहता है. हम अपने सामूहिक सोच में 1962 के युद्ध को बार-बार लड़ते रहते हैं, मानो हम खुद को आश्वस्त करना चाहते हैं कि अब हम बेहतर तरीके से युद्ध लड़ेंगे.

कड़वी सच्चाई यह है कि वह युद्ध 60 साल पहले हुआ. उसके बाद दुनिया में कई उथलपुथल हुए. भू-राजनीति बदल गई और भारत भी बदल गया है.

सैन्य मामलों में भी कई परिवर्तन हुए हैं— यंत्रों के बूते सामूहिक कार्रवाई से लेकर साइबर युद्ध और फिर ड्रोन-रोबो के इस्तेमाल तक सैनिकों के बीच सीधी टक्कर को न्यूनतम करने तक. अगर हमारी सामूहिक सोच अभी भी सीमा पर अपनी चौकियों की रक्षा करने तक ही सिमटी हुई है जैसा 1962 में था, तब मैं यह भी कहना चाहूंगा कि यही सोच हमारे रणनीतिक तथा रणनीतिक जगत में भी हावी है.

इसीलिए विपक्ष ने सिर्फ ‘अपनी जमीन गंवाने’ या गश्त करने का अपना अधिकार गंवाने को लेकर सरकार पर हमला शुरू कर दिया है. और कुछ अप्रत्यक्ष रूप से इसी पुरातन सोच के कारण मोदी सरकार इस मामले पर संसद में बहस की इजाजत नहीं दे रही है.

अगर मसला जमीन के टुकड़ों या गश्त करने के अधिकार का है, तो घरेलू राजनीति में इसे तब तक निश्चित रूप से निपटाया नहीं जा सकता जब तक आप यह खुलासा करने को राजी न हों कि आप पहले कहां थे और अब कहां हैं. ये दोनों बातें समस्या पैदा कर सकती हैं और इनका उल्टा नतीजा हासिल हो सकता है. यही वजह है कि मैं इस मसले को नहीं छुऊंगा. विचार तो व्यापक राजनीतिक, रणनीतिक, और भू-राजनीतिक पहलुओं पर किया जाना चाहिए, जिसके लिए मौजूदा राजनीतिक माहौल तैयार नहीं है.

भाजपा दो कारणों से आंख चुरा रही है. एक कारण तो राजनीतिक है. वह नहीं चाहती कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर प्रधानमंत्री के रेकॉर्ड पर सवाल उठाया जाए या उस पर सार्वजनिक चर्चा की जाए. आखिर उसे वोट दिलाने वाली एक वही तो है. आज़ाद भारत के इतिहास में राष्ट्रीय सुरक्षा पर सबसे मजबूत पहल ही मोदी की सबसे महत्वपूर्ण विशिष्टता बताई जाती है. शी जिनपिंग ने इस पर चोट करते रहने का फैसला कर लिया है.

दूसरा कारण भी राजनीतिक है, हालांकि वह उतना दलगत नहीं है. वैश्विक सत्ता के पुनर्संतुलन के लिए जो बारीकियां चाहिए, भारत जो चाल चल रहा है, इन सबके साथ जो भावनाएं जुड़ी हैं उन सबका तकाजा पूरा करने के लिए जिस स्तर की बहस चाहिए उसकी उम्मीद ही नहीं की जा सकती.

ऐसा नहीं है कि हमारी राजनीतिक जमात में प्रौढ़ता की कमी है. हमारे अधिकतर विपक्षी नेताओं में वह क्षमता है और वे यह सब कर चुके हैं. वे राष्ट्रीय सुरक्षा और तेजी से बदलते वैश्विक समीकरणों को समझते हैं. असली बात यह है कि उनके और शासक दल के बीच आपसी विश्वास की कमी है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत से बनी सरकार ने अपने अब तक के साढ़े आठ साल में राष्ट्रीय सुरक्षा के संवेदनशील मसले पर विपक्ष को कभी भरोसे में नहीं लिया, बंद कमरे के अंदर भी नहीं.

यह विभाजित राजनीति भारत की सबसे बड़ी रणनीतिक कमजोरी बन गई है. भारत की रक्षा पंक्ति में इस खाई को ही चीन निशाना बना रहा है. वह मनुष्य की हानि नहीं चाहता है. गलवान में जो घातक झड़प हुई वह पिछले दो साल में उसकी रणनीति की सबसे बड़ी विफलता रही.

उनकी चालों पर गौर कीजिए. कुछ-कुछ महीने पर वह ऐसा कुछ करता रहा है जिससे भारत, खुद मोदी परेशान हों और भारत के रणनीतिकार दिग्भ्रमित होते रहें. हाल में उसने उकसावे के दो काम किए. तवांग सेक्टर में झड़प की, और भारत में चिकित्सा विज्ञान और शिक्षण के सबसे महत्वपूर्ण केंद्र, दिल्ली के ‘एम्स’ अस्पताल के साइबर तंत्र को ठप कर दिया. ये दोनों कार्रवाई अमेरिका के साथ किए गए युद्धाभ्यास के मद्देनजर की गई.


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भारत अगर ‘क्वाड’ के अपने मित्र राष्ट्र के साथ हिमालय क्षेत्र में तिब्बत के करीब युद्धाभ्यास करके एक संदेश दे रहा था, तो चीन हमें यह जता रहा था कि यह खेल तो दोनों पक्ष खेल सकते हैं. एक प्रतीकात्मक कार्रवाई का जवाब अधिक नुकसानदेह कार्रवाई से दिया गया.

यह सिलसिला आगे भी चलेगा. चीन जमीन कब्जाने के फेर में नहीं है. वह हमारे राष्ट्रीय संकल्प, मनोबल, और अपने रणनीतिक फैसले करने में स्वायत्तता की हमारी भावना को निशाना बनाना चाहता है. वह भारत और मोदी सरकार की सबसे कमजोर नस, हमारी विभाजित राजनीति पर हमला कर रहा है. यह सरकार को मजबूर कर रहा है कि वह जनता या संसद को सच्ची बात न बताए, और जितना वह खामोश रहने को मजबूर महसूस करेगी, चीन को उतनी ही बढ़त मिलेगी. और यह बढ़त लद्दाख अथवा अरुणाचल की बंजर जमीन पर नहीं बल्कि हमारी राजनीतिक जमीन पर मिलेगी.

नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार भारत की सुरक्षा को तभी मजबूती दे सकती है जब वह शिखर पर राजनीतिक समीकरणों को सुधारे, विपक्ष से सम्मानजनक व्यवहार करके उन्हें भरोसे में ले ताकि भारत एक स्वर में बोल सके.

1962 प्रकरण पर आईं सभी सम्मानित किताबों को आप पढ़ें तो पता चलेगा कि तब संसद में उग्र बहसें और आलोचनाएं हुईं, नेहरू को इस तरह शर्मसार किया गया कि वे ऐसा युद्ध करने को मजबूर किए गए जिसमें अपनी हार का उन्हें पता था. उनकी आलोचना सिर्फ विपक्ष नहीं कर रहा था, उनकी अपनी पार्टी और मंत्रिमंडल तक के लोग इसमें शामिल थे. 1962 की एक प्रमुख सीख यह भी है कि हमें कहीं बेहतर, कहीं ज्यादा प्रौढ़ और परस्पर अधिक भरोसे वाली राजनीति करने की जरूरत है. हमारी सेना जबकि अपना काम काफी प्रभावी ढंग से कर रही है, हमारी प्राथमिकता यही होनी चाहिए.

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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